झारखंड में तेजी से बढ़ रहीं जेनेटिक बीमारियां
नीरज अम्बष्ठ, रांची : झारखंड में जेनेटिक बीमारिया तेजी से पांव पसार रही है। इनमें थैलीसिमिया, सिक
नीरज अम्बष्ठ, रांची : झारखंड में जेनेटिक बीमारिया तेजी से पांव पसार रही है। इनमें थैलीसिमिया, सिकल बिटा थैलीसिमिया, थैलीसिमिया माइनर, सिकल सेल एनीमिया आदि प्रमुख हैं। खासकर आदिवासियों में होनेवाली इन बीमारियों ने राज्य सरकार की चिंता बढ़ा दी है।
राज्य में जन्म लेनेवाले एक हजार नवजातों में तीन से चार नवजातों में थैलीसिमिया तथा सिकल सेल एनीमिया पाई जाती है। राज्य के सबसे बड़े मेडिकल कालेज राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान (रिम्स) में कराए गए हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है। राज्य सरकार इसी अध्ययन के आधार पर इन बीमारियों से निपटने के लिए एक्शन प्लान तैयार कर रही है। रिम्स की रिपोर्ट के अनुसार यहां इलाजरत मरीजों में 0.38 फीसद से लेकर 4.17 से ऊपर तक जेनेटिक बीमारियों के मरीज थे। रिपोर्ट के अनुसार राज्य में ऐसी जेनेटिक बीमारियों की दर आठ फीसद है, जो राष्ट्रीय दर 3.8 से लगभग दोगुनी है। रिम्स के शिशु रोग विशेषज्ञ डा. अमर वर्मा ने राज्य सरकार को यह भी जानकारी दी है कि जागरुकता के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों के बड़ी संख्या में मरीज तो इसकी जांच ही नहीं कराते। ऐसे में यह दर और बढ़ने की आशंका भी जताई गई है।
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क्या है जेनेटिक बीमारियों का हाल
(आंकड़े प्रतिशत में)
थैलीसिमिया : 4.17
सिकल बिटा थैलीसिमिया : 2.53
सिकल सेल डिजीज : 3.03
थेलीसिमिया माइनर : 0.25
आइडीए : 2.27
जिनकी जांच नहीं होती : 0.38
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सरकार क्या कर रही :
राज्य सरकार ने सिकल सेल एनीमिया की जांच के लिए प्रत्येक जिले के एक-एक प्रखंड में पायलट प्रोजेक्ट के तहत स्क्रीनिंग प्रोग्राम शुरू की है। इसके तहत चयनित अनुसूचित जनजाति बहुल प्रखंडों के स्कूलों में सभी बच्चों के रक्त की जांच कर सिकल सेल एनीमिया की पहचान करनी है।
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क्या है बीमारी :
जेनेटिक बीमारी सिकल सेल एनीमिया तथा सिकल सेल बीटा थैलीसीमिया आनुवंशिक बीमारी है, जो बच्चों को माता-पिता से प्राप्त होती है। अनुसूचित जनजाति के लोगों में होनेवाली यह बीमारी लाइलाज है, जिसका समय रहते बचाव ही बेहतर उपाय है। इस बीमारी से प्रभावित होने पर संक्रमण, एनीमिया, छाती में दर्द, आघात, पांव में अल्सर आदि समस्याएं आती हैं।
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टरबीडिटी टेस्ट से चलता है पता :
बच्चों में रक्त की साधारण जांच (टरबीडिटी टेस्ट) से इस बीमारी का पता लगाया जाता है। बाद में इस बीमारी की पुष्टि एचपीएलसी टेस्ट के माध्यम से होती है, जो रिम्स में होती है। बीमारी होने के बाद मरीजों की काउंसलिंग, बीमारी का प्रबंधन तथा जागरुकता महत्वपूर्ण है।