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'प्रकाश कुंज' से निश्शक्तों के जीवन में रोशनी

रांची : हटिया के चांदनी चौक से लगभग एक किलोमीटर अंदर बना सामुदायिक भवन कभी आवारा कुत्तों का अड्डा हु

By Edited By: Published: Mon, 22 Dec 2014 01:48 AM (IST)Updated: Mon, 22 Dec 2014 01:48 AM (IST)
'प्रकाश कुंज' से निश्शक्तों के जीवन में रोशनी

रांची : हटिया के चांदनी चौक से लगभग एक किलोमीटर अंदर बना सामुदायिक भवन कभी आवारा कुत्तों का अड्डा हुआ करता था। चारों ओर गंदगी का अंबार था। आज यहां शिक्षा की ज्योति जल रही है। नाम भी रखा गया है 'प्रकाश कुंज'। मंद बुद्धि, मूक-बधिर व अन्य निश्शक्त बच्चे यहां विशेष शिक्षा ग्रहण करते हैं। उन्हें स्थानीय कला भी सिखाई जाती है ताकि बड़े होने पर उन्हें किसी सहारे की जरूरत न पड़े। इनकी लाचारगी खत्म हो। सामुदायिक भवन के एक कमरे में स्थानीय लोगों के सहयोग से यह काम शीला लिंडा करती हैं। पूरी तरह निस्स्वार्थ। अभिभावक अपने बच्चे को सुबह यहां छोड़ जाते हैं। बच्चों को न केवल अपने दैनिक कार्य करने व इंगित भाषाओं में उन्हें शिक्षित करने का प्रयास होता है, बल्कि बड़े बच्चों को मोमबत्ती, थैला, रंगीन दीया तथा अन्य क्राफ्ट बनाने, टेल¨रग आदि का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। एक बड़े कमरे में रोज सुबह दस बजे इनकी क्लास लगती है। शाम में अभिभावक अपने बच्चों को वापस घर ले जाते हैं।

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चौदह साल पहले, जिस नन्हे नेत्रहीन बच्चे प्रकाश के नाम पर इस संस्था का नाम रखा गया था, वह इसी साल मैट्रिक उत्तीर्ण कर चुका है। प्रथम श्रेणी से। ऐसे और भी बच्चे हैं। एक-दो बच्चे आइटीआइ भी कर रहे हैं। संस्था के प्रयास से ही कई मूक-बधिर बच्चे आज बड़े होकर हटिया में ही टेल¨रग का काम रहे हैं। कुछ अपने अभिभावकों के साथ रोजी-रोजगार से जुड़ गए हैं।

शीला ने कभी विशेष शिक्षा का प्रशिक्षण नहीं लिया। बावजूद उसे इसमें महारत हासिल है। तभी तो निश्शक्त बच्चों के लिए काम करनेवाली कई संस्थाएं हैं, जो उसे समय-समय पर अपने शिक्षकों को प्रशिक्षण देने के लिए बुलाती हैं। वह कहती हैं, 'ऐसे बच्चों के साथ रहते-रहते सबकुछ सीख गई।' वह स्पेशल ओलंपिक भारत की प्रशिक्षक भी है। उसके प्रयास से प्रकाश कुंज के बच्चों को फुटबॉल, एथलेटिक्स जैसे खेलों से जुड़ने का मौका भी मिला। कई मौकों पर बच्चों ने अवार्ड भी जीते। आज अवार्ड पानेवालों में नीलू सांगा, सुनील बांडो, प्रदीप टोप्पो, नाकू, लीलावती जैसे कई नाम गिनाने को हैं। शीला को इस बात की बेहद तकलीफ है कि उनकी संस्था की इन उपलब्धियों के बावजूद सरकार की ओर से आजतक कोई सहायता नहीं मिली। अपना पूरा जीवन प्रकाश कुंज के लिए समर्पित कर चुकी शीला की दिली इच्छा प्रकाश कुंज को एक आवासीय विद्यालय के रूप में बदलने की है। इसके लिए किसी तरह अभी तक तीस-चालीस हजार रुपये जुगाड़ कर लेने के बाद उसका हौसला भी बढ़ा है। उसे विश्वास है कि वह अपने इस ईमानदार प्रयास में कभी न कभी जरूर सफल होगी।


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