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खामोशी से जीतते मंजिल

हम सब कुछ तो नहींकर सकते, पर हम भी कुछ जरूर कर सकते हैं। इसी जज्बे के साथ समाज के अनेक बधिर जन अपने जीवन को नए मायने दे रहे हैं। लैंग्वेज, कम्युनिकेशन आदि की बाधाओं को लांघ कर वे खेल से लेकर आइटी जैसे तमाम क्षेत्रों में कमाल कर रहे हैं... करण बहादुर कुछ साल पहले उत्तराखंड के एक छोटे से शहर से दिल्ली आए थे। कर

By Edited By: Published: Mon, 15 Sep 2014 04:25 PM (IST)Updated: Mon, 15 Sep 2014 04:25 PM (IST)
खामोशी से जीतते मंजिल

हम सब कुछ तो नहींकर सकते, पर हम भी कुछ जरूर कर सकते हैं। इसी जज्बे के साथ समाज के अनेक बधिर जन अपने जीवन को नए मायने दे रहे हैं। लैंग्वेज, कम्युनिकेशन आदि की बाधाओं को लांघ कर वे खेल से लेकर आइटी जैसे तमाम क्षेत्रों में कमाल कर रहे हैं...

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करण बहादुर कुछ साल पहले उत्तराखंड के एक छोटे से शहर से दिल्ली आए थे। करण बधिर हैं, यानी सुन नहीं सकते। यहां पहले उन्होंने कटिंग और टेलरिंग मे ट्रेनिंग ली। फिर एक एक्सपोर्ट हाउस में काम किया। लेकिन वह कुछ और बेहतर करना चाहते थे। वह अपनी स्किल बढ़ाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने नोएडा डेफ सोसायटी से कंप्यूटर और इंग्लिश का कोर्स किया। इसी दौरान उनका सलेक्शन एमफैसिस कंपनी के कंप्यूटर नेटवर्किग ऐंड हार्डवेयर के एक ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए हो गया। करण मेहनती थे। ट्रेनिंग पूरी होते ही उन्हें कंपनी ने पुणे में जॉब ऑफर कर दिया। आज वह अच्छी सैलरी की नौकरी के साथ सम्मान की जिंदगी जी रहे हैं।

देश में करण जैसे बधिर और काबिल युवाओं की कमी नहीं है। मूक एवं बधिर पहलवान वीरेंद्र सिंह भी इस मामले में एक मिसाल हैं जो डेफलम्पिक्स जैसे इंटरनेशनल इवेंट्स में इंडिया के लिए गोल्ड मेडल जीत चुके हैं। डेफ खिलाड़ियों में दिल्ली की मोनिका ने भी अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है। वह मेट्रो से अकेले ट्रेनिंग के लिए जाती हैं। इतना ही नहीं, करोलबाग के एक एनजीओ में बच्चों को साइन लैंग्वेज की ट्रेनिंग भी देती हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में करीब 1.8 करोड़ डेफ हैं। ये उतने ही क्रिएटिव और इनोवेटिव हैं, जितने कि सामान्य लोग। जब कभी मौका मिला है, उन्होंने अपनी मेहनत से लक्ष्य को हासिल कर दिखाया है। फिर चाहे वह आइटी फील्ड हो, हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री, रिटेल सेक्टर, बैंकिंग या पब्लिशिंग इंडस्ट्री। इतना ही नहीं, मिस व‌र्ल्ड डेफ जैसे ब्यूटी कॉन्टेस्ट में भी कोच्चि की सोफिया जोस ने देश का प्रतिनिधित्व किया है।

बधिरों के प्रमुख इंस्टीट्यूट्स

-सेंट लुइस कॉलेज फॉर द डेफ

अडयार, चेन्नई

एशिया के इस पहले डेफ कॉलेज में तमिल और इंग्लिश मीडियम में बीकॉम की डिग्री ऑफर की जाती है। इसके अलावा, इंग्लिश मीडियम में बीसीए भी कर सकते हैं। यह कॉलेज मद्रास यूनिवर्सिटी से संबद्ध है।

-हेलेन केलर इंस्टीट्यूट फॉर डेफ ऐंड

डेफ ब्लाइंड, मुंबई

इस इंस्टीट्यूट से ज्वैलरी, कैंडल, पेपर बैग, लिक्विड सोप मेकिंग में वोकेशनल ट्रेनिंग की जा सकती है। इसके अलावा, यहां कंप्यूटर एजुकेशन प्रोग्राम औऱ दस महीने का टीचर ट्रेनिंग डिप्लोमा कोर्स भी संचालित किया जाता है।

साइन लैंग्वेज को मान्यता

हर साल सितंबर के आखिरी हफ्ते में दुनिया भर में इंटरनेशनल वीक ऑफ द डेफ मनाया जाता है, ताकि डेफ समुदाय के प्रति समाज को अवेयर किया जा सके और उनके प्रति लोगों को संवेदनशील बनाया जा सके। इस बार का थीम है- स्ट्रेंथनिंग ह्यूंमन डाइवर्सिटी, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डेफ कम्युनिटी के कंट्रीब्यूशन को पहचान दिलाने के साथ ही उन्हें भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करना। साइन लैंग्वेज को मान्यता दिलाना भी इसका उद्देश्य है। नेशनल एसोसिएशन फॉर डेफ सोसायटी, वर्किग प्रोफेशनल्स, मेडिकल प्रोफेशनल्स, नेशनल एजुकेशन एक्सप‌र्ट्स के अलावा सरकार भी बधिरों के अधिकारों के प्रति सचेत करने की सकारात्मक पहल कर रही है। इस कड़ी में इंडियन साइन लैंग्वेज रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग सेंटर के जल्द सक्रिय होने की उम्मीद है। इससे एंटरप्रेटर ट्रेनिंग और टीचर्स ट्रेनिंग की प्रक्रिया को गति मिलेगी और बच्चों को बाइ-लिंगुअल शिक्षा दी जा सकेगी।

ए.एस.नारायणन

सेक्रेटरी, नेशनल एसोसिएशन

ऑफ द डेफ, इंडिया

एथलीट विद डिफरेंस

दिल्ली की मोनिका वर्मा की सुनने की क्षमता बचपन में ही चली गई थी। लेकिन करीब साढ़े चार साल की उम्र में पैरेंट्स को पता चला कि बेटी सुन नहीं सकती है। परिवार के लिए इस सच को अपनाना मुश्किल तो था, लेकिन मोनिका की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी गई। उसे स्पो‌र्ट्स में प्रोत्साहित किया गया। आज मोनिका एक सफल एथलीट हैं।

परिवार से मिला प्रोत्साहन

मोनिका ने बताया कि पिता ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ने में काफी मेहनत की है। मोनिका ने कहा, पहली बार जब डॉ. नरोत्तम पुरी ने पैरेंट्स को मेरे बधिर होने की बात बताई थी, तो वे हैरान रह गए थे। लेकिन इसके बाद उन्होंने मुझ पर काफी ध्यान दिया, चाहे वह स्पीच थेरेपी क्लासेज में ले जाने की बात हो या विभिन्न आ‌र्ट्स में हुनरमंद बनाने की। उन्होंने मुझे ओपन लर्निग के जरिये कटिंग, टेलरिंग, फैशन डिजाइनिंग जैसे कई तरह के कोर्स कराए, लेकिन मेरी रुचि स्पो‌र्ट्स में अधिक थी। खो-खो, कबड्डी, जूडो-कराटे, डिस्कस थ्रो, शॉट-पुट और जैवलीन थ्रो की स्कूल और कॉलेज लेवल प्रतियोगिताओं में अच्छा प्रदर्शन करती थी। धीरे-धीरे मुझे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय इवेंट्स में भी शामिल होने का मौका मिलने लगा।

गोल्ड मेडल से जीता दिल

मोनिका ने नेशनल लेवल की कई प्रतियोगिताओं में दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया है और गोल्ड मेडल जीता है। 2013 में औरंगाबाद में ऑल इंडिया स्पो‌र्ट्स काउंसिल ऑफ डेफ द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में मोनिका ने शॉट पुट और डिस्कस थ्रो श्रेणी में दो गोल्ड मेडल जीते थे। इसके अलावा, उन्होंने बुल्गारिया के डेफलम्पिक्स में भी हिस्सा लिया था। इससे पहले 2012 में टोरंटो में आयोजित व‌र्ल्ड चैंपियनशिप में शॉट पुट और जैवलिन कैटेगरी में आठवां स्थान हासिल किया था।

साइलेंट क्रूसेडर

कोयंबटूर में रहने वाले के. मुरली डेफ हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी इसे अपने विकास में बाधक नहीं बनने दिया। उन्होंने टेलरिंग में डिप्लोमा करने के बाद इंग्लिश में ग्रेजुएशन किया। इसके बाद नौकरी की। हालांकि, वह अपने जैसे लोगों के लिए कुछ ठोस करना चाहते थे, इसलिए डेफ लीडर्स इंस्टीट्यूट की स्थापना की और आज इसी के माध्यम से बधिरों के सशक्तिकरण की दिशा में कार्य कर रहे हैं। उनके इंस्टीट्यूट में ऐसी वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाती है, जिससे कि बधिर लोग आत्मनिर्भर बन सकें। इसके साथ ही, वह एक ऑनलाइन मैट्रिमोनियल वेबसाइट के जरिये बधिरों की जिंदगी में रंग भरने की कोशिश भी कर रहे हैं।

शिक्षा से सशक्तीकरण

के. मुरली ने बताया कि उन्होंने कोयंबटूर के 40 से ज्यादा बधिर स्कूलों का एक सर्वे कराया था। इस सर्वे से पता चला कि स्कूलों में प्रोफेशनली ट्रेंड टीचर्स की कमी है। इसके अलावा, पढ़ाने के लिए पर्याप्त संसाधन भी नहीं हैं। इसलिए उनके इंस्टीट्यूट में इंग्लिश, तमिल, हिस्ट्री के अलावा, मैनेजमेंट स्टडीज, साइन लैंग्वेज, कंप्यूटर, वीडियोग्राफी, कुकिंग, बेकिंग आदि के कोर्सेज चलाए जाते हैं।

नजरिया बदलने की कोशिश

मुरली तमिलनाडु के अलावा देश भर में वर्कशॉप, सेमिनार और काउंसलिंग के जरिए बधिरों के प्रति समाज का नजरिया बदलने की कोशिश करते हैं। इस काम में उनकी शिक्षक और बधिर पत्नी सुधा और उनकी बेटी स्नेहा एक एंटरप्रेटर के तौर पर पूरा सहयोग देती हैं। स्नेहा कहती हैं, मुझे अपने पैरेंट्स पर गर्व है। तमिलनाडु सरकार ने उन्हें बेस्ट सोशल वर्कर के सम्मान से नवाजा है। इसके अलावा, उनके द्वारा डायरेक्ट की गई शॉर्ट फिल्म साइलेंट सॉन्ग को इंटरनेशल डेफ कॉन्फ्रेंस में बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड मिला है।

डेवलपिंग स्किल्ड फोर्स

नोएडा डेफ सोसायटी ने एनआइआइटी फाउंडेशन के सहयोग से बधिरों के लिए आइटी रिलेटेड एक करिकुलम डेवलप किया है। इसके अलावा, उनके एक्सप‌र्ट्स हमारे एमएस ऑफिस और डेस्कटॉप पब्लिशिंग

जैसे कोर्सेज का मूल्यांकन और सर्टिफिकेशन करते हैं। इससे स्टूडेंट्स को इंडस्ट्री की रिक्वॉयरमेंट के अनुसार सर्टिफिकेट मिल जाता है। अब तक एनडीएस की ओर से 950 से ज्यादा स्टूडेंट्स को अलग-अलग इंडस्ट्री में रोजगार दिलाया जा चुका है। हमारे यहां देश भर से बधिर बच्चे और युवा ट्रेनिंग के लिए आते हैं। रुमा रोका

निदेशक, नोएडा डेफ सोसायटी

चेंज की पहल

मैंने बंगाली माध्यम से 12वींकरने के बाद प्रेसिडेंसी कॉलेज से इंग्लिश मीडियम में सोशियोलॉजी ऑनर्स किया था। इस समय मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से डेवलपमेंट स्टडीज में एमए कर रही हूं। साथ ही, बंधु नाम से एक संगठन चलाती हूं, जो बधिरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ता है। फिलहाल इसमें 11 सदस्य हैं। इसके अलावा, हम बधिरों के लिए सिंगल लैंग्वेज को बढ़ावा देने पर काम कर रहे हैं, क्योंकि खुद मुझे बंगाली से इंग्लिश मीडियम में शिफ्ट होने के बाद कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। मेरा मानना है कि बधिर सोसायटी के सपोर्ट से काफी आगे बढ़ सकते हैं।

स्नेहा दासगुप्ता स्टूडेंट, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई

इंटरैक्शन : अंशु सिंह


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