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गीली मिट्टी जैसी होती है बचपन, परवरिश में ना करें जल्दबाजी

बड़े चाहते हैं कि बच्चे बौद्घिक रूप से ही नहीं, भावनात्मक रूप से भी सशक्त और परिपक्व बनें, पर क्या केवल नसीहतों से बन सकती है बात?

By Srishti VermaEdited By: Published: Mon, 20 Mar 2017 10:58 AM (IST)Updated: Mon, 20 Mar 2017 02:34 PM (IST)
गीली मिट्टी जैसी होती है बचपन, परवरिश में ना करें जल्दबाजी
गीली मिट्टी जैसी होती है बचपन, परवरिश में ना करें जल्दबाजी

संजीदगी से बात करो। आंसू बहाना सही नहीं। दर्द में भी मुस्कुराते रहो। नफरत करना बुरी बात है और प्यार पूरे होश में करना सीखो... बच्चों को दिए जाने वाले ऐसे निर्देशों की कमी नहीं है...

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बीते साल रिलीज ‘डियर जिंदगी’ फिल्म के एक दृश्य में कायरा यानी आलिया भट्ट से शाहरुख खान कहते हैं, ‘बचपन में जब रोना आता है तो बड़े कहते हैं आंसू पोंछो, जब गुस्सा आता है तो कहते हैं ‘जस्ट स्माइल’ ताकि घर की शांति बनी रहे। नफरत की इजाजत नहीं और जब हम प्यार करना चाहते हैं तो सारा इमोशनल सिस्टम गड़बड़ा जाता है। रोना, गुस्सा, नफरत कुछ भी खुलकर जताने नहीं दिया गया तो प्यार कैसे जताएं?’ यह केवल फिल्मी डायलॉग नहीं, हर मन में धंसा सवाल है। सोचने वाली बात यह है कि क्या एक ढर्रे में सुनाए जाने वाले ये निर्देश सचमुच काम आते हैं या फिर औपचारिक तौर पर सुना दिए जाने के लिए बनाए गए हैं? मनोवैज्ञानिक विपुल रस्तोगी के मुताबिक, ‘यह दौर हड़बड़ाहट का है। परवरिश में भी यही जल्दबाजी मिलती है। कम उम्र में ही जल्दी समझदार बनाने की धुन अक्सर बच्चों और बड़ों के बीच दूरी पैदा कर देती है।’

बड़ा करने की जल्दी
बच्चे उम्र के साथ ही बड़े यानी समझदार हो सकते हैं, पर ऐसे अभिभावकों की संख्या ज्यादा है, जो छुटपन से ही बच्चों को बौद्घिक और भावनात्मक रूप से ‘बड़ा’ बनाने की कवायद में जुट जाते हैं। कवि, लेखक व उपन्यासकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने अपनी मशहूर कृति ‘शेखर-एक जीवनी’ में इसी बात को बड़ी खूबसूरती से पेश किया है। उन्होंने इसके खंड एक में लिखा है, ‘लोग प्राय: भूल जाते हैं कि उनका जीवन क्या रहे, तभी समाज यह विधान बना पाता है कि योग्य माता-पिता वही हैं जो बच्चों को बड़ों की तरह रहना सिखाएं।’ वे आगे यह भी कहते हैं, ‘अपनी संतान को बड़े लोगों सा बर्ताव सिखाते समय वे भूल जाते हैं कि वे भी कभी बच्चे थे। कभी वैसी शरारतें करते थे। यदि माता-पिता इतना भर याद रख सकते तो उनकी संतान और स्वयं वे कितने सुखी होते।’ लेखक ने इसी किताब में एक और पते की बात कही है। उनके मुताबिक, ‘बच्चों का मस्तिष्क गीली मिट्टी सा है तो यह भी ध्यान रहे कि पांव के निशान पक्की सड़क पर नहीं गीली मिट्टी पर ही पड़ते हैं!’

काम नहीं आती पैंतरेबाजी
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, ‘छोटी उम्र में अवसाद के मामले तेजी से सामने आ रहे हैं, तो इसका एक कारण अभिभावकों की वो उम्मीदें हैं, जो कम उम्र से ही बच्चों पर लादी जा रही हैं। हम बच्चों को यह भी बताएं कि उन्हें कब गुस्सा करना है, कब हंसना है, कौन सा पैंतरा कब अपनाना है वगैरह, तो जरूरी नहीं है कि वे आपकी बात ज्यों-की-त्यों मान लें। इसके विपरीत यह भी हो सकता है कि वे इन बातों को पूरी तरह से अनसुना कर दें और अपने नियम खुद बना लें।’ बालमनोवैज्ञानिक और काउंसलर शिल्पा गुप्ता की बात यहां सटीक बैठती है, ‘यह बच्चे को नहीं, आपको निर्णय करना है कि आप किस तरह के अभिभावक बनना चाहते हैं। बात-बात पर बच्चों को चिड़चिड़ा कर देने वाले या दूर से ही उनके स्वभाव को समझकर उन्हें किसी मसले का हल तलाशने में मदद करने वाले।’ सनम बैंड के सदस्य केशव धनराज भी यही कहते हैं, ‘अभिभावकों से ट्यूनिंग मिले तो यह खुद में एक उपलब्धि है। जेनरेशन गैप तो हमेशा से है पर जो संवाद बनाए रहते हैं, वहां खूबसूरत रिश्ते की बुनियाद पड़ जाती है।’

क्यों लगे अपनी भली?
यह सही है कि परवरिश या बच्चों को बड़ा करने का सही-सही या परफेक्ट फॉर्मूला मौजूद नहीं है। आदर्श व्यवहार प्रणाली भी तय नहीं। फिर परवरिश के लिए ऐसा क्या करें कि वे कारगर रहें? सवाल पेचीदा है और इस संबंध में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और ‘द नेचर ऑफ एजंपशन-व्हाई चिल्ड्रेन टन्र्स आउट द वे दे डू’ के लेखक जुडिथ रिच ने काफी काम किया है। उनके मुताबिक, ‘हम सब अपने बारे में एक भ्रम रखते हैं कि हम औरों से बेहतर हैं। औरों से अलग मानने की बात बच्चों की परवरिश तक जा पहुंचती है। यही बात है जो हमें बच्चों के प्रति तटस्थ रवैया अपनाने से रोकती है, क्योंकि हमें लगता है कि हम सही हैं।’ लगभग सभी अभिभावक ऐसा ही सोचते हैं और जब उनकी सोच को धक्का लगता है तो नसीहतों की राह सरल जान पड़ती है। पर नसीहत किसे भाती है? आमनेसामने की बातचीत की कमी आज सबसे बड़ा संकट है। आपका बच्चा यदि इससे वंचित हो रहा है, तो ध्यान रहे वह जरूरी सामाजिक दक्षता-कौशल से भी दूर हो रहा है। आत्मकेंद्रित युवाओं की बढ़ती तादाद इसी बात की तरफ इशारा करती है।

स्पर्श की गहराई
आप खुद को बच्चों के करीब पाते हैं पर क्या बच्चों को अपने लिए भी सहज पाते हैं? यह सवाल ही आपकी परवरिश की कसौटी तय करता है। मनोविज्ञान के इस बारीक पहलू को अब तेजी से अपनाया जा रहा है। बच्चों के जन्म से पहले पिता का बच्चों से लगाव और जन्म के बाद उनका स्पर्श कराया जाना इनमें से एक है। जरूरत बस इस बात की है कि बाकी दिनों में यही स्पर्श बना रहे। समाजशास्त्री रितु सारस्वत के मुताबिक, ‘बच्चा अपने अभिभावक को रोल मॉडल तो मानता है पर अगर इज्जत नहीं दे पाता तो इसका सबसे बड़ा कारण है उसके प्रति अक्सर असंवेदनशील व्यवहार अपनाया जाना। ऐसा न हो, इसलिए जरूरी है कि आप खुद एक संयमित इंसान बनने की पहल करें। बच्चों को टालें नहीं उन्हें महत्व देते हुए हरदम साथ होने का अहसास दिलाएं।’

मुझसे न रूठो मां
भारतीय परिवारों में यह नजारा आम है कि अक्सर क्रोध आने पर मां बच्चे से बात करना बंद कर देती है। मां-बच्चे के बीच थोड़ा रूठना-मनाना तो सामान्य सी बात है लेकिन इसे दिनचर्या में शुमार न करें। परिवार में भले ही कोई भी सदस्य कितना भी स्नेह करे लेकिन बच्चे का सर्वाधिक जुड़ाव मां से ही होता है। मां की उपेक्षा से त्रस्त बच्चा पूरे परिवार में भटकता है और कभी-कभी अपने हमउम्र भाई-बहनों के उपहास तक का केंद्र बन जाता है! अगर वह एकल परिवार में है तो अवसादग्रस्त हो जाता है और संयुक्त परिवार में है तो खुद की उपेक्षा और दूसरे बच्चों को दुलार देख कर चिड़चिड़ा और विद्रोही हो जाता है। तो संयम से काम लीजिए, आखिर वह आपका ही अंश है। बच्चे की गलती पर इतना भी न रूठिए कि उसके गुलाबी गालों पर आंसुओं की लकीरें बन जाएं; अंत में उन्हें पोंछना भी आपको ही पड़ेगा, आप मां जो हैं!

टोका-टोकी से बिगड़ती ट्यूनिंग
अभिभावक हमेशा भला सोचते हैं लेकिन सोचने और करने में फर्क है। मेरे पैरेंट्स ने ज्यादा टोका-टोकी नहीं की, क्योंकि खुद उन्हें भी संगीत का बहुत शौक था। आपस में हमारी ट्यूनिंग सही है। उन्होंने मेरे पैशन को भी शिद्दत से समझा। आज उनकी वजह से मैं एक सिंगर हूं और यूट्यूब चैनल में स्टार है हमारा बैंड। -सनम पुरी, गायक

बदलनी होगी परंपरागत सोच
हम जीवन में वही राह चुनते हैं, वैसे बनते हैं, वैसी ही प्रतिक्रियाएं दर्शाते हैं जो हमने देखा-समझा है। पैरेंट्स को चाहिए कि परंपरागत स्वरूप को ढोते रहने की बजाए थोड़ा बदलाव करके देखें। शुरुआत कर दी है आज के पैरेंट्स ने। दूरियां कम हो रही हैं। -ल्यूक केनी, मॉडल-एक्टर

भरोसा करके देखें
मेरी बेटी बढ़िया डांस करती है। मुझे इसमें कोई एतराज नहीं, अच्छा लगता है। उस पर पूरा भरोसा है, उसके निर्णय का सम्मान करती हूं। उसे भी यह बात भली लगती है। यह भरोसा ही बच्चों को बड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाता है। -सुप्रिया पिलगांवकर, अभिनेत्री

प्रस्तुति- सीमा झा

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