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आखिर क्यों गायब होती जा रही है गोरैया

विशेषज्ञों की मानें, तो तेज शहरीकरण और मोबाइल फोन टावरों ने तो गोरैयों के सामने मुश्किलें खड़ी की ही हैं कबूतर भी इनके लिए खलनायक की भूमिका निभा रहे हैं।

By Srishti VermaEdited By: Published: Mon, 20 Mar 2017 12:48 PM (IST)Updated: Mon, 20 Mar 2017 01:02 PM (IST)
आखिर क्यों गायब होती जा रही है गोरैया
आखिर क्यों गायब होती जा रही है गोरैया

बचपन में हमारे सामने फुदकने वाली गौरैया आजकल नजर क्यों नहीं आती और चारों ओर गूटर-गूं करने वाले कबूतरों की फौज क्यों जमा हो गई है। मेट्रो स्टेशनों पर इनका जमावड़ा क्योंकर होता जा रहा है। विशेषज्ञों की मानें, तो तेज शहरीकरण और मोबाइल फोन टावरों ने तो गोरैयों के सामने मुश्किलें खड़ी की ही हैं कबूतर भी इनके लिए खलनायक की भूमिका निभा रहे हैं।

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वन्य जीव विशेषज्ञ फैयाज खुदसर की मानें, तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत केवल मनुष्यों पर ही नहीं, पशु-पक्षियों पर भी लागू होती। उनके मुताबिक दिल्ली से गोरैयों को खदेड़ने में सबसे बड़ी भूमिका इन कबूतरों ने ही निभाई है। इन्होंने उन जगहों पर कब्जा जमा लिया है, जहां पर कभी छोटी गौरैया घोंसले बनाया करती थी। दिल्ली में लोग दाने तो तमाम पक्षियों के लिए डालते हैं, लेकिन डील-डौल में गौरैया से तगड़े पड़ने वाले कबूतर उन्हें टिकने नहीं देते। शांति के प्रतीक कहे जाने वाले ये कबूतर पेट की भूख के लिए भिड़ने से बाज नहीं आते। दाने का इंतजाम तो हो ही जाता है और घोंसले ये कहीं भी बना लेते हैं। उन्होंने आगाह किया कि दिल्ली में कबूतरों की बढ़ती संख्या दिल्लीवालों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है क्योंकि ये जो बीट करते हैं, उसमें एक खास किस्म का बैक्टिरिया पनपता है जिससे सांस की बीमारी होने का खतरा रहता है।

गोरैयों को लेकर बांबे नेशनल हिस्ट्री सोसायटी ने भारत सरकार के वन व पर्यावरण विभाग के साथ मिलकर गोरैयों को लेकर एक अध्ययन किया है। जिसमें दिल्ली पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। विशेषज्ञों ने कहा है कि गोरैयों के नजर नहीं आने की एक बड़ी वजह महानगरीय परिवेश है। हम ऐसी इमारतें बना रहे हैं जिनमें किसी पक्षी के टिकने की जगह नहीं बचती। बिजली के पुराने मीटर हटने से सरकारी कमाई में भले इजाफा हुआ हो, लेकिन अब मीटरों के पास चोंच में तिनके दबाए घोंसला बनाती गोरैया ने दिखना बंद कर दिया है।

खुदसर बताते हैं कि दिल्ली का रिज एरिया ७७७७ हैक्टेयर में फैला हुआ है। पर्यावरण की दृष्टि से इन्हें दिल्ली का फेंफड़ा भी कहते हैं, लेकिन यहां लगे विदेशी कीकर लगाने का एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि इनके आसपास और कोई वनस्पति नहीं उग पाई। उन्होंने कहा कि केवल हरियाली हो जाना ही काफी नहीं है। किस पेड़ पर घोंसला बनाएं, कैसे परिवेश में रहें, इन मामलों में पक्षियों की अपनी पसंद-नापसंद होती है।

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