Service with satisfaction
चकाचौंध वाली नौकरियों के इस दौर में ऐसे भी युवा हैं, जो पैसे की बजाय समाज व देश के लिए कुछ करने से मिलने वाली आत्मसंतुष्टिï को प्राथमिकता देते हैं। आज की युवा पीढ़ी आत्मिक खुशी के लिए हर वह कदम उठा रही है, जिसमें खुद के साथ-साथ समाज व
चकाचौंध वाली नौकरियों के इस दौर में ऐसे भी युवा हैं, जो पैसे की बजाय समाज व देश के लिए कुछ करने से मिलने वाली आत्मसंतुष्टिï को प्राथमिकता देते हैं। आज की युवा पीढ़ी आत्मिक खुशी के लिए हर वह कदम उठा रही है, जिसमें खुद के साथ-साथ समाज व देश का विकास भी हो। एक ऐसा ही फील्ड है सोशल एंटरप्रेन्योरशिप, जिसे आइआइटी, आइआइएम, आइआरएमए, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज और इनके समकक्ष दूसरे प्रतिष्ठित संस्थानों से निकले ग्रेजुएट्स शौक से चुन रहे हैं। जाहिर है कि इसके पीछे उनकी सोच समाज को आगे बढ़ाने के साथ-साथ सटिस्फैक्शन हासिल करना भी है...
सोशल एंटरप्रेन्योरशिप का मूल मंत्र है...प्रेरित करना और प्रेरित होना, बदलना और बदलाव का नेतृत्व करना, जिससे कि देश का निर्माण हो सके। इंडिया में पिछले 5-6 वर्षों में ऐसे कई सोशल स्टार्ट-अप्स और एंटरप्रेन्योर्स उभर कर सामने आए हैं, जिनका मकसद बिजनेस के साथ सोशल डेवलपमेेंट में भागीदार बनना है। मुंबई के इनवेस्टमेेंट बैंकर विशाल तलरेजा का ही उदाहरण लें। विशाल ने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए अपना सक्सेसफुल करियर छोड़ दिया और ड्रीम अ ड्रीम नाम से एक स्टार्ट-अप लॉन्च किया, जो बच्चों को हुनरमंद बनाता है। इसी तरह बेंगलुरु की पवित्रा एस विंध्य ई-इंफोमीडिया बीपीओ के जरिये गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाली और डिसेबल्ड महिलाओं को स्किल्ड बनाकर उन्हें काम करने का मौका दे रही हैं। सोशल सेक्टर में हो रहे नए-नए प्रयोगों के ये सिर्फ चंद उदाहरण हैं।
मुंबई स्थित जागृति सेवा संस्था तो बीते कई वर्र्षों से देश भर के नौजवानों, चेंज मेकर्स, अपने-अपने क्षेत्रों के लीडर्स को रेल यात्रा के जरिये सोशल डेवलपमेंट की प्रक्रिया से रूबरू करा रही है। 15 दिनों की इस यात्रा में आइआइटी, आइआइएम के स्टूडेंट्स के अलावा विभिन्न क्षेत्रों (मेडिकल, लॉ, मैनेजमेंट, फाइनेंस आदि) के प्रोफेशनल्स शामिल होते हैं। सभी एक समूह में भारत के अलग-अलग हिस्सों की समस्याओं से परिचित होते हैं। एक-दूसरे से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। उनका समाज को देखने का खुद का एक अलग नजरिया विकसित होता है और वे सोशल सेक्टर में आने के लिए तैयार हो पाते हैं। यही वजह है कि हाल के दिनों में आइआइटी के अलावा देश और विदेश के प्रतिष्ठित बिजनेस स्कूलों के तमाम ग्रेजुएट्स ने सोशल एंटरप्रेन्योरशिप के क्षेत्र में कदम बढ़ाए हैं। वे अपने इनोवेटिव सॉल्यूशंस से कई सारी बुनियादी समस्याओं का निदान निकालने में जुटे हैं। फिर चाहे वह पीने के साफ पानी की समस्या हो, किसानों को ऑनलाइन मार्केट उपलब्ध कराने की, क्वालिटी एजुकेशन की, गांवों में रोजगार सृजन, सैनिटेशन या वॉलंटियरिंग की हो। नई पीढ़ी की इस सकारात्मक सोच को देखते हुए वेंचर कैपिटलिस्ट्स और स्पेशलाइज्ड सोशल इनवेस्टर्स भी इन स्टार्ट-अप्स में कैपिटल इनवेस्टमेंट के अलावा नेटवर्र्किंग, मार्केटिंग और बिजनेस एक्सपर्टीज आदि प्रोवाइड कराने के लिए आगे आ रहे हैं। कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत कंपनियां एनजीओ के साथ पार्टनरशिप कर रही हैं। इस बार की एक्सक्लूसिव कवर स्टोरी में मिलते हैं सोशल एंटरप्रेन्योरशिप का काम करने वाले लोगों से...
वॉलंटियरिंग पावर
शलभ सहाय
को-फाउंडर, आइ-वॉलंटियर
इंडिया में वॉलंटियरिंग को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं देखा जाता। विदेशों की तरह यहां इसे मान्यता भी नहींहै। डेवलपमेंट वर्क से जुड़े संगठन अकेले काम करते हैं। उनके साथ समाज की भागीदारी नहींहोती। इसी को बदलने के इरादे से इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आणंद के एलुमिनाइ, मुंबई के शलभ सहाय ने आइ-वॉलंटियर की शुरुआत की। अपने प्लेटफॉर्म से वॉलंटियर्स और सोशल सेक्टर में काम करने वाले संगठनों को जोड़ा।
वॉलंटियर्स की पहल
हमने बीते सालों में देश और विदेश के 300 से ज्यादा संगठनों तक अपनी पहुंच कायम की है। देश के 6 शहरों में बाकायदा आइ-वॉलंटियर सेंटर्स खोले गए हैं, जिससे कि वॉलंटियर्स और सामाजिक संगठन मिलकर समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकें। अब तक हमने विभिन्न प्रोग्राम्स के माध्यम से एक लाख लोगों तक पहुंच बनाई है।
पैशन जरूरी
अब से दस साल पहले सोशल स्टार्ट-अप करना एक चैलेंजिंग टास्क था। लेकिन मैं और दूसरे को-फाउंडर्स ने अपने पैशन के लिए एक रिस्क लिया। सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के साथ बिजनेस मॉडल तैयार किया। लगातार नए प्रोग्राम्स से एडाप्ट और इनोवेट किया। हमारे प्रोग्राम को आइसीआइसीआइ के सीएसआर सपोर्ट के अलावा अन्य लोगों की भी मदद मिली। आज कॉरपोरेट्स के लिए चलाए जाने वाले पेड प्रोग्राम्स से अच्छा रेवेन्यू जेनरेट हो जाता है। सबसे बड़ी उपलब्धि सोसायटी का सहयोग हासिल होना है।
जीने का है हक
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंडिया में करीब 8 करोड़ लोग शारीरिक रूप से विकलांग हैं। इनमें केवल 5 प्रतिशत अपना जीवनसाथी ढूंढ़ पाते हैं, जबकि उन्हें भी जीने का पूरा हक है।
कल्याणी खोना, को-फाउंडर, वांटेड अम्ब्रेला
डिसेबल्ड मैट्रिमोनी
इशिता अनिल
को-फाउंडर, वांटेड अम्ब्रेला
कल्याणी खोना और इशिता अनिल दो अलग-अलग शहरों में रहती थीं। लेकिन एक सोच और एक मकसद ने दोनों को मिलाया। फिर शुरुआत हुई एक ऐसे मैट्रिमोनियल प्लेटफॉर्म की, जो डिसेबल्ड लोगों की शादी कराती है। जुलाई 2014 में शुरू किए गए वांटेड अम्ब्रेला नामक इस ऑनलाइन वेंचर में अब तक करीब 1000 लोग अपना रजिस्ट्रेशन करा चुके हैं।
सामाजिक सरोकार
दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पढ़ते हुए ही मेरा सामाजिक कार्यों से गहरा जुड़ाव हो चुका था। ग्रेजुएशन के बाद हालांकि अन्स्र्ट ऐंड यंग कंपनी के साथ साढ़े तीन साल नौकरी की। लेकिन एक रिसर्च के दौरान कल्याणी से मुलाकात हुई और हमने डिसेबल्ड लोगों की जिंदगी में रंग भरने का फैसला किया।
जगानी है नई उम्मीद
हम प्रोजेक्ट-300 के जरिये डिसेबल्ड लोगों से मिलते हैं। उन्हें बताते हैं कि वे भी सामान्य लोगों की तरह शादी कर सकते हैं। इस काम में समय लगता है। पैरेंट्स को भी समझाना होता है। फिर हम सही लोगों की पहचान करते हैं। उनसे मिलते हैं। उनके डॉक्युमेंट्स जांचते हैं। मैट्रिमोनी के अलावा अब हम सोशल स्पेस प्रोजेक्ट के माध्यम से डिसेबल्ड लोगों को मिलने-जुलने के लिए एक जगह भी उपलब्ध कराने जा रहे हैं।?
सोशल फेलोशिप
श्रीकृष्ण हेगड़े,
फाउंडर, कनेक्ट फार्मर
कर्नाटक के एक छोटे से गांव बिद्राकन में कनेक्ट फार्मर नामक ऑनलाइन पोर्टल से गांव के किसानों को उनका उत्पाद बेचने में मदद करने वाले श्रीकृष्ण हेगड़े को उनके काम की बदौलत जर्मनी के प्रतिष्ठित सोशल एंटरप्रेन्योरशिप प्रोग्राम के तहत डू स्कूल फेलोशिप से नवाजा गया है। फिलहाल वह दस हफ्ते के लिए हैम्बर्ग में हैं।
गांव में रोजगार
मैं पिछले 4 साल से ग्रामीण युवाओं और किसानों के लिए रोजगार क्रिएट करने की कोशिश में लगा हूं। उन्हें ऑनलाइन एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए ट्रेन कर रहा हूं, जिससे कि शहरों में पलायन कम हो सके। इसी काम के दौरान मुझे फेलोशिप की जानकारी मिली। मैंने अप्लाई किया और सलेक्ट कर लिया गया। बर्लिन के वेस्टरवेल फाउंडेशन ने मेरे प्रोग्राम का खर्च वहन किया है। यहां मुझे दुनिया भर के सोशल एंटरप्रेन्योर्स से मिलने, उनसे सीखने को मिल रहा है। इंडिया लौटने पर मैं अपने वेंचर को आगे बढ़ाने का प्रयास करूंगा। कई इनवेस्टर्स ने मेरे सोशल स्टार्ट-अप में दिलचस्पी दिखाई है।
ये है राइट टाइम
इंडिया में सोशल एंटरप्रेन्योरशिप में करियर बनाने का यह सही समय है। लेकिन इसके लिए पैशन और दृढ़निश्चय दोनों होना जरूरी है, क्योंकि यहां पैसा कमाने से ज्यादा समस्या को दूर करने पर जोर दिया जाता है।
डेवलपमेंट की गूंज
आज कुछ लोग उन्हें अर्बन-रूरल ब्रिजमेकर मानते हैं, तो कुछ लोग इंडियन क्लोदिंग मैन के नाम से भी जानते हैं। जो भी हो, उनके इनोवेटिव आइडिया की गूंज आज देश के गांव-गांव दिखाई देने लगी है।
तीन इंसानी जरूरतें
इंसान की तीन बेसिक जरूरतें होती हैं - रोटी, कपड़ा और मकान। डेवलपमेंट के तहत रोटी और मकान पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन कपड़े की जरूरत पर अमूमन किसी का ध्यान नहींजाता है। मेरा ध्यान इसी जरूरत पर गया।
एक शख्स से मिली प्रेरणा
मैं जर्नलिस्ट था। एक जर्नलिस्ट के रूप में मैंने हबीब नाम के एक शख्स का इंटरव्यू किया था। वह कब्रिस्तान में ही घूमता रहता था। मुर्दों के कपड़े इकट्ठे किया करता था। हबीब और उनकी बेटी की बातेें मेरे दिल में गहराई से बैठ गईं। 1999 में मैंने अपनी वाइफ मीनाक्षी के साथ अपने वार्डरोब से 67 कपड़े निकाले और गूंज नाम से संगठन शुरू किया।
आर्ट ऑफ गिविंग
हम कुछ खास नहींकरते, बस शहरी लोगों से उनके बेकार पड़े कपड़े गांव के जरूरतमंद लोगों में बांट देते हैं। हमें इसके लिए काफी मेहनत करनी पड़ी। यह मेहनत भी अलग तरह की है। खुद कुछ करना हो, तब तो हम कर भी दें। हमें लोगों को अपनी इच्छा से अपने कपड़े दान देने के लिए मोटिवेट करना था।
अंशु गुप्ता
फाउंडर, गूंज
एजुकेट गल्र्स
मीना कंवर भाटी, कम्युनिकेशन मैनेजर, एजुकेट गल्र्स
मेरा जन्म राजस्थान के पाली जिले के चानुद गांव में हुआ था। राजपूत फैमिली से हूं। वहां लड़कियों को पढऩे की इजाजत नहींहै। कई घरों में तो लड़कियों के जन्म को भी मनहूस माना जाता है। मैं लकी थी। मुझे दसवींक्लास तकपढऩे का मौका मिला। आगे पढऩा चाहती थी, लेकिन घरवालों ने कहा, चूल्हे-चौके में मन लगा। जल्द ही मेरी शादी भी हो गई। किस्मत थोड़ी अच्छी थी। मेरे पति टीचर थे। उन्होंने मुझे पढ़ाया। मैंने बीएड किया। फिर रूरल मैनेजमेंट और हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया। उसके बाद एजुकेट गल्र्स ज्वाइन कर लिया।
एजुकेट गल्र्स 2007 में पाली जिले से ही शुरू हुआ। शुरुआत 500 स्कूलों से हुई। मैं तभी इसके संपर्क में आई। तब मैं वॉलंटियर के रूप में जुड़ी थी। हम घर-घर जाकर पैरेंट्स को समझाते थे। मुझे शुरू-शुरू में करियर का कुछ भी आइडिया नहींथा, बस पढऩा चाहती थी। बाद में जब देखा किएनजीओ के जरिए मैं भी अपने जैसी तमाम लड़कियों की लाइफ बदल सकती हूं, तब मैंने ठान लिया कि मुझे यही करना है। आज यह काम करते हुए मुझे बहुत खुशी है। पाली, जालौर और सिरोही तीन जिलों में हमारा काम चल रहा है। होर्र्डिंग बनवाना, प्रेस रिलीज, स्लोगन बनाना, मंथली न्यूजलेटर तैयार करना, सरकारी गतिविधियों पर नजर ये सब काम मैं करती हूं।
सेल्फ सैटिस्फैक्शन के लिए करें काम
सबसे ज्यादा जरूरी है सेल्फ सैटिस्फैक्शन। सोशल एंटरपे्रन्योरशिप करियर का ऐसा ही ऑप्शन है, जहां आप न केवल अपने लिए काम करते हैं, बल्कि आप समाज के लिए भी करते हैं।
सफीना हुसैन, फाउंडर, एजुकेट गल्र्स
निदान और समाधान
अरबिंद सिंह, फाउंडर, निदान
बिहार के कटिहार जिले से अरबिंद सिंह निकले तो थे पढ़-लिखकर आइएएस बनने के लिए, लेकिन समाज और अपने लोगों के लिए कुछ करने की ललक ने उन्हें किसी और मुकाम पर ला खड़ा किया। आज वह देश के हजारों मजदूरों के लिए उम्मीद का दूसरा नाम हैं।
खोमचेवालों के मसीहा
बिहार के हजारों दूसरे युवकों की तरह मैं भी आइएएस बनने के सपने देखा करता था। इसी सपने के साथ कटिहार से दिल्ली भी आया। जमकर तैयारी की। इंटरव्यू तक पहुंचा भी, लेकिन मैं जितना पढ़ता गया, जितना ज्यादा समाज को देखता गया, उतना ही मेरा मन प्रशासन से खिन्न होता गया। अंदर से जैसे आवाज आई-अरबिंद यह क्या बनने जा रहे हो? उसी दौरान मेरी मुलाकात एक सोशल वर्कर विजी श्रीनिवासन से हुई। मैं उनके विचारों से काफी प्रभावित हुआ। उन्होंने ही मुझे रास्ता दिखाया। दिल्ली में सोशियोलॉजी और कानून की पढ़ाई करने के बाद 1990 की शुरुआत में मैं वापस बिहार चला गया। मैंने गली-मोहल्लों में खोमचे और रेहड़ी लगाने वाले के हक के लिए काम शुरू किया। पटना में माफिया का राज था। स्ट्रीट वेंडर्स से मनमाना म्युनिसिपल टैक्स वसूला जाता था। हमने इसके खिलाफ संघर्ष किया। म्यूनिसिपल कमिश्नर का तबादला भी हो गया, लेकिन नए कमिश्नर ने टैक्स वसूली केनए सिरे से आवंटन के ऑर्डर दिए, तब जाकर हालात कुछ बेहतर हो सके। दरअसल, मैं कुछ सार्थक करना चाहता था। कुछ ऐसा, जिसका कुछ सकारात्मक परिणाम निकले। इसीलिए मैंने यह रास्ता चुना।
मिट्टी कूल
रेफ्रिजरेटर से निकली फ्रिऑन गैस का ग्लोबल वार्र्मिंग में अहम योगदान है।
मनसुखलाल प्रजापति,
फाउंडर, मिट्टीकूल
मिट्टी के बर्तन बनाना मेरा पुश्तैनी काम है। मुझे यह सब ज्यादा कुछ नहींजमा, तो चाय की दुकान चलाने लगा, लेकिन कहींन कहींदिल में बेचैनी थी। लगता था, मुझे कुछ और करना चाहिए। समाज के लिए, गरीबों के लिए और आखिरकार अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए भी। मैंने 24 साल की उम्र में 1989 में मिट्टी के साथ कई सारे प्रयोग करने शुरू किए। मैंने तवड़ी बनाए। 1997 में मैंने क्ले फिल्टर बनाए। इसके बाद मटके बनाए। मेरे बनाए मटके काफी मशहूर होने लगे थे। तभी
2001 में गुजरात में भूकंप आया था। उसी दौरान एक दिन अखबार में एक फोटो देखी। टूटे हुए मटके की फोटो थी, लिखा था-गरीबी का फ्रिज टूट गया। मुझे यहीं से आइडिया आया कि क्यों ना मिट्टी का रेफ्रिजरेटर डेवलप किया जाए। इसके बाद मैंने यह कम कीमत का इको-फ्रेंडली फ्रिज बनाया। उसके बाद मिट्टी का तवा भी बनाया। 2002 से लेकर 2004 तक अपने इस काम को लेकर मैं बहुत जुनूनी हो गया। काम को आगे बढ़ाने के लिए कर्ज लेता गया, मुझ पर करीब 11 लाख का कर्ज हो गया। मेरा घर भी बिक गया, लेकिन फैमिली का साथ और ईश्वर के आशीर्वाद से धीरे-धीरे मेरी लाइफ रास्ते पर आ गई। आज मेरा बिजनेस लाख में पहुंच गया है। देश-विदेश में मिट्टी कूल की डिमांड काफी बढ़ गई है। हर रोज नए-नए कस्टमर्स आ रहे हैं।
सस्ता, साफ पानी
मिनहाज अमीन,
को-फाउंडर, अमृतधारा
हर किसी को पीने के लिए शुद्ध पेयजल चाहिए, लेकिन इंडिया में यह एक बड़ी समस्या है। मार्केट में जो बोतल बंद पानी मिलते हंै, उनकी शुद्धता की गारंटी नहींदी जा सकती। वे महंगे हैं सो अलग। ऐसे में लोगों को साफ, सस्ता और ईको फ्रेंडली मशीन का पानी उपलब्ध कराने के मकसद से पुडुचेरी के मिनहाज अमीन ने जुलाई 2013 में अमृतधारा नाम से वेेंचर लॉन्च किया।
पानी की क्वालिटी चेक
उज्जैन यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के बाद मैंने यूके में कई साल काम किया। लेकिन सामाजिक सरोकारों को लेकर प्रतिबद्धता ने वापस अपने देश लौटने पर मजबूर कर दिया। यहां मैंने देखा कि हर कोई पीने का पानी खरीद रहा है, लेकिन उसकी क्वालिटी के बारे में कोई नहींजानता। तभी मैंने अपने पार्टनर्स के साथ मिलकर एक ऐसा वाटर डिस्पेंसिंग स्टेशन (मशीन) बनाया, जो पानी की क्वालिटी चेक करता है। इसके बाद कोई भी व्यक्ति टोकन लेकर इस मशीन से पानी ले सकता है।
हर शहर में हो मशीन
इंडिया में फिलहाल हम पुडुचेरी के ऑरोविल में इन मशीनों का निर्माण कर रहे हैं। एक मशीन की कीमत 12 से 20 हजार रुपये के बीच आती है, जिनकी बिक्री से होने वाली आय से हम प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा रहे हैं। भविष्य के लिए हमारा टारगेट हर स्लम, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, मार्केट प्लेस, स्कूल आदि में इस तरह की मशीन इंस्टॉल करनी है।
कैसे करें शुरुआत
सोशल एंटरप्रेन्योरशिप फिलहाल करियर का नया ऑप्शन है। इस फील्ड में शुरुआत करने के लिए कोर्स या पढ़ाई से ज्यादा एक्सपीरियंस और विजन की इंपॉर्र्टेंस है।
प्रमुख कोर्स ऐंड इंस्टीट्यूट
1. एमए इन सोशल एंटरप्रेन्योरशिप, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज
दो साल का फुल टाइम पीजी कोर्स है।
वेबसाइट: http://admissions.tiss.edu
2. पीजीपी फॉर सर्टिफिकेट इन एंटरप्रेन्योरशिप मैनेजमेंट, एक्सएलआरआइ, जमशेदपुर
यह जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, जमशेदपुर का पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम है।
वेबसाइट: http://www.xlri.ac.in
3. पीजी डिप्लोमा इन मैनेजमेंट-बिजनेस एंटरप्रेन्योरशिप, इडीआई, गांधीनगर
दो साल का फुलटाइम पीजी कोर्स है।
वेबसाइट: http://www.ediindia.org
4. मास्टर ऑफ सोशल एंटरप्रेन्योरशिप, देशपांडे फाउंडेशन, हुबली (कर्नाटक)
दो साल का रेजिडेंशियल पीजी कोर्स है।
वेबसाइट: http://detmse.org
5. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल एंटरप्राइज, बेंगलुरु
दो साल का रेजिडेंशियल पीजी कोर्स है।
वेबसाइट: www.emergentinstitute.
net/education/
6. एसपी जैन इंस्टीट्यूट ऑफल मैनेजमेंट ऐंड रिसर्च (एसपीजेआइएमआर) मुंबई में सर्टिफिकेट और पीजी कोर्सेज कर सकते हैं।
वेबसाइट: http://www.spjimr.org
इसके अलावा, अगर आप वाकई सोशल एंटरप्रेन्योरशिप फील्ड में करियर बनाना चाहते हैं, तो देश ही नहीं दुनिया भर में सोशल वर्क के लिए डेडिकेटेड संगठनों की कमी नहींहै, जहां आप वॉलंटियर लेवल से शुरुआत करके टॉप लेवल तक पहुंच सकते हैं।
कॉन्सेप्ट ऐंड इनपुट:
अंशु सिंह, मिथिलेश श्रीवास्तव