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बिकेगी लकड़ी तो जलेगा चूल्हा

फोटो 7 मुरारी प्रसाद ¨सह, मुसाबनी : ज्यादातर माइंस वर्षों से बंद होने के कारण मुसाबनी में र

By Edited By: Published: Sat, 25 Jun 2016 03:03 AM (IST)Updated: Sat, 25 Jun 2016 03:03 AM (IST)
बिकेगी लकड़ी तो जलेगा चूल्हा

मुरारी प्रसाद ¨सह, मुसाबनी : जब लकड़ी बिकेगी तब जलेगा घर चूल्हा। यह कहना है पूर्वी सिंहभूम के फुलझड़ी गांव निवासी सिमोती, खड़ियाकोचा निवासी माइनो व कोतोपा गांव निवासी कापरा मार्डी का। तीनों महिलाओं की प्रतिदिन की यही दिनचर्या। जिस दिन लकड़ी नहीं बिकी उस दिन चूल्हा ठंडा रहता है। कभी तो इन्हें जलालत भी झेलनी पड़ती है।

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सिमोती और माइनो ने बताया कि बाबू सुबह जंगल जाकर पहले सूखी लकड़ी चुनते व काटते हैं। इसके बाद अलग-अलग गट्ठर बनाते हैं। इसके बाद सिर पर गट्ठर रखकर बाजार की ओर पैदल ही निकल पड़ते हैं। रोज करीब 15 से 20 किलोमीटर पैदल सफर तय करना पड़ता है। यदि बाजार में कोई ग्राहक मिल गया तो ठीक नहीं तो फेरी लगाकर बेचने की कोशिश करते हैं। प्रति गट्ठर 50 से 70 रुपये में बेचते हैं। काफी कुछ तो ग्राहक पर निर्भर करना पड़ता है। लकड़ी बेचकर मिले पैसे से मोटा अनाज चावल, दाल खरीद कर वापस घर आते हैं तब जाकर चूल्हा जलता है। कोतोपा गांव से पैदल चलकर मुसाबनी लकड़ी बेचने पहुंची कापरा मार्डी ने बताया कि जंगल से सूखी लकड़ी चुन कर लाने और बेचने में ही सुबह से शाम हो जाती है तब कहीं सौ से डेढ सौ रुपये मिलते हैं। तब जाकर घर में चूल्हा जलता है। खाना बनता है। गरीबी और पेट की आग सब कुछ सहने को मजबूर कर देती है। लकड़ी बिकी तो दाल रोटी, नहीं बिकी तो पानी पीकर भी कभी कभार सोना पड़ता है।

क्षेत्र की ज्यादातर माइंस वर्षों से बंद पड़ी है। इसके कारण लोग पलायन कर रहे हैं और घर की जिम्मेदारी पूरी तरह से महिलाओं पर आ जाती है। मुसाबनी, डुमरिया, गुड़ाबांदा की ज्यादातर आदिवासी महिलाएं लकड़ी बेच कर अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल रही है। यही काम उनकी रोजी रोटी का साधन बन गया है। पहले ठेकेदार लकड़ी काट कर लकड़ी डिपो से जलावन बेचा करते थे। मार्केट में ठेकेदार ही लकड़ी सप्लाई करते थे। ठेका बंद होने के बाद लकड़ी टाल भी बंद हो गए।


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