व्यंग्य: एंड्रायड फोन और मेरी फ्रीज्ड निजता
हॉट केक की तरह आनन-फानन में बंटने और चखने के लिए तैयार माल जैसी बन गई। बस स्टॉप पर बिकने और चखने के लिए मुμत में बंटने वाले पाचक चूरन जैसी कुछ।
मैंने एंड्रायड फोन क्या लिया, मैं तो एकदम हाईटेक किस्म की स्मार्ट ही हो ली। कुछ हद तक स्ट्रीट स्मार्ट भी बन गई। मेरी फ्रीज्ड निजता यकायक हाट का सामान हो गई। हॉट केक की तरह आनन-फानन में बंटने और चखने के लिए तैयार माल जैसी बन गई। बस स्टॉप पर बिकने और चखने के लिए मुμत में बंटने वाले पाचक चूरन जैसी कुछ। टेक्नोलॉजी अच्छे-भले आदमी को क्या से क्या बना देती है! मेरी निगाह में गूगल जी से बड़ा कोई चुगलखोर और पीपिंग टाम शायद ही हो। वह आपसे जुड़े फोन नंबर तक को उसी उदारता से उलीचता है जिसकी परिकल्पना कभी पूत कमाल के जनक कबीर जी ने जलप्लावित नाव और घर में बाढै़ दाम के रूपक में की थी।
मेरा छोटा सा फोन निष्प्रयोज्य
होकर टांड़ पर धर दिया गया है, पर मेरी पहचान वायरल हो ली है। तुलसी पत्र, गिलोय के रस और अदरक के जरिए तो मैं खुद को चिकनगुनिया टाइप के वायरल फीवर की चपेट में आने से जैसे -तैसे बचा ले गई थी लेकिन इस बार गूगल ने बचने का मौका ही नहीं दिया। मेरा मोबाइल नंबर जिस-तिस के पास अपने आप पहुंच गया और
उन टेलीमार्केटिंग वालों से लेकर होलटाइमर प्रेमीजन तक के पास भी जा पहुंचा जो बिना दरवाजा नॉक किए किसी भी जगह जा पहुंचने की संपूर्ण आजादी के हामी हैं। ये बेतकल्लुफ लोग दरअसल बिल्कुल कोलंबस टाइप के यायावर और जिज्ञासु होते हैं। उनकी खोजी निगाहें अथाह जलराशि के पार और क्षितिज से परे की गोपन दुनिया में भी सरलता से ताक-झांक कर लेती हैं।
सो उन्होंने मुझे सोशल मीडिया पर ढूंढ़ ही लिया। उनकी हाय, हैलो, नमस्कार, सुप्रभात और शुभरात्रि आदि मेरे इनबॉक्स में बेनागा आने लगे। कभी-कभार उनका फूलों का गुलदस्ता और गुडमॉर्निंग आने में विलंब होता तो मुझे घर की बालकनी में जाकर कन्फर्म करना पड़ता कि आज भी वाकई सुबह हो गई है या नहीं। रात वाली गुडनाइट मिस होती तो मन सोचने लगता कि अरे आज रात तो पता नहीं क्या हो? पता नहीं चाहत का खाली पिंजरा लिए नींद की बटेर को टेरतेटेरत् ो ही सवेरा हो जाए।
मेरे इस नए एंड्रॉयड फोन ने तो मेरा पूरा जीवन ही रूपांतरित कर दिया। मुझे लगने लगा कि मेरे चारों ओर रोशनी
और रंगों का नयनाभिराम प्रभामंडल बनता जा रहा है। मैं अपने को सेलिब्रिटी जैसा अनुभव करती तो लगता कि टाइम मशीन में बैठकर मैं जिंदगी के सोलहवें साल (या शायद इक्कीसवें) में पहुंच गई हूं।
हालांकि मुझसे यह बात किसी ने अब तक कही नहीं लेकिन अनुभव यही होता है कि मेरी कामनाएं पेट्रोल जैसी
हो चली हैं। किसी ने जरा सी चिंगारी दिखाई नहीं कि आग धधक उठेगी। कभी-कभी सोचती हूं कि अपनी देह पर अति ज्वलनशील या हैंडल विद केयर जैसा हिदायती प्लेकार्ड टांग लूं ताकि इनबॉक्स वाले तमाम प्राणप्रिय लोग मेरे इस वाचाल एंड्रॉयड की वजह से अपनी जान सांसत में न डालने की नादानी न करें।
रियल वल्र्ड की तरह आभासी दुनिया में भी एहतियात ही बचाव है लेकिन यह अलग बात है कि यह संचारजनित
स्मार्टनेस इस तरह के अवसर जरा कम ही देती है। गलतफहमियों का भी अपना काला जादू होता है।
दर्शना गुप्ता
101-सी थर्ड μलोर, कुंदन प्लाजा,
हरीनगर आश्रम, नई दिल्ली-110014