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इतिहास खुद को दोहरा रहा है लेकिन इस बार साहित्य के रूप में

हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में भारत-पाक युद्ध और देश के बंटवारे पर खूब किताबें लिखी जा रही हैं। पाठक भी इन्हें कर रहे हैं उतना ही पसंद...

By Pratibha Kumari Edited By: Published: Sun, 05 Mar 2017 02:54 PM (IST)Updated: Sun, 05 Mar 2017 04:19 PM (IST)
इतिहास खुद को दोहरा रहा है लेकिन इस बार साहित्य के रूप में
इतिहास खुद को दोहरा रहा है लेकिन इस बार साहित्य के रूप में

अश्विन सांघी की ‘सियालकोट गाथा’, रचना रावत बिष्ट की ‘1965 भारत-पाक युद्ध की वीरगाथाएं’, शशि पाधा की ‘शौर्य गाथाएं’, किरण दोशी की ‘जिन्ना ऑफन केम टू अवर हाउस’, प्रियंवद की ‘भारत विभाजन की अंत:कथा’ आदि कई किताबें हैं, जो भारत-पाक युद्ध या विभाजन की पृष्ठभूमि पर हाल के कुछ वर्षों में लिखी गई हैं। जब देश विभाजन की त्रासद यादें ताजा थीं, उस समय भी कई सारे कालजयी उपन्यास जैसे यशपाल का ‘झूठा सच’, खुशवंत सिंह का ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, भीष्म साहनी का ‘तमस’, अमृता प्रीतम का ‘पिंजर’, सलमान रुश्दी का ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ आदि लिखे गए थे। ज्यादातर उपन्यासों में आंखों-देखे भयावह मंजर को शब्द दिए गए। आज की युवा पीढ़ी ने न देश के विभाजन को देखा है और न भारत-पाक युद्ध को। फिर भी युद्घ और बंटवारे की टीस उनके दिल में उठती रहती है। वे इतिहास खंगालते हैं, विषय पर शोध करते हैं और विभाजन या युद्ध से प्रभावित हुए लोगों से बातचीत कर किताब लिखते हैं। पाठक मानते हैं कि इन विषयों पर आधारित किताबें उनमें देशभक्ति का जज्बा जगाती हैं। शहीद हुए सैनिकों के बारे में जानने का मौका देती हैं।

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अनुभवों पर किताबें
‘जिन्ना ऑफन केम टू अवर हाउस’ एक फिक्शन है, जिसमें किरण दोशी ने काल्पनिक कहानी के माध्यम से भारत और पाकिस्तान के तनावपूर्ण संबंधों को प्रमुखता से दिखाया है। दरअसल, किरण पूर्व में राजनयिक (विदेश सेवा) रह चुके हैं। उन्होंने भारत-पाक वार्ता को विफल होते और युद्ध के लिए जमीन तैयार होते हुए कई बार देखा है। वे कहते हैं, ‘इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मैं यह अक्सर सोचा करता कि भारत-पाक संबंधों में इतनी तल्खियां और पेंच क्यों हैं?’ किरण की पत्नी मुस्लिम हैं। वे उन्हें अक्सर बताया करती थीं कि बचपन में वे बड़े-बुजुर्गों से कहानी सुना करती थीं कि कभी उनके घर पाकिस्तान के जनक जिन्ना आया करते थे। बस इसी कल्पना के सहारे किरण ने 500 पन्नों का यह उपन्यास लिख लिया। इसी तरह नंदिता भावनानी की किताब ‘द मेकिंग ऑफ एग्जाइल-सिंधी हिंदूज एंड पार्टीशन ऑफ इंडिया’ विभाजन से पहले सिंध में और शरणार्थियों के रूप में भारत में विकट परिस्थितियों का सामना करने वाले सिंधियों पर है।

अलग-अलग दृष्टिकोण
हाल ही में लेखिका शशि पाधा ने भारतीय सेना के शौर्य और बलिदान पर ‘शौर्य गाथाएं’ किताब लिखी है। एक सैनिक की पत्नी होने के नाते उन्होंने लगभग 35 वर्ष सैनिकों के बीच ही व्यतीत किए। तभी वे उनके जीवन पर पुस्तक शब्दबद्ध कर पाईं। शशि कहती हैं, ‘वीरों और उनके परिवारों से मिलने के बाद मुझे लगा कि इनके पराक्रम और इनकी दुश्वारियों के बारे में आम जनता को जरूर जानना चाहिए, तभी वे जान पाएंगे कि उनके सुरक्षित जीवन के लिए सीमा-प्रहरियों को अपनी जान तक की बाजी लगानी पड़ती है।’ देश विभाजन के कई साल बीत जाने के बावजूद इस विषय पर लगातार किताबें लिखी जा रही हैं। भारत-पाक विभाजन पर ‘भारत विभाजन की अंत:कथा’ लिखने वाले प्रियंवद कहते हैं, ‘विभाजन एक बहुत बड़ा विषय है। इसके सैकड़ों पहलू हैं। इसे देखने के कई अलग नजरिए हो सकते हैं।’

खालीपन भरने का जरिया
‘यूटोपिया’ जैसा चर्चित उपन्यास लिख चुकीं वंदना राग ने कारगिल युद्ध पर कहानी लिखी ‘शहादत और अतिक्रमण’। वे कहती हैं, ‘युद्ध की बजाए मैंने युद्ध से प्रभावित हुए परिवारों को केंद्र में रखकर कहानी लिखी और युद्ध की विद्रूपता को सामने ला पाई। किसी सैनिक की शहादत के बाद उसके परिवार पर दुख का जो पहाड़ टूटता है, उस पर मैं एक उपन्यास भी लिख रही हूं।’ बात को आगे बढ़ाते हुए वंदना कहती हैं, ‘पहले भी उत्कृष्ट उपन्यास लिखे गए हैं लेकिन इन दिनों युद्ध और बंटवारे पर किताबें लिखने की एक वजह यह भी है कि कॉरपोरेट वर्ल्‍ड में काम करने वाले युवाओं की भौतिक इच्छाएं तो पूरी हो गई हैं लेकिन उनके अंदर एक खालीपन रहता है। उसे भरने के लिए उन्हें कुछ मुद्दा चाहिए, जिससे उन्हें लगे कि वे भी समाज को योगदान दे रहे हैं। इसी चाह को पूरा करने के लिए कुछ युवा समाजसेवा करने लगते हैं, तो कुछ एनजीओ आदि चलाने लगते हैं। दूसरी ओर, कुछ युवा देशप्रेम का जज्बा जगाने वाली किताबें भी लिखने लगते हैं।’

युवा जान सकें सच
‘लोग सवाल पूछते हैं कि जब पूरी दुनिया शांति की ओर बढ़ रही है, तब युद्ध की कहानियां लिखकर उसे क्यों याद किया जाए। उसे भूल जाने में ही भलाई है,’ कहती हैं भारत-पाक युद्ध पर दो किताबें ‘शूरवीर’ और ‘1965 भारत-पाक युद्ध की वीरगाथाएं’ लिख चुकीं रचना रावत बिष्ट। वे आगे कहती हैं, ‘लेखक इतिहास को दस्तावेज बनाते हैं, ताकि अगली पीढ़ी अपने देश के साथ होने वाले युद्ध के बारे में जान सके।’ रचना की किताबें युद्ध में भाग लेने वाले
शहीदों पर आधारित हैं। वे बताती हैं, ‘किताबें लिखने से पहले मैं शहीदों के गांव गई। उनके परिवार और गांववालों से मिली। कारगिल युद्ध में शहीद हुए विक्रम बत्रा के मां-पिता हिमाचल के जिस गांव में रहते हैं, वहां के हर एक व्यक्ति की जुबान पर आज भी उनका नाम है। इस बात की जानकारी देश के अन्य लोगों को भी होनी चाहिए ताकि वे प्रेरणा लेकर अपने यहां के शहीदों और उनके परिवारवालों को सम्मान देने के लिए अग्रसर हों।’ यही बात 1947 के बाद के भारत की पृष्ठभूमि पर ‘सियालकोट सागा’ लिखने वाले वाले अश्विन सांघी भी मानते हैं। वे कहते हैं, ‘युवा पीढ़ी देश की महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में जानना चाहती है, क्योंकि वह उसकी गवाह नहीं है। ‘सियालकोट सागा’ विभाजन के नकारात्मक पहलुओं की बजाए सकारात्मक पहलुओं को सामने लाई है, इसलिए यह बेस्टसेलर बन पाई।’ समीक्षक सुमन सिंह कहती हैं, ‘युद्ध में शहीद हुए नायकों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हैं उनके जीवन पर लिखी किताबें।’
 
स्मिता


 


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