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स्वच्छता अभियान के डेडिकेटेड वॉरियर्स

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश भर में भले ही नए सिरे से स्वच्छता अभियान की शुरुआत की गई हो, लेकिन देश में कुछ ऐसे भी सेल्फ-मोटिवेटेड लोग हैं, जिन्होंने काफी पहले से ही इस अभियान को अपना रखा है। अपने ईमानदार प्रयासों से वे सबके लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं.. न बनाएं कचरे का पहाड़ दिल्ली में गाजीपुर मंडी के

By Edited By: Published: Tue, 14 Oct 2014 12:58 PM (IST)Updated: Tue, 14 Oct 2014 12:58 PM (IST)
स्वच्छता अभियान के डेडिकेटेड वॉरियर्स

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश भर में भले ही नए सिरे से स्वच्छता अभियान की शुरुआत की गई हो, लेकिन देश में कुछ ऐसे भी सेल्फ-मोटिवेटेड लोग हैं, जिन्होंने काफी पहले से ही इस अभियान को अपना रखा है। अपने ईमानदार प्रयासों से वे सबके लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं..

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न बनाएं कचरे का पहाड़

दिल्ली में गाजीपुर मंडी के पास कूड़े का पहाड़ हो या फिर मुंबई के देवनार में कचरे का अंबार, देश के शहरों में यह समस्या विकराल होती जा रही है। ऐसे में अमेरिका से साइंस में पोस्ट ग्रेजुएट मुंबई की सॉफ्टवेयर इंजीनियर चार्वी पारेख एक पॉजिटिव राह दिखाती हैं..

कई साल पहले जब मैंने नीदरलैंड की धरती पर कदम रखा और अपने अपार्टमेंट में पहुंची, तो यह देखकर हैरान रह गई कि मेरे पड़ोसी कूड़े को दो तरह से अलग-अलग करके रखते थे, एक ड्राई और दूसरा वेट। वहां म्यूनिसिपैलिटी ही अलग-अलग डस्टबिन देती है। गीला कचरा पौधों के लिए कम्पोस्ट के रूप में यूज हो जाता है और सूखा कचरा रिसाइकिल कर दिया जाता है। इससे मैं बहुत प्रभावित हुई और सोचा, क्यों न इसे मुंबई में भी अप्लाई किया जाए। अगर कॉलेज, कॉरपोरेट कैंटींस और वेडिंग हॉल्स में इसी तरह अलग-अलग डस्टबिन रख दिए जाएं, तो म्यूनिसिपैलिटी को काफी सहूलियत हो जाएगी।

अलग-अलग हों डस्टबिन

जुलाई 2010 में मैंने अनलिमिटेड इंडिया की मदद से 40 हजार की लागत में मीटूग्रीन नामक प्रोजेक्ट लॉन्च किया। हमने अलग-अलग तरह के कूड़े के लिए अलग रंगों के डस्टबिन रखने शुरू कर दिए। प्लास्टिक आइटम के लिए पीले रंग का, पेपर्स के लिए नीले रंग का, गीले कचरे के लि­­ए हरे रंग का डस्टबिन रख दिया। लाल रंग का डस्टबिन नॉन-रिसाइक्लेबल आइटम, जैसे- चॉकलेट रैपर्स, थर्माकोल आदि के लिए था। यह सब फिर म्यूनिसिपैलिटी को प्रॉपर डिस्पोजल के लिए भेज दिया

जाता है।

हर नागरिक की जिम्मेदारी

हमने स्त्री मुक्ति संगठन के साथ टाइ-अप किया है, जिससे कई महिलाओं को रोजगार भी मिला है। हमारी कोशिश है कि लोगों को इसके बारे में जागरूक किया जाए। ज्यादातर लोगों को तो पता ही नहीं कि सूखे और गीले कचरे के लिए अलग-अलग डस्टबीन रखना चाहिए।

जज्बे ने बनाया अभियान का लीडर

सड़क पर खुलेआम कूड़ा फेंक देना, सड़क किनारे पेशाब करना, सार्वजनिक जगहों पर थूकना या कुल्ला करना ये सब ऐसी आदतें हैं, जो आपको हर शहर में दिख जाएंगी। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो न केवल इन सारी बातों का ध्यान रखते हैं, बल्कि ऐसा करने वालों को दृढ़ता से रोकते भी हैं। मुंबई में रहने वाले प्रोफेशनल इंटीरियर डिजाइनर विस्टास्प खरास ऐसे ही एक शख्स हैं, जिन्हें बीएमसी ने सफाई अभियान को लीड करने के लिए चुना है।

14 जून 2014 की शाम करीब 6 बजे मैं बांद्रा के टर्नर रोड के लिए एक्सिस बैंक सिग्नल से होकर गुजर रहा था। रेड लाइट पर रुका था। कार में बैठा सिग्नल के ग्रीन होने का इंतजार कर रहा था। बगल में ही एक बीएमडब्ल्यू कार खड़ी थी। अचानक उसमें बैठे एक युवक ने कोक की खाली कैन सड़क पर फेंक दी। मैं कार से उतरा। कैन उठाया और बीएमडब्ल्यू ड्राइवर के पास जाकर बोला, भाई साहब, आपका यह सामान सड़क पर गिर गया। उसने कहा, नहीं, मैंने इसे फेंका है। मैंने कहा, आपको लगता है, इस तरह बीच सड़क कूड़ा फेंकना ठीक है? उसने कोई रेस्पांस नहीं दिया और गुस्सा दिखाने लगा। मैं वापस आकर अपनी कार में बैठ गया। इतने में वह युवक आकर मेरी कार के विंडो पर जोर-जोर से मारने लगा। मैं बाहर निकला तो उसने मेरे चेहरे, गर्दन, पेट सब जगह हमला कर दिया। मेरे पास डिफेंड करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। तभी उसके साथ बैठा दूसरा युवक भी आ गया। वे मुझे ताबड़तोड़ पीटने लगे। गनीमत हुई कि आस-पास के कुछ लोग आ गए। इतने में सिग्नल ग्रीन हुआ, वे दोनों अपनी कार में बैठकर निकल लिए। 16 जून को कार के ओनर के खिलाफ मामला दर्ज हुआ और अगले दिन यानी 17 जून को सुबह 10 बजे उन युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। भले ही वे 15 हजार की जमानत पर छूट गए, लेकिन इस घटना ने कई सारे लोगों को सबक दे दिया।

पुणे में पहल से बदली सोच

एक समय था जब पुणे में घरों का कचरा सड़कों पर फैला मिलता था। स्थानीय लोगों में सफाईकर्मियों के प्रति अविश्वास और हीन-सी भावना हुआ करती थी। लेकिन स्वच्छ संगठन ने न सिर्फ समाज का नजरिया बदला, बल्कि उन्हें स्वच्छ शहर के निर्माण को लेकर प्रेरित भी किया। अभिजीत खंडाग्ले भी अपनी मां से प्रेरणा लेकर एक कार्यकर्ता के रूप में स्वच्छ के साथ जुड़े। आज वह इसके को-ऑर्डिनेटर हैं और पूरे एक वार्ड की साफ-सफाई की जिम्मेदारी इनकी है।

पहल करने से आता है बदलाव

पुणे के एक वार्ड से औसतन 6 टन गीला कचरा निकलता है और तीन से चार टन सूखा कचरा। लेकिन पहले लोगों को इसका भेद मालूम नहींथा। वे सारा कचरा एक-साथ निकाल देते थे। इससे रैग पिकर्स या सफाईकर्मियों की मुश्किल बढ़ जाती थी। वे बीमारियों के शिकार हो जाते थे। लेकिन धीरे-धीरे जब लोगों को इसके प्रति जागरूक किया गया, तो वे खुद से ही अलग-अलग कचरा निकालने लगे। इतना ही नहीं, वे ओपन प्लॉट्स में कचरा फेंकने वालों पर नजर रखते हैं। खुद बीएमसी या स्वच्छ के वर्कर्स को सफाई के लिए बुलाते हैं, क्योंकि पहल करने से ही कोई भी बदलाव आता है।

सैनिटेशन के प्रति जागरूकता अभियान

भारत के गांवों में ओपन डिफेकेशन (खुले में शौच) एक बहुत बड़ी समस्या रही है। इससे अक्सर लोग बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। महिलाओं की सुरक्षा पर भी सवाल उठने लगते हैं। ऐसे में बिहार के मधुबनी जिले के रमेश कुमार सिंह घोघरडीहा प्रखंड स्वराज्य विकास संघ (जीपीएसवीएस) के बैनर तले बीते कई सालों से वॉटर एवं सैनिटेशन के मुद्दे पर समाज को जागरूक कर रहे हैं। इसके साथ ही संगठन ने जिले की दो पंचायतों में करीब एक हजार पक्के शौचालयों का निर्माण भी कराया है।

समाज के लिए कुछ करने की चाहत

मैं दरभंगा के एक कॉलेज में प्राध्यापक था, लेकिन हमेशा से समाज को कुछ देने की ख्वाहिश थी। इसलिए 1991 में नौकरी छोड़ जीपीएसवीएस संगठन के साथ जुड़ गया। यह संगठन महात्मा गांधी, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के सिद्धांतों के तहत ग्रामीण समाज के उत्थान, हेल्थ, वॉटर एवं सैनिटेशन के मुद्दों पर काम कर रहा था। मैंने सैनिटेशन प्रैक्टिसेज पर फोकस किया। स्कूलों के अलावा कम्युनिटी लेवल पर सैनिटेशन प्रोग्राम चलाया। इससे लोग साफ-सफाई को लेकर जागरूक होने लगे।

शौचालय निर्माण में चुनौतियां

गांवों में पक्के शौचालयों के निर्माण में सबसे बड़ी चुनौती जमीन की होती है। करीब 60 प्रतिशत लोगों के पास तो अपनी भूमि ही नहींहै, इसलिए वे चाहकर भी टॉयलेट का निर्माण नहींकरा पाते। दूसरी समस्या फंड की होती है। सरकारी रकम लेने के लिए लोगों को दफ्तरों के कितने ही चक्कर लगाने पड़ते हैं, तब जाकर कुछ ठोस हो पाता है। ऐसे में सामाजिक संगठनों की भूमिका और भी बढ़ जाती है। जीपीएसवीएस सैनिटेशन के अलावा मटका फिल्टर तकनीक के जरिये लोगों को स्वच्छ पेयजल की सुविधा भी प्रदान कर रहा है।

इंटरैक्शन : अंशु ंिसह और मिथिलेश श्रीवास्तव


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