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लीडर तुम्हीं हो कल के..

आम लोग, खासकर युवा अब अपनी ताकत पहचानने लगे हैं। वे अपने अंदर के लीडर को पहचान कर हर क्षेत्र में पहल कर रहे हैं। अब तक छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी कथित राजनेताओं या अफसरों से याचना करना अब उन्हें नागवार लगने लगा है। देश के लोगों को अब यह समझ में आने लगा है कि राजनीति-व्यवस्था में व्याप्त गंदगी को साफ करने के लिए उन्हें खुद कीचड़ में उतरना होगा। आज के युवा समझने लगे हैं कि अगर देश से करप्शन, अव्यवस्था, गरीबी को सही मायने में दूर करना है, तो उन्हें हर क्षेत्र में खुद आगे बढ़कर बागडोर संभालनी होगी..

By Edited By: Published: Wed, 22 Jan 2014 10:14 AM (IST)Updated: Wed, 22 Jan 2014 12:00 AM (IST)
लीडर तुम्हीं हो कल के..

हम में है लीडर

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कोई डॉक्टर बनना चाहता है, कोई इंजीनियर कोई आइएएस तो कोई वकील, लेकिन अब देश में ऐसी यंग जेनरेशन सामने आ रही है जो अपनी लीडरशिप में आम जन को असली आजादी का अहसास कराना चाहती है..

दिल्ली की सुनसान सडक पर रात के करीब नौ-दस बजे एक लडकी सडक पर खडी ऑटो का इंतजार कर रही थी। एक कार आकर रुकी। कार में बैठे लोगों ने उसे लिफ्ट देने के बहाने जबरन गाडी में बैठाना चाहा। तभी वहां से एक ऑटो रिक्शा गुजरा। ऑटो रिक्शा वाला कार में बैठे लोगों के इरादे भांप गया। उसने शोर मचाया और किसी तरह मनचले लडकों से संघर्ष करके लडकी को बचाया। इतना ही नहीं, ऑटो रिक्शा ड्राइवर ने उन सबकी पहचान भी कराई और वे सभी शोहदे सलाखों के पीछे पहुंच गए। यूं तो देश की राजधानी दिल्ली सहित पूरे देश में लडकियों के साथ बलात्कार और छेडछाड की वारदातें सामने आती रहती हैं, लेकिन इस घटना ने कहीं न कहीं आम जनता को यह संदेश दिया कि अगर देश का हर नागरिक अपना कर्तव्य अच्छी तरह समझ जाए, तो इस देश में हालात काफी हद तक सुधर सकते हैं। सुधार की यह बयार अब तेजी से चल पडी है।

बंद कमरों से निकल रहे हैं लीडर

अभी तक आम आदमी यह सोच कर चुप बैठा रह जाता था कि यह काम उसका थोडे ही है, यह तो सरकार का काम है, प्रशासन का काम है, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। देश के आम आदमी को यह महसूस हो रहा है कि हालात अच्छे हो सकते हैं, बस उसे आगे बढकर अपने हक की लडाई लडनी होगी। आम स्टूडेंट, जो बंद कमरे में बैठा मोटे फ्रेम के चश्मे से झांकती आंखें मोटी-मोटी उबाऊ किताबों में गडाकर कॉम्पिटिटिव एग्जाम्स की तैयारी कर रहा था, उसे देश और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का अहसास हुआ और वह किताबी पन्नों के बीच से निकलकर कूद पडा आंदोलन में। एक के बाद एक इस राह पर अब भविष्य के तमाम नौकरशाह चल पडे हैं। वे अपने सपनों को दरकिनार कर देश का कल संवारने के लिए लीडरशिप की राह पर चल पडे हैं।

बेहतर कल का सपना

सच्चा लीडर वही है जो देश-समाज को सही राह दिखाए। खुशी की बात यह है कि एक के बाद एक देश में लीडर्स की ऐसी नई खेप सामने आ रही है, जिनकी कभी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं रही। कोई चौराहे पर खडा लोगों को इंसानियत की सडक दिखा रहा है, कोई चुनावी हार-जीत से बेपरवाह बस लोगों को उनके चुनावी हक की याद दिला रहा है, कोई दंगों के दौरान अपनी जान की बाजी लगाकर इंसानियत की जान बचा रहा है, तो कोई जानवरों को इंसानी दरिंदगी से बचाने की कोशिश कर रहा है। युवा लीडरशिप की यह पहल भले ही नई हो, लेकिन अन्य क्षेत्रों में भारत के युवा वर्षो से देश और दुनिया में अपनी पहचान का एहसास कराते रहे हैं। दुनिया की सबसे ज्यादातर युवा आबादी वाले देश भारत में आज तकरीबन हर क्षेत्र में होनहार युवाओं की प्रतिभा सामने आ रही है, चाहे वह देश की अर्थव्यवस्था को अपने योगदान से आगे बढाने की बात हो या फिर बहादुरी और जज्बे की मिसाल कायम करने में, स्टार्ट-अप के रूप में सेल्फ-मेड एंटरप्रेन्योर बनने का अनथक सफर हो या फिर आ‌र्म्ड फोर्सेज में शामिल होकर देश?की आन-बान और शान पर मर मिट जाने का जुनून। हर फील्ड में लीडर सामने आ रहे हैं, जिनकी आंखों में सपना है एक बेहतर कल का।

सिस्टम को सुधारने का उठाया बीडा

यूपी में संतकबीर नगर नाम का एक जिला है। उसके मेंहदावल इलाके से अखिलेश नाम का स्टूडेंट 2007 में दूसरे स्टूडेंट्स की ही तरह कॉम्पिटिशन की तैयारी के लिए दिल्ली आया। दूसरे तमाम लोगों की तरह उसके माता-पिता भी चाहते थे कि उनका बेटा कलेक्टर बने। अपने मां-बाप के इसी सपने को साकार करने यह युवक देश की राजधानी आया। कभी कभार थोडा-बहुत सोशल वर्क कर लिया करता था। आम स्टूडेंट्स की तरह उसने भी कोचिंग में एडमिशन लेकर आइएएस एग्जाम की तैयारी शुरू की। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन दिल्ली में विधायक का चुनाव लडेगा और जीत भी जाएगा, लेकिन उसके जज्बे ने इसे सच कर दिखाया।

आम युवा में छिपा लीडर

अखिलेश पति त्रिपाठी बिल्कुल आम मिडिल क्लास परिवार से हैं। उनके पिता अभय नंदन त्रिपाठी रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं। बडे भाई शिवा पति त्रिपाठी सांथा ब्लॉक में मनरेगा स्कीम में टेक्निकल असिस्टेंट के पद पर तैनात हैं। दूसरे नंबर के भाई गिरजेश पति त्रिपाठी मेंहदावल क्षेत्र में प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं। पढाई भी दूसरे आम स्टूडेंट्स की तरह ही हुई। अखिलेश ने 1998 में हाईस्कूल और 2000 में इंटरमीडिएट की परीक्षा डीएवी इंटर कॉलेज मेंहदावल से फ‌र्स्ट डिवीजन में पास की। इसके बाद अखिलेश 2003 में इलाहाबाद के ईविंग क्रिश्चियन कॉलेज पहुंचे। वहां से बीए किया। बाद में प्राचीन इतिहास विषय में एमए किया। उसके बाद 2006 तक इलाहाबाद में रह कर कॉिम्पटिटिव एग्जाम्स की तैयारी करते रहे। 2007 में दिल्ली में आइएएस की तैयारी करने आ गए। यहां तक तो सब कुछ वैसा ही था जैसा यूपी के मिडिल क्लास का एक आम युवा करता है, लेकिन आगे उनके साथ कुछ ऐसा हुआ, जिसने उनकी लाइफ बदल कर रख दी।

अन्ना की मुहिम में शामिल

अखिलेश पति त्रिपाठी ने दूसरे स्टूडेंट्स की तरह यूपी और राजस्थान पीसीएस प्री एग्जाम में क्वालिफाई करके अपना खाता खोला। दिल्ली में नायब तहसीलदार पद के लिए भी परीक्षा दी। इस दौरान अखिलेश कुछ सामाजिक समस्याओं को लेकर आरटीआई भी दाखिल करते रहे। दिल्ली में आइएएस की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स में ही अखिलेश का एक ऐसा ग्रुप बन गया, जो इस सिस्टम से नाखुश था। अव्यवस्था को देखकर अखिलेश और उनके साथियों का मन छटपटाता था, लेकिन मां-बाप का सपना पूरा करना था। आइएएस एग्जाम पास करना था। इसलिए उनका मन बार-बार बंद कमरे में भारी भरकम किताबों के पन्नों के बीच व्याकुल हो रहा था। 2011 में दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में अन्ना हजारे की करप्शन के खिलाफ मुहिम ने उनके मन में भी हलचल मचा दी। अन्ना ने जब देश के युवाओं का आह्वान किया, तो वह खुद को रोक न सके और आईएएस बनने आया यह स्टूडेंट चल पडा आंदोलन की राह पर।

तप कर बने कुंदन

आंदोलन से जुडने के बाद अखिलेश की लाइफ बदल चुकी थी। क्लीन शेव रहने वाला युवक दाढी वाला एक गंभीर सामाजिक कार्यकर्ता बन गया। उन्होंने दिल्ली के लालबाग, किशोर बाग, गुलाबी बाग की झुग्गी झोपडियों के लोगों के अनाजों को हडप लेने वाले राशन माफियाओं के खिलाफ आंदोलन छेड दिया। राशन माफियाओं ने हमला करके उन्हें घायल भी कर दिया था, लेकिन यह लीडर अब कहां रुकने वाला था।

सिस्टम के लिए बदल ली राह

अखिलेश के लिए आईएएस बनने का सपना बहुत पीछे छूट गया। अब सपना था, तो बस सिस्टम को बदलने का, देश को एक बेहतर कल देने का, देश के युवाओं को नई राह दिखाने का और यह दिखाने का कि आम युवा में लीडर है, जरूरत है तो बस उसे पहचानने की और उन्होंने ऐसा कर दिखाया दिल्ली के मॉडल टॉउन विधानसभा से एमएलए बनकर।

..ताकि कोई और न तडपता रह जाए

2008 की बात है, पीयूष तिवारी अमेरिकन एमएनसी में दिल्ली में काम करते थे। एक दिन अचानक उन्हें पता चला कि उनका भाई रोड एक्सीडेंट में बुरी तरह जख्मी हो गया है। करीब घंटे भर सडक पर ही पडा तडपता रहा। चोट ज्यादा बडी नहीं थी, लेकिन कोई ऐसा नहीं था, जो उनके भाई को तुंरत हॉस्पिटल ले जा सके। इस एक घंटे में उनके भाई का खून सडक पर बहता रहा। जब तक जान थी वह मदद की गुहार लगाता रहा, लेकिन कोई नहीं आया। आया, लेकिन देर से। उसे हॉस्पिटल ले जाया गया, लेकिन तब तक देश का वह आम आदमी आम मौत मर चुका था, वह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वक्त पर कोई उसकी मदद को नहीं आया। इस हादसे ने पीयूष के मन पर इतना गहरा असर डाला कि उन्होंने इस समस्या को हल करने की ठान ली। एक एनजीओ शुरू किया सेव लाइव फाउंडेशन ताकि फिर कोई दूसरा इंसान उनके भाई की तरह सडक पर इस तरह सिर्फ मदद के अभाव में दम न तोडे।

इंसानियत की सडक

पीयूष ने अपने संगठन से लोगों में जागरूकता फैलानी शुरू की। उन्हें ट्रेंड करना भी शुरू किया कि किस तरह सडक पर आप थोडी सी सावधानी बरत कर हादसों से दूर रह सकते हैं। उन्होंने लोगों को इस बात के लिए ट्रेन करना शुरू किया कि अगर सडक पर कोई हादसा हो जाए, तो बस देखते न रहें। सडक पर पडे किसी घायल को यूं ही देख कर अपने रास्ते चलते न बनें। रुकें, उसकी हालत देखें, अगर प्राथमिक उपचार की जरूरत है, तो देखें कि ऐसा कैसे किया जा सकता है। अगर कोई बेहोश हो जाए तो उसे कैसे होश में लाएं या होश में न आ पाए तो क्या करें। अगर किसी को चोट लगी है, तो उसका उपचार कैसे करें। अगर किसी को ज्यादा चोट लगी हो, खून बह रहा हो, तो उसका खून बहना कैसे रोकें, उसे जल्द से जल्द अस्पताल कैसे ले जाएं। जहां दुर्घटना हुई है, उसके सबसे नजदीक कौन-सा अस्पताल है, यह कैसे पता करें। अगर एंबुलेंस की जरूरत हो, तो जल्द से जल्द एंबुलेंस कैसे मंगाएं। सेव लाइफ फाउंडेशन ने पहले महाराष्ट्र के ठाणे में और फिर नोएडा में किसी भी एक्सीडेंट से जल्द से जल्द निपटने और घायलों तक जल्द से जल्द उपचार पहुंचाने के लिए कॉल सेंटर भी खोल दिया। कहीं भी अगर किसी भी तरह का हादसा पेश आता है, तो वहां के कॉल सेंटर के जरिए वॉलंटियर्स की टीम वहां तुरंत पहुंच जाती है।

डिफेंस योर सेल्फ, डिफेंस योर कंट्री

एक मिशन : सेल्फ प्रोटक्शन

देहरादून की अर्चना के साथ लडकों ने सुनसान सडक पर बदतमीजी की कोशिश की। पर वह आम लडकियों की तरह डरी नहीं, उनसे भिड गई और उन्हें मार भगाया। अर्चना अपनी इस बहादुरी का श्रेय एसएस खान को देती हैं, जिन्होंने उन जैसे सैकडों लोगों को मार्शल ऑर्ट सिखाकर सेल्फ डिफेंस में सक्षम बनाया है।

रिस्पॉन्सिबिलिटी को समझें

28 साल के एसएस खान कहते हैं हम अपने साथ-साथ देश और समाज की सुरक्षा तभी कर सकते हैं जब हम खुद की सुरक्षा करने में सक्षम हों। यह तभी संभव है जब हमें मार्शल ऑर्ट, जूडो जैसी सेल्फ डिफेंस की कोई कला आती हो। हर परिवार में कम से कम एक व्यक्ति ऐसी आर्ट में ट्रेंड हो जाए तो छोटे-बडे सभी तरह के अपराधों पर बहुत हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।

एक सवाल ने बदल दी जिंदगी

कई बार एक छोटी सी बात हमें बडे मिशन की ओर ले जाती है। एसएस खान के साथ भी ऐसा ही हुआ। उस समय उनकी उम्र 10 साल से भी कम थी जब उन्होंने देखा कि इनके पिता अखबार पढते समय परेशान हो गए और बोले, अपराध बढते जा रहे हैं, हमें तुम लोगों की चिंता सताती रहती है। इन्हें रोकने के लिए कोई आगे क्यों नहीं आता?। उसी दिन उन्होंने तय किया कि वे पहले खुद मार्शल आर्ट सीखेंगे और फिर लोगों को भी इसकी ट्रेनिंग देंगे ताकि वे अपनी और दूसरों की सुरक्षा कर सकें। वे अब तक दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड में दो हजार से ज्यादा लोगों को आत्मरक्षा में सक्षम बना चुके हैं।

डर-डर कर जीना छोडें

एसएस खान मानते हैैं कि हम लोग डरते हैं, इसी कारण अपराध बढते जा रहे हैं। दिल्ली में दामिनी के साथ हुई मानवता को शर्मशार करने वाली घटना ने लोगों को हिला दिया, लेकिन हुआ क्या? बहुत से लोग डर गए और उन्होंने अपनी बेटियों का अकेले घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया। दरवाजे के पीछे खुद को बंद कर लेना किसी समस्या का समाधान नहीं है। हिम्मत करके आगे आएं और सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग लें। खुद के साथ-साथ दूसरों की सुरक्षा में सक्षम बनें।

जनता को जगाने का अभियान

भारत में चल रहे राजनीतिक हलचल में आज वे लोग भी शामिल हो गए हैं, जो अब तक राजनीति से कटे-कटे रहते थे। बदलाव की इस बयार में सबसे ज्यादा अगर किसी की भागीदारी बढी है, तो वह है युवाओं की। पहले जहां वोटिंग के दिन आज का युवा सैर-सपाटे और मौज-मस्ती में मगन रहता था, वहीं आज खुद घंटों लाइन में खडे होकर न सिर्फ वोट डालता है, बल्कि दूसरों को भी वोट देने के लिए प्रेरित करता है। अनुराग सैनी भी एक ऐसे ही युवा हैं, जो लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करते हैं। हालांकि इस बदले माहौल से पहले अनुराग की दिलचस्पी कभी राजनीति में नहीं रही, लेकिन व्यवस्था को बदलने के लिए आज वे इसमें पूरी तरह से सक्रिय हैं और आगे भी सक्रिय रहने का दावा करते हैं।

बदलाव की पहल

अनुराग कहते हैं कि कोशिश से परिवर्तन लाया जा सकता है। उनका कहना है कि आज दिल्ली में जो भी राजनीतिक बदलाव दिख रहे हैं, यह उसी का नतीजा है कि सभी राजनीतिक दल अब जनकल्याण के कामों को इंपॉर्टेस दे रहे हैं। किसी भी पार्टी के लिए अब जनता की अनदेखी करना भारी पड सकता है। जनता जागरूक हो चुकी है। अब नेता सिर्फ आश्वासन से लोगों को बहला नहीं सकते। उन्हें काम करना पडेगा।

कराया वोट की ताकत का अहसास

अनुराग ने पिछले एक साल के दौरान अपने साथियों के साथ मिलकर लोगों को नए सिरे से अपने वोट की ताकत का अहसास कराया है। उन्होंने किसी एक पार्टी के प्रति लोगों से वोट करने के लिए नहीं कहा, बल्कि सही कैंडिडेट और पार्टी का चुनाव करने की अपील की। अनुराग ने 18 से 35 वर्ष के युवाओं पर खासतौर पर टारगेट किया। अनुराग दिन में जॉब करने के साथ रात में दिल्ली के लक्ष्मी नगर स्थित अपनी कॉलोनी में लोगों को वोट के प्रति जागरूक करते।

जारी रहेगा अभियान

अनुराग कहते हैं कि पहली बार कोई चीज शुरू करने में दिक्कत होती है, लेकिन जब एक बार कोई चीज शुरू हो जाती है, तो फिर वह नहीं रुकती। अनुराग लोकसभा चुनाव के दौरान भी लोगों को वोट के लिए प्रेरित करेंगे। उनका कहना है कि दिल्ली में तो लोग वोट के प्रति काफी जागरूक हो चुके हैं, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में अभी इसकी काफी जरूरत है।

स्ट्रीट डॉग्स की बने आवाज

शहर के गली-मोहल्लों में अक्सर आपका सामना स्ट्रीट डॉग्स से होता होगा। कुछ लोग उनसे बहुत नफरत करते हैं और उनसे परेशान भी होते हैं। लेकिन कुछ उन पर अपना प्यार लुटाने में कमी नहीं करते हैं। पेशे से आर्किटेक्ट और अर्बन प्लानर ऋषि देव ऐसे ही एक पशु प्रेमी हैं, जो बीते करीब 12 सालों से पशुओं के अधिकारों के लिए समाज को जागरूक करने में लगे हैं। 2006 में उन्होंने बाकायदा सिटिजंस फॉर एनिमल राइट्स नाम से संगठन बनाया। इसके जरिए वे कम्युनिटी डॉग्स को रिहैबिलिटेट करते हैं।

जागरूकता के साथ बदलाव

ऋषि ने बताया कि उनके संगठन के साथ लॉयर, जर्नलिस्ट, आईटी प्रोफेशनल्स जैसे अलग-अलग स्ट्रीम के लोग जुडे हैं। वे सभी स्ट्रीट डॉग्स के टीकाकरण, उनके लिए जरूरी दवाएं मुहैया कराने से लेकर उनके लिए बर्थ कंट्रोल प्रोग्राम्स में हिस्सा लेते हैं। इस काम में एमसीडी और एनजीओ की मदद ली जाती है। ऋषि कहते हैं कि स्ट्रीट डॉग्स को ट्रेन कराया जाता है जिससे कि वे लोगों के घरों का हिस्सा बन सकें या फिर स्निफर डॉग्स के रूप में उनकी सेवा ली जा सके। उनका मानना है कि अगर स्ट्रीट डॉग्स को ट्रेन किया जाए, तो ये अच्छी नस्ल के कुत्तों से ज्यादा जल्दी खतरे को भांप सकते हैं।

प्रॉब्लम का है सॉल्यूशन

ऋषि का मानना है कि 95 परसेंट लोग पशुओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन उनमें दुविधा और जानकारी का अभाव है। वे स्ट्रीट डॉग्स या दूसरे जानवरों पर दया तो करते हैं, लेकिन उन्हें खतरा भी मानते हैं। हालांकि उनके द्वारा शहरों के स्ट्रीट डॉग्स की इकोलॉजी पर किए गए एक अध्ययन से यह बात स्पष्ट हुई है कि अगर इंसान कुत्तों को अच्छे से ट्रीट करता है, तो उसका वह पॉजिटिव रिस्पॉन्स देते हैं और उनके लिए किसी तरह का खतरा नहीं बनते। उनके मुताबिक अगर शहरों का मास्टर प्लान तैयार कर वहां की आबादी को कंट्रोल में रखा जा सकता है, तो बर्थ कंट्रोल प्रोग्राम से स्ट्रीट डॉग्स के पॉपुलेशन पर अंकुश लग सकता है। इसके अलावा, कुत्तों में यह कुदरती गुण होता है कि वे अपने लोकल हैबिटेट में किसी दूसरे को प्रवेश नहीं करने देते हैं। ऐसे में अगर मोहल्ले के लोग उनके खाने, पीने और सेहत का ध्यान रखेंगे, तो वे हमारे सबसे वफादार दोस्त बन सकते हैं।

मौका कुछ कर दिखाने का

समय बदल रहा है। आज लोगों को काम करने के लिए किसी सहारे या सरकारी मदद की जरूरत नहीं है। अगर इरादे मजबूत हों, तो बडे से बडे काम आसानी से हो जाते हैं। मुजफ्फरनगर दंगा पीडितों के लिए जहां समय पर सरकारी मदद न मिलने से पीडितों की मुश्किलें बढ गईं, वहीं चंद युवाओं ने पीडतों की मदद का बीडा उठाया और पहुंच गए लोगों की जरूरत का सामान लेकर। ओखला, दिल्ली के महमूद अहमद इलाके के कुछ साथियों के साथ मुजफ्फरनगर दंगा पीडितों की मदद के लिए दो ट्रकों में सामान लेकर राहत कैंप पहुंचे और मदद की। महमूद ने जामिया यूनिवर्सिटी से टीवी जर्नलिज्म का कोर्स और जामिया से ही एमएसडब्ल्यू कोर्स किया है। कुछ दिन पत्रकारिता भी की, लेकिन जब उसमें मन नहीं लगा तो जुट गए सामाजिक कायरें में।

आपदा पीडितों की मदद

हालांकि पीडितों की मदद के लिए महमूद ने पहली बार हाथ नहीं बढाया है। उत्तराखंड आपदा के दौरान भी महमूद अपनी संस्था के जरिए सक्रिय रहे। उत्तराखंड में जब लोग मदद की गुहार लगा रहे थे, तो उन्होंने वहां कैंप लगाया और लोगों की मदद की। कई दिनों तक वहां रहकर लोगों को निकालने का काम किया।

सिविक सेंस जगाने की कोशिश

ओखला इलाके में ट्रैफिक एक बडी समस्या है। ट्रैफिक के कारण लोगों को काफी दिक्कतों का सामना भी करना पडता है। महमूद अपनी संस्था जर्नलिस्ट एसोसिएशन फॉर पीपुल के माध्यम लोगों को ट्रैफिक के नियम समझाते हैं। दुकानदारों को समझाते हैं कि अपनी दुकान रोड पर न लगाएं। युवाओं को ट्रैफिक के नियम बताते हैं। महमूद की कोशिशों के बाद लोगों को कुछ राहत मिली है।

पुलिस-पब्लिक मीट

महमूद इलाके में पुलिस और पब्लिक के बीच बेहतर तालमेल बनाने के लिए पुलिस-पब्लिक मीट का भी आयोजन कराते हैं। वहां लोग बेझिझक अपनी समस्याएं सामने रखते हैं। इससे लोगों में पुलिस के प्रति आत्मविश्वास बढा है। महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर भी पुलिस और नागरिक समाज के साथ काम किया जा रहा है। इसके अलावा, स्कूल-कॉलेज के आसपास पुलिस पेट्रोलिंग भी की जाती है।

सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल

समाजसेवा तो बहुत से युवा करते हैं, लेकिन रमा अख्तर सिर्फ सोशल सर्विस ही नहीं, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने की सार्थक पहल भी कर रही हैं। मुंबई स्थित सोसायटी फॉर अवेयरनेस, हारमनी ऐंड इक्वल राइट्स यानी सहर के जरिए रमा हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बच्चों और युवाओं को आगे बढने के मौके दे रही हैं। उनकी इन कोशिशों का ही नतीजा है कि इंटरनेशनल यूथ फाउंडेशन की ओर से उनकी लीडरशिप क्वालिटी को देखते हुए उन्हें यूथ फेलो के अलावा पीसमेकिंग और पीस बिल्डिंग जैसे सम्मान से नवाजा जा चुका है।

जीता लोगों का भरोसा

1993 के मुंबई दंगों ने रमा पर कुछ ऐसा असर डाला था कि उन्होंने बचपन में ही तय कर लिया था कि वह इंटर-फेथ इश्यू पर काम करेंगी। लोगों के आपसी मतभेद और गलतफहमियों को दूर करेंगी। उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से पीजी और पीएचडी की। जोगेश्वरी बस्ती में प्रोजेक्ट करते हुए उन्हें दो संप्रदायों के साथ काम करने का मौका मिला। तभी वह जान पाईं कि कैसे वहां के बच्चों को मेनस्ट्रीम के साथ तालमेल बिठाने में परेशानी होती है। खुद रमा को कई तरह के चैलेंजेज फेस करने पडे। लोगों के बीच काफी अविश्वास था, जिसे उन्होंने खत्म किया। उनका मानना है कि यूथ में पॉजिटिव चेंज लाने की काफी क्षमता होती है। अगर वह तय कर ले, तो बदलाव जरूर आता है।

युवाओं का सशक्तीकरण

रमा ने बताया कि काम के दौरान ही उनका जुडाव मसूद अख्तर और उनके साथियों से हुआ। वे सभी स्पो‌र्ट्स और थियेटर के जरिए समाज को जागरूक करने में जुटे थे। 2007 में उन दोनों ने मिलकर सहर का गठन किया। परवाज, नींव, मोहल्ला हमारा जैसे प्रोग्राम्स लॉन्च किए गए। इनके जरिए युवाओं को समाज से जुडे काम में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया। रमा कहती हैं कि किसी भी समूह या समुदाय को जोडने में टीम स्पो‌र्ट्स काफी मददगार होता है। इसीलिए स्पो‌र्ट्स फॉर पीस प्रोग्राम के तहत युवाओं को साप्ताहिक सेशंस में फुटबॉल के साथ-साथ अच्छा नागरिक बनने के गुर सिखाए जाते हैं। आने वाले समय में सहर मुंबई और शोलापुर के मदरसों में शिक्षा से जुडे प्रोग्राम लॉन्च करने जा रहा।

क्राइम के खिलाफ ्रहल्ला बोल

देश के दूसरे कई हिस्सों की तरह लखनऊ के मरिवान इलाके में भी लडकियां मनचलों से परेशान थीं। उनका घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया था। ऐसे में एक स्कूल टीचर उषा विश्वकर्मा ने इन जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। पीडित लडकियों को इकट्ठा कर, उन्हें सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग दिलाई। इस तरह 2011 में रेड ब्रिगेड के बैनर तले शुरू हुआ अपराध के खिलाफ अभियान। आज इलाके में तो शांति है ही, वहीं सेल्फ डिफेंस ग्रुप रेड ब्रिगेड की गूंज दूसरे प्रदेशों में भी सुनाई देने लगी है।

हादसों ने दिया हौसला

उषा ने बताया कि उनकी जिंदगी सामान्य रूप से चल रही थी, जब एक दिन खबर मिली कि उनके क्लास की 11 साल की एक बच्ची के साथ रेप हुआ है। घटना ने उन्हें झकझोर दिया। वह संभल पातीं, इससे पहले उनके साथ भी एक अनहोनी होते-होते रह गई। पुलिस से शिकायत की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। वह टूट गईं। समाज और परिवार, किसी ने सपोर्ट नहीं किया। इसके बाद उन्होंने 15 किशोर लडकियों को इकट्ठा किया, जिनके साथ कुछ न कुछ हादसा हुआ था। इन सभी ने एक रणनीति बनाई। पहले वह छेडछाड की शिकायत, छेडछाड करने वाले लडके के परिवार से करतीं। अगर सुनवाई नहीं होती, तो समाज के सामने उन्हें बेइज्जत किया जाता। कई बार मनचलों की पिटाई भी की जाती। इसका असर होने लगा। मनचले खौफ खाने लगे।

ग‌र्ल्स को बनाया सक्षम

उषा कहती हैं, जब टीम का हौसला बढा तो उन्होंने लखनऊ की मार्शल आर्ट एकेडमी से सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ली। आज वह लखनऊ की तीन हजार से ज्यादा लडकियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग दे चुकी हैं। इसके अलावा बनारस, भदोही, असम और केरल जैसे राज्यों के स्कूल और कॉलेज से भी उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है। यह रेड ब्रिगेड का ही कमाल है कि आज वे लडकियां अपने हक के लिए आवाज उठा रही हैं, जो पहले इच्छा जाहिर करने तक से संकोच करती थीं। उषा की मानें तो जब कोई लडकी संघर्ष करती है या फिर प्रताडित होती है, तो उसके अंदर खुद-ब-खुद साहस आ जाता है। इसीलिए आने वाले दिनों में संगठन का लक्ष्य है कि देश भर की लडकियों को ट्रेन्ड किया जाए, ताकि खुद की सुरक्षा के लिए उन्हें किसी का मोहताज न होना पडे।

वेस्ट मैनेजमेंट से सोशल सर्विस

किसी भी शहर के सौंदर्यीकरण और सफाई की जिम्मेदारी नगर निगम की होती है। लेकिन महाराष्ट्र के पुणे शहर में सॉलिड वेस्ट कलेक्शन ऐंड हैंडलिंग यानी स्वच्छ की ओर से वेस्ट ट्रीटमेंट का एक ऐसा अनूठा प्रयोग चल रहा है, जिससे शहर के कचरा प्रबंधन के साथ-साथ उस काम में जुटे लोगों की जिंदगी भी संवर रही है। स्वच्छ देश का पहला ऐसा को-ऑपरेटिव है, जिसे कम आय वर्ग से आने वाले सेल्फ एम्प्लॉयड वेस्ट कलेक्टर्स ने मिलकर बनाया है, यानी यह किसी एनजीओ या नगर निगर द्वारा संचालित नहीं होता है, बल्कि एक ऑटोनोमस एंटरप्राइज के रूप में पुणे शहर के घरों से वेस्ट का मैनेजमेंट करता है।

स्वच्छ की शुरुआत

17 सालों से महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके हक के लिए काम कर रहींऔर बीते तीन साल से स्वच्छ की सीईओ के रूप में पुणे शहर को साफ-सुथरा बनाने में जुटींमंगल पगारे ने बताया कि 2006 में मुंबई के एसएनडीटी यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ एडल्ट एजुकेशन की मदद से स्वच्छ की पायलट स्कीम शुरू की गई जो 2008 तक चली। इसके बाद स्वच्छ एक रजिस्टर्ड संस्था बना। इस तरह करीब 1500 वेस्ट पिकर्स सर्विस प्रोवाइडर्स के रोल में आ गए। इससे उनके काम के कंडीशंस में तो सुधार आया ही, उनके रहन-सहन का अंदाज भी बदला। आज वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के साथ ही उन्हें पौष्टिक आहार दे रहे हैं।

डोर टु डोर सर्विस

मंगल बताती हैं कि भारत के शहरों में वेस्ट मैनेजमेंट एक गंभीर समस्या है। जैसे-जैसे लोग मॉडर्न हो रहे हैं और उनका लिविंग स्टैंडर्ड बढ रहा है, उसी रफ्तार से कचरा भी जमा हो रहा है और वह सडकों पर फैल रहा है। इससे शहर की सूरत और वहां के लोगों की सेहत भी बिगड रही है। इसके मद्देनजर स्वच्छ की मुहिम सार्थक कही जा सकती है क्योंकि को-ऑपरेटिव के करीब 2300 वेस्ट पिकर्स और वर्कर्स जिन्हें सुगंधा बाई कहा जाता है, वे मामूली सी फीस के एवज में पुणे के 4 लाख घरों से डोर टु डोर कलेक्शन और फिर उस वेस्ट की री-साइक्लिंग और डिस्पोजल की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। उनके अनुसार, हफ्ते में स्वच्छ के सदस्य कम से कम 4000 किलो वेस्ट की री-साइक्लिंग कर लेते हैं।

आन, बान और शान..

डिफेंस से जुडे करियर का अलग ही रोमांच है। यह हमें औरों से अलग दिखने के साथ ही सम्मान तो दिलाता ही है, साथ ही राष्ट्रसेवा का अमूल्य अवसर भी मिलता है। डिफेंस सेक्टर के साथ युवा कई रूपों में जुड सकते हैं और आन, बान व शान के साथ बन सकते हैं देश के सच्चे लीडर..

एनएसजी कमांडो

ब्लैक ड्रेस में कमांडो को देखकर उसके जैसा बनने का मन हम सभी का करता है, क्योंकि वे हमारी सुरक्षा की गारंटी देते हैं।

भर्ती प्रक्रिया

कमांडो की सीधी भर्ती नहीं होती। आर्मी, सीआरपीएफ, बीएसएफ, असम राइफल्स, आईटीबीपी और एसएसबी जैसे केंद्रीय बलों से सर्विस डेपुटेशन पर चुने हुए सोल्जर लिए जाते हैं। कठिन ट्रेनिंग के बाद उन्हें एनएसजी में शामिल होने का मौका मिलता है।

ट्रेनिंग

एक कमांडो को सभी तरह के हथियार चलाने की ट्रेनिंग, वीआईपी सिक्योरिटी हैंडल करना, बम डिफ्यूजिंग, किसी भी भौगोलिक स्थिति में कई घंटों तक भूखे-प्यासे रहकर लगातार काम करना आदि सिखाया जाता है।

पैरा-मिलिट्री फोर्स

इन बलों में शामिल जवानों का काम महत्वपूर्ण संस्थानों की सुरक्षा के साथ-साथ किसी भी तरह की आपात स्थिति को नियंत्रित करना है।

भर्ती प्रक्रिया

पैरा मिलिट्री फोर्स में असिस्टेंट कमांडेंट बनने के लिए कैंडिडेट को यूपीएससी द्वारा आयोजित की जाने वाली लिखित परीक्षा और इंटरव्यू को पास करना पडता है। साथ ही उन्हें फिजिकल और मेडिकल टेस्ट भी पास करना पडता है। लिखित परीक्षा में जनरल अवेयरनेस, रीजनिंग, न्यूमेरिकल एबिलिटी, बेसिक इंटेलिजेंस, भाषा ज्ञान की जांच की जाती है। विभिन्न पदों के लिए नियुक्ति का पैमाना अलग-अलग है।

एलिजिबिलिटी

असिस्टेंट कमांडेंट पद के लिए आवेदन करने वाले के पास कम से कम ग्रेजुएशन की डिग्री होनी चाहिए। तय किए गए फिजिकल स्टेटस को पूरा करना भी जरूरी है। इसके लिए एज लिमिट 18 से 26 साल निर्धारित की गई है। पैरा मिलिट्री फोर्स में जवान की भर्ती के लिए उम्मीदवार का सेकंडरी या सीनियर सेकंडरी पास होना जरूरी है।

टेक्निकल विंग्स

डिफेंस में काम करना चाहते हैं, लेकिन बैटलफ्रंट, फॉरवर्ड पोस्ट्स, इमरजेंसी वाले क्षेत्रों में नहीं जाना चाहते हैं, तो इसके टेक्निकल विंग्स से जुड सकते हैं।

आर्मी में

आर्मी की इंजीनियरिंग कॉर्प में टीजीसी (टेक्निकल ग्रेजुएट कोर्स) से एंट्री कर सकते हैं। इसके लिए एज लिमिट 20 से 27 साल है साथ ही कैंडिडेट का बीई या बीटेक होना जरूरी है। इसमें एसएसबी का एग्जाम पास करना पडता है।

एयरफोर्स में

एयरोनॉटिकल इंजीनियर के रूप में एयरफोर्स में करियर बना सकते हैं। इसके लिए एज लिमिट 18 से 28 साल है और कैंडिडेट का एसोसिएट मेंबरशिप ऑफ इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स द्वारा सेक्शन ए और बी एग्जाम क्लियर करना जरूरी है।

नेवी में

इसमें कैंडिडेट के पास दो ऑप्शन हैं। पहला, इंजीनियरिंग और दूसरा नेवल आर्किटेक्ट। इसमें एसएससी (जीएस), एसएससी (सबमरीन इंजीनियरिंग) आदि करके एंट्री कर सकते हैं।

टेरिटोरियल आर्मी

डिफेंस में टेरिटोरियल आर्मी के रूप में भी जुडा जा सकता है। इसमें अपने प्रोफेशन में रहकर भी काम कर सकते हैं।

भर्ती प्रक्रिया

इसके लिए कैंडिडेट की स्क्रीनिंग प्रिलिमिनरी इंटरव्यू बोर्ड करता है। इसमें सफल कैंडिडेट को एसएसबी और मेडिकल बोर्ड के पैमानों पर खरा उतरना होता है।

एलिजिबिलिटी

आवेदन करने वाले का किसी भी स्ट्रीम से ग्रेजुएट होना जरूरी है और उसकी एज 18 से 42 साल के बीच होनी चाहिए।

कॉन्सेप्ट : अंशु सिंह, मिथिलेश श्रीवास्तव, मो. रजा और शरद अग्निहोत्री


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