लघुकथा: खरीद-फरोख्त
एक तरफ थके-हारे लोग अपनी तरफ से हर संभव व्यवस्था करते हुए बात आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे कि बात उनकी जेब से बड़ी या दूर न चली जाए।
‘अरे आपने तो कुछ लिया ही नहीं! ऐसे कैसे काम चलेगा? हमारे लिए तो आपकी खुशी में ही अपनी खुशी है।’ कुछ
इसी तरह की बातें माथुर साहब के घर के तीनों सदस्य कर रहे थे और सामने बैठे सक्सेना जी के परिवार के 10 लोग पेट में जगह न होने के बाद भी जी भरकर नाश्ते-पानी का लुμत उठा रहे थे। एक तरफ थके-हारे लोग अपनी तरफ से हर संभव व्यवस्था करते हुए बात आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे कि बात उनकी जेब से बड़ी या दूर न चली जाए।
सब कुछ अच्छे से चल रहा था। पर अंदर ही अंदर सिर झुकाए बैठी स्नेहा और उसके मम्मी-पापा डर रहे थे कि
बेटी का रिश्ता नहीं हुआ तो एक बार फिर जगहंसाई हो जाएगी। बात लेन-देन की शुरू हो गई और जैसे ही माथुर
साहब ने अपने सीमित बजट की बात कही कि समोसा खा रहे चाचाजी के गले में एकाएक कुछ अटक गया। बात
वहीं रुक गई, तब चाचाजी बोले कि ‘ऐसे कैसे अटक अटककर काम चलेगा? अभी तो शुरुआत हुई है?’ और
खरीद-फरोख्त का सिलसिला एक बार फिर चल पड़ा।
आरती तिवारी
ई.डब्ल्यू.एस 4876 आवास विकास-3 पनकी, कानपुर