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मकसद दिलाए सक्सेस

आदिवासियों के बीच किए गए कार्यों के लिए पद्मश्री और लाइव्लीहुड अवॉर्ड से सम्मानित डॉक्टर एच. आर. सुदर्शन को दो स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले सोशल एंटरप्रेन्योरशिप अवॉर्ड 2014 का विनर घोषित किया गया है। उन्होंने जोश प्लस से शेयर किए अपनी लाइफ के कुछ मंत्र...

By Babita kashyapEdited By: Published: Tue, 25 Nov 2014 03:43 PM (IST)Updated: Tue, 25 Nov 2014 03:48 PM (IST)
मकसद दिलाए सक्सेस

मैं जब 12 साल का था। मेरे पिता की तबीयत बहुत खराब हो गई। मैं उन्हें गांव के अस्पताल ले गया। वहां मेडिकल फैसिलिटी नहीं थी। उनका इलाज नहीं हो पाया और वे चल बसे। मैंने तभी डिसाइड किया कि मुझे डॉक्टर बनना है। यह संकल्प मैंने आगे चलकर पूरा भी किया। मेरे डॉक्टर बनने का मकसद महज इलाज नहीं, बल्कि बीमारी को जड़ से खत्म करना है।

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जुनून रंग लाया

मैंने बेंगलुरु मेडिकल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया और 1973 में डॉक्टर बन गया। एक दिन मैं कुछ दोस्तों के साथ बसावनागुडी के रामकृष्ण आश्रम गया। वह दिन मेरी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट था। मैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद को पढ़ता गया। उनकी शिक्षाओं ने मेरी लाइफ का ट्रैक चेंज कर दिया। मैंने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की, लेकिन उसके बाद मेडिकल प्रैक्टिस करने की बजाय कुछ और करने लगा। मेरी मुलाकात डॉक्टर नरसिम्हा से हुई। वह नीलगिरि की पहाडिय़ों में आदिवासियों के लिए काम करते थे। मैं भी उन्हीं के साथ काम करने लगा।

पहाड़ी पर बनाया क्लीनिक

1980 में मैंने इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के तौर पर मैसूर के पास बीआर हिल्स में विवेकानंद गिरिजन कल्याण केंद्र शुरू किया। मैंने अपना क्लीनिक एक पहाड़ी पर झोपड़ी में शुरू किया। चूंकि मुझे वहां के लोगों से जुडऩा था, इसलिए मुझे उनके जैसे ही रहना पड़ा। तभी मैं उनकी तकलीफों को वाकई समझ पाया। हमें तो रोगियों को ढूंढ़-ढूंढ़कर उनका इलाज करना पड़ा। शुरू-शुरू में हमें आदिवासियों के तगड़े विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे वे हमें समझते गए और हम पर उन्हें भरोसा भी हो गया। फिर हमने कर्नाटक और तमिलनाडु के अलावा अरुणाचल प्रदेश में भी अपना नेटवर्क फैलाया और अच्छा काम किया। इस दौरान हम करीब बीस हजार से ज्यादा लोगों से मिले। उन्हें समझा। वे कैसे रहते हैं, क्या चाहते हैं, उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला, जो आगे चलकर बहुत काम आया।

प्रेरणास्रोत हैं विवेकानंद

मुझे स्वामी विवेकानंद की यह पंक्ति बहुत प्रेरणाप्रद लगती है : 'पूरी दुनिया का खजाना भी एक छोटे से गांव की मदद नहीं कर सकता, जब तक वहां के लोग अपनी मदद खुद करना न सीख जाएं।Ó विवेकानंद केंद्र के तहत खोले गए स्कूलों से आदिवासी जातियों के कई स्टूडेंट्स ने पीएचडी तक की। वे बाद में अपनी कम्युनिटी को एजुकेट करने और उनके डेवलपमेंट में लग गए। विवेकानंद केंद्र के प्रयासों का ही फल है कि आज कर्नाटक के सोलिगा जनजाति के साठ फीसदी से ज्यादा लोगों के पास 300 दिनों तक का रोजगार होता है।

हाशिए के लोगों के मसीहा

करीब 6 साल बाद 1986 में मैंने करुणा ट्रस्ट की स्थापना की। यह विवेकानंद केंद्र से जुड़ा हुआ था। यह कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश और ओडिशा में रूरल डेवलपमेंट के लिए काम करता है। चमराजानगर जिले के येलंदुर में लेप्रोसी के कई सारे मामले सामने आए। इसी के बाद हमने करुणा ट्रस्ट के आइडिया पर काम करना शुरू किया। आज कर्नाटक औऱ अरुणाचल प्रदेश में 72 से ज्यादा प्राइमरी हेल्थकेयर सेंटर्स चल रहे हैं। हमारी योजना धीरे-धीरे अपने कार्यक्षेत्र को बढ़ाते जाना है जिससे समाज का एक बड़ा वर्ग जो दूर छिटका हुआ है, आज भी जिनके लिए ट्रेन एक कौतूहल का विषय है, उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके।

डॉ. हनुमंतप्पा रेड्डी सुदर्शन

जन्म: येमलूर, बेंगलुरु 1950

ग्रेजुएशन: बेंगलुरु मेडिकल कॉलेज

अवॉर्ड:

1984 : कर्नाटक सरकार की ओर से राज्योत्सव स्टेट अवार्ड

1994 : राइट लाइव्लीहुड अवॉर्ड (आदिवासियों पर काम के लिए)

2000 : भारत सरकार से पद्मश्री सम्मान

2014 : सोशल एंटरप्रेन्योर ऑफ द ईयर

हमारे सभ्य कहे जाने वाले समाज को जंगल में रहने वाले और असभ्य कहे जाने वाले आदिवासियों से भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

गरीबी की कोई अचूक दवा नहीं है, फिर भी अगर इसे दूर करना है तो बस एक तरीका है, लोगों को उनके हक के बारे में जागरूक करना।

इंटरैक्शन : मिथिलेश श्रीवास्तव


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