हौसले की उड़ान
बदलते वक्त और बढ़ती जागरूकता के साथ महिलाओं ने अपने हाथों के बंधन और पैरों की बेड़ियां तोड़ दी हैं। घर की देहरी के भीतर रहना उन्हें मंजूर नहीं। पुरुषों की तरह वे भी हर तरह का काम करने का हौसला रखती हैं, चाहे वह कितना ही चुनौतीपूर्ण क्यों न हो। इस हौसले ने उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है। यही कारण है कि वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा ि
बदलते वक्त और बढ़ती जागरूकता के साथ महिलाओं ने अपने हाथों के बंधन और पैरों की बेड़ियां तोड़ दी हैं। घर की देहरी के भीतर रहना उन्हें मंजूर नहीं। पुरुषों की तरह वे भी हर तरह का काम करने का हौसला रखती हैं, चाहे वह कितना ही चुनौतीपूर्ण क्यों न हो। इस हौसले ने उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है। यही कारण है कि वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने के अलावा ऐसे हैरतअंगेज करियर तक अपना रही हैं, जिनके बारे में पहले कोई सोच भी नहींसकता था। आईटी, बैंिकंग, डिफेंस, पुलिस आदि सेक्टर में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने वाली महिलाएं और किन-किन क्षेत्रों में अपने कारनामों से चौंका रही हैं, उन पर एक्सक्लूसिव रिपोर्ट..
छूना है सारा आकाश
नोएडा के एक क्लब के स्वीमिंग पूल के बाहर बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। उस समय महिलाओं को एंट्री देने का समय था। लिहाजा पुरुषों को कुछ देर और इंतजार करने को कहा गया। इसी बीच किसी पुरुष ने जबरन अंदर जाने की कोशिश की। अचानक एक लंबी-चौड़ी, छह फुट के करीब, बेहद बलशाली शख्सियत ने उसे ऐसा करने से रोका। लोगों ने गौर से उसे देखा, तो चौंक गए। उसे एक बाउंसर ने रोका था। लोगों के चौंकने का कारण यह था कि वह बाउंसर दरअसल एक महिला थी। जी हां, ब्लैक ड्रेस पहने सरिता यादव ने किसी पुरुष बाउंसर की ही तरह पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी ड्यूटी निभाई और भीड़ को कंट्रोल किया। दरअसल, सरिता उस बदलते भारत की तस्वीर हैं जहां महिलाएं अब किसी भी पेशे को अपनाने में पीछे नहींहैं। फिर वह बाउंसर जैसा जोखिम वाला प्रोफेशन ही क्यों न हो। आज चंडीगढ़, बेंगलुरु, पुणे, मुंबई जैसे शहरों के नाइट क्लब, डिस्कोथेक, मॉल्स आदि में क्राउड को कंट्रोल करने के लिए फीमेल बाउंसर्स की सेवाएं ली जा रही हैं। मार्शल आर्ट में माहिर बाउंसर के अलावा सिक्योरिटी ऑफिसर और गार्ड के रूप में भी महिलाएं हॉस्पिटल्स, एयरपोर्ट पर पूरी मुस्तैदी से ड्यूटी कर रही हैं।
पटरी पर दौड़ता करियर
रेलवे को देश की लाइफलाइन कहा जाता है। मुंबई के अलावा कई मेट्रो सिटीज में रोजाना हजारों-लाखों लोग लोकल ट्रेन या मेट्रो रेल से सफर करते हैं। इनमें महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी होती है। अब से कुछ साल पहले तक कितनी महिलाओं ने सोचा होगा कि वे भी ट्रेन ड्राइवर या ऑपरेटर बन सकती हैं। यह उनके करियर ऑप्शन में शायद ही शामिल हुआ करता था। फैमिलीज भी लड़कियों को इस मेल डॉमिनेटेड फील्ड में जाने से रोकती थीं। लोगों के बीच भी यह भ्रम था कि एक लड़की कैसे इतनी बड़ी ट्रेन को ड्राइव कर सकती है, उस पर कंट्रोल रख सकती है, लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाली प्रिया सचान की सोच कुछ और ही थी। मेट्रो में सफर के दौरान ही उन्होंने फैसला कर लिया कि मौका मिला, तो वे ट्रेन ऑपरेशन से रिलेटेड जॉब करेंगी। उनका यह सपना पूरा भी हो गया, जब गुड़गांव के रैपिड मेट्रो में उन्हें ट्रेन ऑपरेटर की जॉब मिली। प्रिया की तरह ही शैल मिश्रा का भी ड्रीम ट्रेन चलाना था। आज वह दिल्ली में मेट्रो ट्रेन ऑपरेट करती हैं। उन्हें गर्व है कि वह अजमेर की पहली महिला लोको पायलट हैं।
कैब सर्विस फॉर वीमेन
दिल्ली हो या कोई और शहर। महिलाओं की सेफ्टी का मुद्दा अक्सर सवालों में रहता है। टैक्सी या ऑटो रिक्शा वाले ने किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ की, जैसी खबरें भी आये दिन सुनने-पढ़ने को मिलती हैं। किसी भी शहर के पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर नजर डालें, तो वहां पुरुष ड्राइवरों का ही वर्चस्व है। दिल्ली में जिस तरह से बस में निर्भया के साथ दिल दहलाने वाली घटना घटी, तो राजधानी के अलावा पूरा देश जैसे सिहर सा गया। ऐसे में दिल्ली की ही मीनू वढेरा ने एक ऐसी कैब सर्विस शुरू करने का फैसला लिया, जो महिलाओं को सुरक्षित उनके डेस्टिनेशन तक पहुंचा सके। काम मुश्किल था। खासकर लेडी ड्राइवर्स को ढूंढना और उन्हें ट्रेनिंग देना। लेकिन कहींसे तो शुरुआत करनी थी। ऐसे में उन्होंने सखा कंसल्टिंग विंग ऐंड प्राइवेट लिमिटेड नाम से एक वेंचर स्टार्ट किया, जो राजधानी और एनसीआर में महिलाओं को कैब की सुविधा देती है। कह सकते हैं कि आज की महिलाएं एंटरप्रेन्योरशिप के जरिए भी दूसरी महिलाओं को राह दिखा रही हैं।
बदल रहा है मिजाज
इंडिया में हर साल हजारों की संख्या में लड़कियां इंजीनियरिंग, मेडिकल या बिजनेस स्कूल से पढ़ाई करके निकल रही हैं। आज उनके सामने करियर के अनगिनत ऑप्शंस हैं। वे कुलिनरी आर्ट (शेफ, कुकरी राइटर), ऑप्टोमेट्री, पैरामेडिकल साइंस, एंटरप्रेन्योरशिप, सोशल मीडिया और इंटरनेट बेस्ड प्रोजेक्ट्स के जरिए अलग पहचान बना रही हैं। वैसे तो बैंकिंग सेक्टर में काफी पहले से महिलाएं अपना योगदान दे रही हैं, लेकिन हाल के वर्षों में वे पॉवर पोजीशंस यानी चेयरमैन, सीईओ, सीएमडी या एमडी जैसे पद भी बखूबी संभालने लगी हैं। इसी तरह आईटी सेक्टर और डिफेंस फोर्सेज में भी महिलाओं की मौजूदगी बढ़ी है।
खत्म करें अंदर का डर
9वीं क्लास में थी, एक लड़के ने सीटी मार दी, उसे ऐसा घुमा के दिया कि सीटी निकल गई उसकी..ये बिंदास बोल हैं महेंद्रगढ़ की रहने वाली लेडी बाउंसर सरिता यादव के।
आम लड़की से बाउंसर तक
वे बचपन से ही बिल्कुल निडर स्वभाव की थीं। कोई उनके सामने से ऐसी-वैसी हरकत करके निकल नहींसकता था। धीरे-धीरे उनकी निडरता वक्त के साथ और भी बढ़ती गई। बाद में उन्होंने स्टेडियम जाकर जूडो-कराटे की प्रैक्टिस करनी भी शुरू कर दी।
लड़कियां क्यों नहींकर सकतीं
उस समय बाउंसर की जॉब थोड़ी रिस्क वाली थी। लोग किसी भी बाउंसर को बड़े ही अजीब नजरों से देखा करते थे, लेकिन उन्होंने सोचा कि जब लड़के कर सकते हैं, तो लड़कियां क्यों नहीं। अच्छी कद-काठी ने उन्हें लेडी बाउंसर बनने में बहुत मदद की।
पहले बात, फिर मुक्का-लात
वे अपने अनुभव का जिक्र करते हुए बताती हैं कि एक बार वह नोएडा के एक स्विमिंग पूल की सुरक्षा में तैनात थीं। केवल लेडीज एंट्री की टाइमिंग चल रही थी। तभी एक लड़का आया और एंट्री के लिए जिद करने लगा। बार-बार समझाने पर भी नहींसमझा और उल्टी-सीधी बातें करने लगा, तब उसे रोकने के लिए बल प्रयोग करना पड़ा था।
अपनी सुरक्षा अपने हाथ
सरिता कई सारी जगहों पर बॉडीगार्ड या बाउंसर के रूप में सिक्योरिटी सर्विस देने के अलावा सेल्फ डिफेंस क्लासेज भी चलाती हैं। वह इस बात से थोड़ी परेशान हैं कि लड़कियां ऐसी क्लासेज में कम ही आती हैं। अक्सर लड़कियों को देर शाम के बाद बाहर जाने से रोका जाता है। अकेले कहींआने-जाने से रोका जाता है। सवाल उनकी सुरक्षा का होता है। ऐसे में अगर वे खुद अपनी हिफाजत करने के काबिल हो जाएं, तो अपराध ही कम हो जाएंगे।
तेजाब को किया पानी-पानी
आपने तेजाब मेरे चेहरे पर नहीं,
मेरे सपनों पर डाला था,
आपके दिल में प्यार नहीं
तेजाब हुआ करता था,..
वो वक्त आपको कितना सताएगा,
जब आपको यह बात मालूम पड़ेगी,
कि आज भी मैं जिंदा हूं,
अपने सपनों को साकार कर रही हूं।
मानो यह एक करारा थप्पड़ है, उन तमाम दिलजले सिरफिरे आशिकों को, जो मोहब्बत की नाकामी के बाद गुस्से में अपनी माशूका के चेहरे पर तेजाब फेंक देते हैं। दिल में नफरत समेटे समाज के ऐसे लोगों के लिए बहुत बड़े सबक का नाम है लक्ष्मी, उनका स्टॉप एसिड अटैक संगठन और ब्लैक रोज मुहिम।
वो जला नहींसका सपने
2005 की बात है, नई दिल्ली के खान मार्केट में एक एकतरफा मोहब्बत करने वाले सिरफिरे आशिक ने लक्ष्मी के खूबसूरत चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। उस समय सिर्फ 16 साल की लक्ष्मी ने इलाज से खुद को तो बचा लिया, पर चेहरे की सुंदरता जाती रही। उसे गहरा सदमा तो लगा था, पर इस सदमे से उबरते हुए लक्ष्मी ने ठान लिया कि वह किसी और के साथ ऐसा नहीं होने देगी। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल करके एसिड की बेरोक-टोक बिक्री पर रोक लगाने की मांग की। लक्ष्मी का चेहरा तो वापस नहीं आना था, लेकिन उनके इरादे और सपने जरा भी नहींडिगे।
मजबूत इरादों की लक्ष्मी
2012 में लक्ष्मी के साथ एक और ट्रेजेडी हो गई। उनके पिता का देहांत हो गया।?अब परिवार की सारी जिम्मेदारी भी लक्ष्मी के कंधों पर आ गई। लक्ष्मी ने इसे बखूबी निभाया। कभी भी अपने चेहरे की वजह से पीछे नहीं हटीं, लगातार आगे ही बढ़ती गईं।
एसिड अटैक की बजाय ब्लैक रोज़
आज लक्ष्मी एसिड अटैक की शिकार अपने जैसे सैकड़ों जिंदगियों को जीने की राह दिखा रही हैं। जो लोग गुस्से में यह हैवानियत कर जाते हैं, उन्हें भी लक्ष्मी संदेश देती हैं, गुस्से का इजहार एसिड अटैक की बजाय ब्लैक रोज देकर करने का।
सेफ ऐंड ईजी ट्रैवलिंग
सुरक्षा और सुविधा के साथ महिलाओं के लिए अपने वर्किंग प्लेस तक पहुंचना आज भी एक बड़ा चैलेंज है। बहुत सी महिलाएं सिर्फ इसलिए जॉब नहीं कर पाती हैं क्योंकि उनके सामने पब्लिक ट्रांसपोर्ट और सुरक्षा एक बड़ा मसला होता है। महिलाओं की इस प्रॉब्लम को बारीकी से समझा मीनू वढेरा ने। मीनू ने महिलाओं के लिए अलग से ट्रांसपोर्ट की शुरुआत की और नाम दिया सखा कंसल्टिंग विंग ऐंड प्राइवेट लिमिटेड।
फीमेल ड्राइवर को कमान
मीनू के मुताबिक 2001 के सेंसस में महिलाओं और पुरुषों की संख्या में अंतर बहुत ज्यादा था। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा, तो रेड स्टेट्स में शामिल थे। इस पर उन्होंने गंभीरता से विचार किया। हर पहलू पर गौर करने के बाद उन्हें लगा कि ज्यादातर फील्ड में महिलाओं की थोड़ी बहुत भागीदारी तो है, लेकिन फीमेल ड्राइवर बिल्कुल नहीं हैं। इस पर उन्होंने रिसर्च करने के बाद फीमेल टैक्सी सर्विस शुरू कर दी।
फीमेल ड्राइवर की फैसिलिटी फिलहाल गुड़गांव, जयपुर, साउथ और नॉर्थ दिल्ली के अलावा एनसीआर क्षेत्र में शुरू की गई है। ड्राइविंग के दौरान किसी तरह की प्रॉब्लम आने पर फीमेल ड्राइवर आसानी से हैंडल कर लेती है। इसके अलावा, उनकी मदद के लिए हर समय इमरजेंसी सेवा तैयार रहती है, जो एक घंटे के अंदर कैब ड्राइवर तक पहुंच जाती है।
फ्रीडम इन ट्रैवलिंग
मीनू वढेरा की इस पहल से न सिर्फ महिलाओं को रोजगार मिला है, बल्कि उन महिलाओं को भी इससे फायदा हुआ है जिन्हें अक्सर अकेले ट्रैवल करना होता है। कंपनी के पास करीब 75 फीमेल ड्राइवर्स हैं। इनमें से बहुत-सी फीमेल ड्राइवर्स फुलटाइम पर्सनल ड्राइवर हैं, जबकि कुछ कैब ड्राइवर। जिन घरों में महिलाएं ड्राइविंग करती हैं, उसकी पूरी डिटेल कंपनी के पास होती है। फीमेल कैब ड्राइवर सिर्फ महिलाओं को ही अपनी सेवा देती हैं। पुरुषों के लिए यह सेवा नहीं है। हां, जो पुरुष महिला के साथ हैं, वे इस फैसिलिटी का फायदा उठा सकते हैं।
वीमेन ऑन डिफरेंट ट्रैक
आज महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। ऐसा शायद ही कोई क्षेत्र बचा हो, जहां महिलाओं की मौजूदगी न हो। ऐसा ही एक फील्ड है लोको पायलट का, जहां अभी तक सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व था, लेकिन इस फील्ड में भी महिलाएं आगे आईं हैं। गुड़गांव में शुरू हुई रैपिड मेट्रो में उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले अकबरपुर की प्रिया सचान पहली महिला ट्रेन ऑपरेटर और स्टेशन कंट्रोलर बनी हैं। प्रिया के लिए यह बिल्कुल अलग तरह का एक्सपीरियंस है।
मेट्रो से मिली प्रेरणा
वे कहती हैं, जब वह दिल्ली यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग कर रही थीं, तो रोज मेट्रो से सफर करती थीं। उन्हें मेट्रो से सफर करना अच्छा लगता था, क्योंकि महिलाओं के लिए मेट्रो का सफर काफी सेफ है। इसी वजह से दिलचस्पी भी मेट्रो में बढ़ी और सोचा कि अगर लाइफ में ऐसा कोई प्रोजेक्ट मिला या मौका मिला, तो जरूर काम करूंगी। उनका यह सपना कैंपस प्लेसमेंट के दौरान पूरा हो गया। प्लेसमेंट के दौरान जब उन्हें मेट्रो में काम करने का ऑफर मिला, तो उन्होंने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया।
टफ था ट्रेनिंग प्रॉसेस
प्रिया कहती हैं कि मेट्रो में काम करने के लिए उन्हें छह महीने की टफ ट्रेनिंग से गुजरना पड़ा। सबसे पहले स्क्रीनिंग टेस्ट हुआ। उसके बाद ट्रेनिंग के लिए नॉमिनेट किया गया। इस दौरान सिग्नल फेल्योर या इमरजेंसी सिचुएशन को हैंडल करना बताया गया। इसके अलावा, उन्हें ट्रेन ऑपरेटर और स्टेशन कंट्रोलर दोनों की ट्रेनिंग दी गई। आखिर में 32 लोगों को शार्टलिस्ट किया गया, जिसमें सिर्फ उन्हें स्टेशन कंट्रोलर और ट्रेन ऑपरेटर का पद मिला।
सभी से मिला प्रोत्साहन
इस फील्ड में आने के लिए उन्हें सभी ने प्रोत्साहित किया। कलीग्स से भी पूरा सपोर्ट मिला। कभी ऐसा नहीं लगा कि वह ऐसी जगह पर काम कर रहीं हैं जहां सिर्फ पुरुष ही काम कर सकते हैं। रैपिड मेट्रो से जुड़ना उनके लिए गर्व की बात ही। वे कहती हैं, पैरेंट्स भी मेरे इस फैसले से खुश हैं। वे अपने से जूनियर गर्ल्स को भी सलाह देती हैं कि अगर उन्हें कभी मौका मिले, तो वे भी इस फील्ड में आगे आएं और अपने सपने को पूरा करें।
बाइकिंग से आजादी का अहसास
बाइकिंग से वीमेन एम्पॉवरमेंट, सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है। खासकर ट्रेडिशनल मुस्लिम फैमिली से ताल्लुक रखने के बावजूद बाइकिंग में हाथ आजमाना एक लड़की के लिए कतई आसान नहीं है। लेकिन फिरदौस शेख ने न सिर्फ इस परंपरा को तोड़ा, बल्कि बाइकरनी एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्थापना कर देश भर की लड़कियों को एक प्लेटफॉर्म दिया ताकि वे अपने शौक को पूरा कर सकें। शुरुआत चार-पांच फीमेल बाइकर्स से हुई थी, लेकिन आज देशभर में 250 से ज्यादा फीमेल बाइकर्स इससे जुड़ी हैं।
मोटरबाइक्स का पैशन
पुणे की फिरदौस को चार साल की उम्र से ही मोटरबाइक्स से गहरा लगाव था। जैसे-जैसे वे बड़ी हुईं, बाइकिंग उनके लिए एक पैशन बन गया। उन्होंने ग्रेजुएशन सेकंड ईयर में अपनी पहली मोटरसाइकिल बजाज पल्सर 180 सीसी खरीदी। जब बाइकिंग में करियर बनाने की इच्छा जताई, तो घर में काफी विरोध हुआ। उस समय उनके सामने फार्मासिस्ट की पढ़ाई पूरी करने के अलावा दूसरा ऑप्शन नहीं था। लेकिन जब काम करने का समय आया, तो वह एक ऑटोमोबाइल मैगजीन के साथ ऑटो जर्नलिस्ट के तौर पर जुड़ गईं। साथ ही बाइकिंग का अपना शौक भी जारी रखा। उन्होंने बताया कि बाइकिंग से उन्हें आजादी का अहसास होता है। उन्होंने अब तक कई इंडियन बाइक्स, सुपरबाइक्स को रेसिंग फील्ड में दौड़ाया है। हार्ले डेविडसन उनकी फेवरेट बाइक है। हालांकि उन्हें होंडा (सीवीआर,वीसीआर, सीवी) यामाहा के अलावा डूकाटी (मॉन्स्टर, सुपरबाइक) की रफ्तार का भी भरपूर अनुभव है।
बाइकरनी का सोशल मिशन
फिरदौस ने उर्वशी पटोले के साथ मिलकर साल 2011 में पुणे में बाइकरनी एसोसिएशन बनाया। हर शहर में इसका अपना रोड कैप्टन होता है, जो राइड्स का आयोजन कराता है। बच्चों की सेफ्टी, सुरक्षा और महिला हिंसा के मुद्दे पर क्राई राइड ऑर्गेनाइज किया जाता है। महिलाओं के लिए मोटरसाइकिल वर्कशॉप्स भी किए जाते हैं, ताकि उन्हें सेफ राइडिंग के प्रति अवेयर किया जा सके। लड़कियों को मोटरसाइकिल चलाने के साथ ही टेक्निकल डिटेल्स और हैंड सिग्नल्स की जानकारी भी दी जाती है।
मिशन हाइवे अगेंस्ट कैंसर
बेहद असाधारण रहा है इनका अब तक का सफर। वह अपने मारवाड़ी परिवार की पहली महिला हैं, जिन्होंने इंडियन आर्मी च्वाइन किया। वह आर्मी डेंटल कॉर्प की पहली महिला पैराट्रूपर और पहली ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर भी हैं, जिन्होंने 2012 में 120 किलोमीटर तक सियाचिन ग्लेशियर की ट्रेकिंग की है। इसके अलावा, अपने एक्सपीडिशन के जरिए करीब दो लाख लोगों को कैंसर के प्रति जागरूक किया है। नाम है डॉ. (कैप्टन) रीतु बियाणी।
आर्मी ने खोली आंखें
दस साल तक आर्मी में सर्विस करने वाली डॉ. रीतु कहती हैं कि आर्मी ने उन्हें डिसिप्लिन के साथ लाइफ को एक अलग नजरिए से देखने का साहस दिया। एडवेंचरस तो वह थी हीं, सिक्किम में पोस्टिंग के दौरान माउंटेनियरिंग से भी प्यार हो गया। इसके बाद आगरा में पैराट्रूपिंग की ट्रेनिंग ली। आर्मी की ट्रेनिंग ने उन्हें फिजिकल और मेंटल दोनों लेवल पर काफी स्ट्रॉन्ग बनाया। इस तरह कई सारे खट्टे-मीठे अनुभव हासिल कर रीतु आखिरकार साल 1992 में आर्मी से रिटायर हो गईं।
कैंसर से जीती जंग
साल 2000 में एक रूटीन चेकअप के बाद डॉ. रीतु को ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला। बेटी आठ साल की थी। मन में एक डर था फिर उन्होंने बीमारी का सामना करने का फैसला किया। सात महीने तक उसका ट्रीटमेंट चला। दो सर्जरी हुईं। फिर भी अपने कॉन्फिडेंस को कायम रखा।
एडवेंचरस मुहिम
रीतु ने साल 2006 में हाइवेज इनफाइनाइट नाम से एडवेंचर ड्राइव विद कैंसर अवेयरनेस मिशन शुरू किया। पहले अकेले देश में करीब 30, 220 किलोमीटर की दूरी तय कर वर्कशॉप्स किए। लोगों को कैंसर के प्रति सचेत किया। इसके बाद अपनी बेटी तिस्ता के साथ अलग-अलग राच्यों में कैंसर अवेयरनेस प्रोग्राम किया। वह अब तक 703 वर्कशॉप ऑर्गेनाइज कर चुकी हैं। साथ ही, 11 कैंसर मरीजों को आर्थिक मदद भी पहुंचाई है।
'ई-जीविका' से घर तक पहुंचाई जीविका
उत्तर प्रदेश के एक गांव में इनका जन्म हुआ। पढ़ाई-लिखाई दिल्ली के नामी स्कूल और कॉलेज में हुई। इसके बाद एक बड़े मीडिया हाउस के मार्केटिंग ऐंड सेल्स डिवीजन में काम किया। लेकिन मन नहीं लगा। दरअसल, ऋचा पांडे गांव के यूथ के लिए कुछ करना चाहती थीं। उन्होंने ई-जीविका नाम से एक ऑनलाइन वेंचर स्टार्ट किया और युवाओं के दरवाजे तक जॉब पहुंचाना शुरू कर दिया।
दरवाजे पर नौकरी
ऋचा ने बताया कि शहरों की तरह रूरल एरियाज में भी टैलेंट बसता है। लेकिन सही ट्रेनिंग और अपॉच्र्युनिटीज न मिलने से वे करियर में पिछड़ जाते हैं। इसे दूर करने के लिए उन्होंने आइआइटी मद्रास के आरटीबीआई (रुरल टेक्नोलॉजी ऐंड बिजनेस इंक्यूबेटर) के सामने ई-जीविका का कॉन्सेप्ट रखा। प्रपोजल पसंद आया। इसके बाद आईआईटी मद्रास ने सीड फंड अवेलेबल कराया। वह कहती हैं, ई-जीविका का बिजनेस मॉडल लीक से थोड़ा हटकर है। आमतौर पर ट्रेनिंग के बाद लोगों को जॉब ऑफर किए जाते हैं। लेकिन उनकी टीम पहले जॉब दिलाती है, फिर ट्रेनिंग।
ऑनलाइन वर्रि्कग मॉडल
गांव के लोगों को पहले वेबसाइट पर रजिस्ट्रेशन कराना होता है। उसके बाद क्लाइंट की मौजूदगी में एक ऑनलाइन इंटरव्यू लिया जाता है। ओके होने पर ही कैंडिडेट को कुछ फीस जमा करनी होती है। फिर ई-जीविका की टीम उन्हें जॉब की डिमांड के अनुसार ट्रेनिंग देती है और उनका प्लेसमेंट होता है। यूं कहें कि वह कंपनी के एक्सटेंडेड एचआर के रूप में काम करते हैं।
सोशल इंपैक्ट
ई-जीविका ने अब तक करीब तीन हजार लोगों को जॉब्स उपलब्ध कराया है। ऋचा कहती हैं, एंटरप्रेन्योरशिप किसी लंबी रेस जैसी है। इसे स्टैब्लिश करने में वक्त लगता है। फेल्योर से घबराने में नहीं, संयम से काम करने में ही फायदा है।
म्यूजिक से एम्पॉवरमेंट
दुनिया का पहला इंटरनेट गर्ल्स बैंड- वाइल्ड ब्लॉसम बनाने वाली सिंगर सागरिका देब के रग-रग में बसा है म्यूजिक। फिर भी म्यूजिक इंडस्ट्री में खुद का मुकाम बनाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। आख्रिरकार उन्होंने इंटरनेट और सोशल मीडिया की मदद से महज तीन साल में वह कर दिखाया, जो कम ही लड़कियां कर पाती हैं। इनका शाइन अ लाइट वीडियो एल्बम जल्द ही यूरोपियन इंडिपेंडेंट फिल्म फेस्टिवल और लॉस एंजिल्स म्यूजिक वीडियो फेस्टिवल में रिलीज किया जाना है।
संगीत से यूनिवर्सल अपील
सागरिका कहती हैं कि म्यूजिक एक यूनिवर्सल लैंग्वेज है, जिसके जरिए दुनिया भर में शांति और प्रेम कायम हो सकता है। वे कहती हैं, शाइन अ लाइट एल्बम न सिर्फ उनके, बल्कि दुनिया भर की महिलाओं के दिल के करीब है, क्योंकि इसमें उन्हीं के संघर्ष और आपबीती को संगीत में पिरोया गया है। यह एल्बम दिल्ली के निर्भया कांड की याद में बिगुल अभियान के लिए बनाया गया था। इसका गीत ब्रिटेन की मेलिना बर्नेट ने लिखा है और म्यूजिक कंपोज बिली प्लेल ने किया है। उन्हें उम्मीद है कि उनका यह छोटा सा प्रयास महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर सोसायटी को सेंसिटाइज कर सकेगा।
पहचानी इंटरनेट की ताकत
उन्होंने बताया कि इंटरनेट बेस्ड प्रोजेक्ट शुरू करना आसान नहीं था। लोगों ने उन्हें पागल जैसे ताने तक मारे, लेकिन उन्होंने हार नहींमानी। इंटरनेट पर अपना गाना अपलोड किया। उसे हिट्स मिले और साथ ही मिलीं हॉन्गकॉन्ग की कैरोलीन और फिलीपींस की लवलीन। तीनों ने एक एल्बम बनाने का फैसला किया। फिर वाइल्ड ब्लॉसम बैंड अस्तित्व में आया। धीरे-धीरे यूएस और यूरोप के म्यूजिक लवर्स इनसे जुड़ते गए। फिलहाल वह फ्रेंच म्यूजिक फर्म होराइजनवीयू के साथ अपने सोलो एल्बम पर काम कर रही हैं। इसमें पेरिस के मैनेजर्स हेल्प कर रहे हैं, जबकि यूएस और यूरोप के राइटर्स गाने लिख रहे हैं। उनका मानना है कि आज के दौर में इंटरनेट से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
हम किसी से कम नहीं
मुसीबतें इंसान के हौसलों को पस्त नहीं कर सकतीं। यह साबित किया है पेट्रोल पंप पर फ्यूल फिलिंग का काम करने वाली यासमीन खान ने। पेट्रोल पंप जैसी जगह पर काम करना शायद किसी भी महिला को पसंद न हो, लेकिन यासमीन ने समाज और लोगों की परवाह न करते हुए यहां काम करने का फैसला किया। दरअसल, कुछ साल पहले एक सड़क दुर्घटना ने उनके पति को घर बैठने पर मजबूर कर दिया था। परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गई, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और दिल्ली के सिरीफोर्ट के पास पेट्रोल पंप पर काम करना शुरू कर दिया।
काम करने में शर्म कैसी
यासमीन कहती हैं कि कोई काम बड़ा या छोटा नहीं होता। समाज में लोगों ने कुछ ऐसा कर दिया है कि यह काम सिर्फ पुरुषों के लिए है और यह महिलाओं के लिए। मेरा मानना है कि हर इंसान, हर तरह का काम कर सकता है। मेरे पेट्रोल पंप पर काम करने पर भी लोगों को अजीब लगा था, लेकिन मैंने किसी की परवाह नहीं की। तीन साल पहले पेट्रोल पंप पर काम करना शुरू कर दिया।
शुरुआत में होती थी परेशानी
वे कहती हैं कि शुरुआत में परेशानी होती थी, लेकिन धीरे-धीरे सब एडजस्ट कर लिया। पेट्रोल पंप पर अलग-अलग तरह के लोग आते हैं। कभी किसी को डांट कर हैंडल करना पड़ता है, तो कभी प्यार से। अब कोई प्रॉब्लम नहीं होती है। साथ काम करने वाले भी सहयोग करते हैं। शिफ्ट भी दिन की ही रहती है।
जिम्मेदारियों को पूरा करना है
पति के एक्सीडेंट के बाद यासमीन के सामने परिवार चलाने के साथ ही बेटी को पढ़ाने की भी चुनौती थी। खुद 12वीं पास यासमीन कहती हैं कि उन्होंने खुद भले कम पढ़ा हो, लेकिन अपनी बेटी नसरीन की पढ़ाई में कोई मुश्किल नहीं आने दी। उनकी ही मेहनत का नतीजा है कि आज उनकी बेटी दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में एक वरिष्ठ वकील के साथ प्रैक्टिस कर रही है। उन्हें लिखना-पढ़ना आता है, इसलिए कभी-कभी वे ऑफिस का काम भी देख लेती हैं।
अपनी सुरक्षा अपने हाथ
पूजा भी दूसरी लड़कियों की तरह घर से बाहर निकलकर अपने सारे काम करती हैं, लेकिन मजाल है किसी की, जो कोई उन्हें तीखी नजर से देख भी ले। सुनने में थोड़ा अटपटा और चौंकाने वाला लग रहा होगा, लेकिन यह सच है। पूजा ने खुद और अपनी जैसी दूसरी लड़कियों के लिए भी यह मुमकिन कर दिखाया है सेल्फ डिफेंस की क्लास से।
कोई छेड़ कर दिखाए अब..
दिल्ली की रहने वाली पूजा अग्रवाल सिडो कराटे इंडिया क्लासेज चला रही हैं। बचपन में उन्हें सेल्फ डिफेंस या इसकी टेक्निक्स की अहमियत नहीं पता थी। शादी हुई, पति का सपोर्ट मिला तो उन्होंने भी सेल्फ डिफेंस के गुर सीखे और अब आलम यह है कि वे कॉरपोरेट ऑफिसेज में जाकर फीमेल एम्प्लायीज को सेल्फ डिफेंस की क्लासेज और ट्रेनिंग देती हैं। अपनी स्टूडेंट्स को वे सिखाती हैं कि वे मार्केट में, ऑफिस में कहीं भी, कैसे रहें, ताकि छेड़छाड़ या ऐसा कोई हादसा ही न हो। ऐसी कोई आशंका हो, तो उससे खुद को कैसे बचाएं, वह इसकी भी टेक्निक सिखाती हैं।
मन से मजबूत होना जरूरी
पूजा बताती हैं, सेल्फ डिफेंस एक आर्ट है, केवल कराटे, ताइक्वांडो या मार्शल आर्ट ही नहीं है। इसके लिए मन से मजबूत होना बहुत जरूरी है। शरीर, मन और दिमाग के बीच बैलेंस करना सिखाया जाता है। अक्सर देखने-सुनने में यह काफी मुश्किल लगता है, लेकिन ऐसा है नहीं। इसमें न तो कोई खतरा है और न ही यह बहुत मुश्किल है।
सीखें और सिखाएं
पिछले कुछ सालों में महिलाओं के खिलाफ वारदातों की संख्या बढ़ी है। इसके बाद जूडो, कराटे, मार्शल आर्ट और सेल्फ डिफेंस क्लासेज की अहमियत काफी बढ़ गई है। पूजा बताती हैं, लड़कियों का एक बड़ा वर्ग इस ओर अट्रैक्ट हो रहा है। अपनी पढ़ाई या रेगुलर जॉब के साथ-साथ लड़कियां सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ले रही हैं। ट्रेंड होने के बाद कई लड़कियां इसे करियर के रूप में भी अपना रही हैं। इसमें सोशल सर्विस भी है और अर्रि्नग भी।
मिलिट्री के मोर्चे पर भी मुस्तैद
महिलाओं के लिए आर्म्ड फोर्सेज को मुश्किल फील्ड माना जाता है, लेकिन सरकारी प्रयासों और जागरूकता की वजह से सोच में आए परिवर्तन ने इस फील्ड में भी महिलाओं के लिए ऑप्शन खोल दिए हैं। आइए जानते हैं, वीमेन आर्म्ड फोर्सेज में किस तरह से एंट्री कर सकती हैं:
इंडियन आर्मी
यूपीएससी एंट्री : साल में दो बार होने वाले इस एग्जाम में 19 से 25 साल के बीच की एज वाली वे वीमेन शामिल हो सकती हैं, जिन्होंने किसी भी सब्जेक्ट से ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन किया है।
एनसीसी स्पेशल एंट्री : यह स्कीम उन महिलाओं के लिए है, जिन्होंने एनसीसी की सीनियर डिवीजन में कम से कम दो साल सर्विस की है और सी सर्टिफिकेट एग्जाम में मिनिमम बी ग्रेड हासिल किया है। ग्रेजुएट या फाइनल इयर के स्टूडेंट, जिनके 50 परसेंट या उससे अधिक मार्क्स हैं और एज 19 से 25 साल के बीच है।
जेएजी एंट्री : यह स्कीम लॉ ग्रेजुएट महिलाओं के लिए है। इसके लिए एज 21 से 27 साल के बीच होनी चाहिए। एलएलबी या एलएलएम में कैंडिडेट के मिनिमम 55 परसेंट मार्क्स होने के साथ-साथ कैंडिडेट को बार काउंसिल ऑफ इंडिया या स्टेट में रजिस्टर्ड भी होना चाहिए।
एसएससी टेक्निकल एंट्री : एलिजिबिलिटी के लिए मांगे गए सब्जेक्ट में इंजीनियरिंग एजुकेशन कंप्लीट कर चुकी या फाइनल इयर की महिलाएं, जिनकी एज 20 से 27 वर्ष के बीच है, अप्लाई कर सकती हैं।
इंडियन एयरफोर्स
एसएससी एंट्री फ्लाइंग ब्रांच : इसके लिए वे महिलाएं अप्लाई कर सकती हैं, जिनकी एज 19 से 23 वर्ष के बीच है। कैंडिडेट के ग्रेजुएशन में सभी सब्जेक्ट में मिनिमम 60 परसेंट मार्क्स होने चाहिए, साथ ही सीनियर सेकंडरी में फिजिक्स और मैथ सब्जेक्ट भी हो। कम से कम 60 फीसदी मार्क्स के साथ बीइ या बीटेक करने वाली महिलाएं भी अप्लाई कर सकती हैं।
एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग ब्रांच : इसके लिए कैंडिडेट की एज 18 से 28 साल के बीच होनी चाहिए। कैंडिडेट के पास इंजीनियरिंग की डिग्री होनी चाहिए। फाइनल इयर के स्टूडेंट भी अप्लाई कर सकते हैं। मिनिमम मार्क्स 60 परसेंट होना चाहिए। यूनिवर्सिटी एंट्री स्कीम से भी बीटेक या बीइ प्री फाइनल इयर की स्टूडेंट इस फील्ड से जुड़ सकती हैं।
ग्राउंड ड्यूटी ब्रांच : एयरफोर्स के ग्राउंड ड्यूटी ब्रांच में महिलाएं एडमिनिस्ट्रेशन, अकाउंट, लॉजिस्टिक, एजुकेशन, मेट्रोलॉजी आदि फील्ड्स में काम कर सकती हैं। यहां क्वालिफिकेशन के बेस पर एज डिसाइड होती है, जैसे- बैचलर डिग्री के लिए 20 से 23 साल, पीजी के लिए 20 से 25 साल।
इंडियन नेवी
एयर ट्रैफिक कंट्रोलर : इसके लिए वे वीमेन अप्लाई कर सकती हैं, जिनकी एज साढे़ 19 से 25 साल के बीच है और जिन्होंने मिनिमम 60 परसेंट मार्क्स से फिजिक्स/ मैथ्स/ इलेक्ट्रॉनिक्स सब्जेक्ट में ग्रेजुएशन किया है। जिन महिलाओं के इन्हीं सब्जेक्ट में एमएससी में 55 परसेंट या उससे अधिक मार्क्स आए हैं, उनके लिए भी ऑप्शन खुला है।
ऑब्जर्वर : ऑब्जर्वर के लिए कैंडिडेट का मिनिमम 55 परसेंट मार्क्स के साथ ग्रेजुएट होना जरूरी है। सीनियर सेकंडरी में मैथ और फिजिक्स सब्जेक्ट भी होना चाहिए। एज लिमिट 19 से 23 साल है।
लॉजिस्टिक : मैकेनिकल/मैरीन/सिविल/ इलेक्ट्रॉनिक्स/इलेक्ट्रिकल/आइटी आदि में बीइ या बीटेक या ग्रेजुएशन के साथ पीजी डिप्लोमा इन मैटीरियल मैनेजमेंट या मिनिमम 60 परसेंट मार्क्स के साथ बीए इकोनॉमिक्स/बीकॉम/बीएससी आइटी/ सीए /आदि। एज साढे़ 19 से 25 साल मांगी जाती है।
इंजीनियरिंग ब्रांच
नेवल आर्किटेक्चर : नेवल आर्किटेक्चर / मैकेनिकल / सिविल / एयरोनॉटिकल / एयरोस्पेस इंजीनियरिंग आदि में कम से कम 60 परसेंट मार्क्स के साथ बीइ या बीटेक करने वाली महिलाएं इसके लिए एलिजिबल हैं। एज लिमिट 21 से 25 वर्ष है। यूनिवर्सिटी एंट्री स्कीम का भी लाभ उठाया जा सकता है।
एजुकेशन ब्रांच
इस ब्रांच के लिए आवेदन करने वाली महिलाओं की एज 21 से 25 साल के बीच होनी चाहिए। कैंडिडेट कम से कम 60 परसेंट मार्क्स के साथ कंप्यूटर साइंस/आइटी/इलेक्ट्रॉनिक्स/मैकेनिकल/
इलेक्ट्रिकल से बीइ या बीटेक हो अथवा उसने फिजिक्स/मैथ्स/कंप्यूटर एप्लिकेशन में मिनिमम 50 परसेंट मार्क्स के साथ मास्टर्स डिग्री कंप्लीट किया हो।
पैरा-मिलिट्री फोर्सेज
इंडियन गवर्नमेंट पैरा-मिलिट्री फोर्सेज में महिला कर्मचारियों की संख्या 2021 तक कम से कम 10 परसेंट करना चाहती है। सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआइएसएफ, आइटीबीपी, एसएसबी आदि सभी बलों में वूमन कैंडिडेट्स के लिए अब काफी स्कोप मौजूद हैं। पैरा-मिलिट्री फोर्सेज में कॉन्सटेबल के लिए 10वीं, सब इंस्पेक्टर और असिस्टेंट कमांडेंट के लिए कैंडिडेट का ग्रेजुएट होना जरूरी है। पोस्ट के हिसाब से एज क्राइटेरिया अलग-अलग डिसाइड है।
वेबसाइट्स
joinindianarm4.nic.in
indianairforce.nic.in
indianna14.nic.in
कॉन्सेप्ट :अंशु सिंह, मिथिलेश श्रीवास्तव, मो. रजा और शरद अग्निहोत्री