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बेघर वृद्ध की व्यथा आदर्श गांव की पटकथा

जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : भयावह तस्वीर। अधेड़ सी महिला गुफानुमा झोपड़ी के बाहर बैठी दिखी। नहीं, इसे

By Edited By: Published: Tue, 19 May 2015 02:40 AM (IST)Updated: Tue, 19 May 2015 02:40 AM (IST)
बेघर वृद्ध की व्यथा आदर्श गांव की पटकथा

जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : भयावह तस्वीर। अधेड़ सी महिला गुफानुमा झोपड़ी के बाहर बैठी दिखी। नहीं, इसे झोपड़ी नहीं कहा जा सकता। ये तो पत्तों व तिनकों को जुटाकर बनाया गया घोंसला भर है। बिल्कुल वैसे जैसे आदिकाल में आदिमानव रहा करते थे। हां, झोपड़ी नहीं यह तो बस घोंसला भर ही है। ओफ..! आज भी ऐसे हालात मौजूं हैं। ब्रांड इंडिया, चेंज इंडिया की बड़ी-बड़ी बातें इस महिला की गालों पर पड़े गढ्डे और चीखते हाड़ देख बेहद बेमानी से लगने लगी। हां, बिल्कुल ऐसी ही हमारे गांवों की असली तस्वीर। बदलते भारत की तस्वीर से बिल्कुल जुदा।

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गांव में बसने वाली देश की बड़ी आबादी की बदतर हालात को क्षण भर में आंखों सामने पेश करने वाली यह तस्वीर किसी आम गांव की नहीं, बल्कि सांसद आदर्श ग्राम की है, यानी बांगुड़दा (पटमदा) की। छह माह हो गए बांगुड़दा के आदर्श ग्राम बने, लेकिन छह माह में क्या बदलाव आया, यह कुंबा (घोंसलेनुमा झोपड़ी को आदिवासी में कुंबा कहते हैं) में रहने वाली चिंटाडीह (बांगुड़दा) की बुटुन सिंह के हालात खुद बयां करते हैं। सड़क बन जाए तो क्या? चेक डैम बन जाए तो क्या? जबतक पेट न पले, छत न मिले, तन न ढंके तो विकास और आदर्श क्या? यही सवाल अपने कुम्बा के बाहर बैठे-बैठे घुसी जा रही बुटुन की आंखे करतीं हैं। तन को फटी पुरानी सी साड़ी से ढंकी बुटुन शिकायत करती है कि उसके पास तो सिर्फ वोटर कार्ड, इसके अलावा कुछ नहीं। जमीन का टुकड़ा है, उसी में पत्तों से झोपड़ी बना रह रही है। खेतों-गांव में रोजी रोटी कमाने को काम करती है। आदर्श गांव में गरीबी के आदर्श को देख हालात का भयावह स्थिति स्वत: स्पष्ट होती है। स्पष्ट हो जाता है कि ये गांव कल को आदर्श ग्राम बने न बने फिलहाल यह 'आदर्श' है बेघर लोगों का, भूखे पेट का और बेरोजगार हाथों का। यहां बुटुन सिंह जैसे लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैं। 'आदर्श गरीबी' की यही तस्वीर बांगुड़दा कार्तिक रुहीदास की भी है जिन्हें साल भर बैल चरा कर कमाए गए 42 पोइला (लगभग 42 किलो) धान से पूरे परिवार का पेट पालना पड़ता है। सांसद आदर्श ग्राम में बने नए चेकडेम के पास पत्नी अन्नो रुहीदास के साथ मछली पकड़ते मिले कार्तिक ने आदर्श ग्राम के बारे कुछ सुना तो नहीं, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि अगर बैल चराने के अलावा उन्होंने मछली नहीं पकड़े तो घर पर उनके तीन बच्चों को भूखे सोना पड़ेगा। खेत खलिहान है नहीं कि कुछ उपाय हो। बैल चरा कर जो कमाते हैं उसकी मार्केट वैल्यू 20 रुपये प्रतिमाह के आसपास होगी। उसी में घर चलाना है। अमूमन कार्तिक की ही तरह यहां के अधिकांश लोगों के आर्थिक हालात हैं। कुछ की हालात चलने लायक इसलिए है क्योंकि वे टाटा (जमशेदपुर) में ठेका मजदूर के रूप में पसीना बहाते हैं। रोजाना 200 रुपये की मजदूरी करने 40 किमी दूर आते हैं। हाबू गोप इनमें से एक हैं। हाबू के खेत हैं, ठीक-ठाक धान उपजते हैं, लेकिन तब, जब इंद्रदेव मेहरबान हों। बारिश न हुई तो सब बेकार। सिंचाई की व्यवस्था है नहीं और न होने की उम्मीद। सो ठेका मजदूरी करने निकल पड़े। इसी से घर चलता है। बांगुड़दा को आदर्श ग्राम बनाए जाने के सवाल पर तमतमाते हुए कहते हैं-'उससे क्या होगा? कुछ नहीं होगा। सांसद आते हैं, हाथ जोड़ते हैं, नारियल फोड़ते हैं और चले जाते हैं। जहां तालाब बनना चाहिए वहां चेकडेम बनता है और जहां सिंचाई चाहिए वहां सड़क। खाएंगे क्या? ठेकेदार में काम करते जिंदगी नरक हो गई।' हाबू व्यवस्था भी खासे नाराज दिखते हैं। घर दिखाते हुए कहते हैं सरकार ने इंदिरा आवास दिया है, लेकिन बाबूलोग आधा से अधिक खा गए, पूरा पैसा मिला नहीं इंदिरा आवास अधूरा रह गया। सरकारी तंत्र में लगे भ्रष्टाचार के दीमक के कारण अधूरे इंदिरा आवास में रहना पड़ता है। कुल मिलाकर यहां लोग बेघर हैं, बेरोजगार हैं और जिन गिने चुने लोगों तक सरकारी योजनाएं पहुंची भी है, उन्हें योजना के तहत मिलने वाले एक रुपये में से सिर्फ दस पैसे का ही लाभ मिल पाया है। हर दूसरा व्यक्ति यहां हाबू है, हर पांचवा आदमी कार्तिक रुहिदास है और हर 10वां आदमी बुटुन सिंह। रोजगार लगभग किसी के पास नहीं, लेकिन आदर्श ग्राम योदना में रोजगार की व्यवस्था न होना, कम से कम सिंचाई की उचित सुविधा न मिलना यहां हताशा का कारण है।

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आदर्श ग्राम की रफ्तार @ 40 किमी प्रति माह

बांगुड़दा को आदर्श ग्राम बनाने की रफ्तार ऐसी है जैसे काम 40 किमी प्रति माह के हिसाब से काम हो रहा हो। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि प्रशासन ने जिस रफ्तार से इस योजना को गांव में कार्यान्वित करना शुरू किया है, उसे गांव वाले कहते हैं कि ऐसा लगता है मानों जमशेदपुर से छह महीने में प्रशासन छह ही बार 40 किमी दूर बांगुड़दा आ पाई है। मतलब एक माह में प्रशासन सिर्फ 40 किमी चल कर बांगुड़दा आ रही है और इतने में ही काम कर रही है। यही कारण है कि यहा अब तक एक भी विकास योजना पूरी नहीं हुई। सड़क का काम शनिवार को ही शुरू हुआ है। सामुदायिक भवन का शिलान्यास कल ही हुआ है। चेकडैम व पुल का कुछ हिस्सा बना है, लेकिन अभी दिल्ली दूर है।

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बंगाल में इलाज, शौचालय एक भी नहीं

1400 घर व तकरीबन 3500 की आबादी वाले बांगुड़दा में आदर्श ग्राम योजना के तहत स्थानीय ग्रामीण सबसे पहले अस्पताल व पेयजल की व्यवस्था चाहते थे, लेकिन अभी तक इस दिशा में कुछ भी नहीं हुआ। प्राथमिकी उपचार केंद्र (एडिशनल पीएचसी) तो गांव में है, लेकिन यहां चिकित्सक ड्यूटी नहीं बजाते। इलाज के लिए दस किमी दूर झारखंड बोर्डर पार बड़ाबाजार (प. बंगाल) या बंदवान (प. बंगाल) जाना पड़ता है। 100 बेड के अस्पताल का निर्माण यहां होने की बात हुई थी, लेकिन बात आया-गया हो गई। स्कूलों की संख्या ठीक-ठाक है। दो प्राइमरी स्कूल व दो मिडिल स्कूल हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी मुद्दा है। कोल्ड स्टोरेज भी खटाई में है। शौचालय एक भी नहीं, पीने का पानी भी एक किमी दूर से लाना पड़ता है। खेतिहर जमीन की भरमार है, लेकिन सिंचाई की व्यवस्था न होने के कारण केवल एक बार ही धान की खेती हो पाती है। लगभग शत फीसद मकान यहां कच्चे हैं। भूसे की छत वाले। एक फीसद ये उससे भी कम पक्के मकान हैं।

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बंगुड़दा की हकीकत

आबादी : 3500

मकान : 1400

कच्चे मकान : 99 फीसद

पक्के मकान : 1 फीसद

स्कूल : 2 (प्राथमिक) 2 (मिडिल)

स्वास्थ्य केंद्र : एक

डॉक्टर : नहीं आते

अस्पताल : शून्य

मुख्य फसल : धान

शौचालय : शून्य

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न बदले हालात, सिर्फ सुगबुगाहट से आस

आदर्श ग्राम बनने के बाद यहां के हालात जस के तस हैं। जीवनस्तर में फिलहाल छह माह बाद भी कोई बदलाव नहीं आया। पीने का पानी मयस्सर नहीं था, अब भी नहीं है। शौचालय था नहीं, है भी नहीं। गांव जैसा बदहाल था अब भी है। हां, इतना जरूर हुआ है कि शिलान्यास का दौर शुरू हुआ है। छह माह बाद अब शिलान्यास से आस बंधी है। अव्वल यह कि प्रशासनिक पदाधिकारी जब गांव आते तो पूछने पर गांव वालों को कहते कि आदर्श ग्राम के लिए अलग से कई फंड नहीं है, जो काम हो रहे हैं वही होंगे।

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ये हुए हैं काम

- चेकडैम का शिलान्यास, निर्माण चल रहा है।

- पुलिया का शिलान्यास, निर्माण चल रहा है।

- सड़क का शिलान्यास, निर्माण शुरू हुई है।

- सामुदायिक भवन का शिलान्यास, निर्माण शुरू।

- गाय पालन के लिए 25 लोग ट्रेनिंग को रांची गए।

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बांगुड़दा को आदर्श ग्राम बनाने की बात स्वागत योग्य है, लेकिन अबतक यहां हालात बहुत बदले नहीं हैं। छह माह गुजरने के बाद इसे आदर्श गांव नहीं कहा जा सकता। हां यह हो सकता है कि आगे बदलाव आए, लेकिन यहां पहले यहां के लोगों की जरूरत की चीजें उपलब्ध कराया जाना चाहिए, मसलन पानी, बिजली, चिकित्सा। इससे जीवन स्तर सुधरेगा।

- मनमत सिंह, प्रधान-बांगुड़दा

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पहले सिंचाई की व्यवस्था होती तब तो कुछ बदलाव आता। पीने का पानी भी हमें तो एक किमी दूर से लाना पड़ता है। ऐसे में कैसा आदर्श ग्राम। सड़क कल से बननी शुरू हुई है। हमारे खेतों में पानी पहुंचता तब यहां बदलाव दिखता।

लवधन महतो, बांगुड़दा निवासी

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यहां अस्पताल बनाने की बात थी, लेकिन अब सब टांय-टांय फिस्स। नेता लोग बोलते हैं बनेगा-बनेगा, लेकिन हम पूछते हैं कि कब बनेगा। बीमार होने पर हम हमेशा बंगाल पर निर्भर रहें या टाटा पर ऐसे में हम कैसे आदर्श ग्राम के वासी कहलाएं?

राजेंद्र रुहीदास, बांगुड़दा निवासी

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ठेका मजदूरी करके हमारी जिंदगी चल रही है। सिंचाई की व्यवस्था है नहीं, मनरेगा में काम भी कभी-कभी मिलता है। घर भी हमारे कच्चे हैं। सिर्फ यहां तो सर्वे हो रहा है और कुछ नहीं। सामुदायिक भवन बनेगा, सड़क बनेगी बस।

- बलदेव रुहीदास, बांगुड़दा निवासी

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यहां काम कम हो रहा है। रफ्तार धीमी है, ऐसे में तो 2016 तक सिर्फ एक सड़क ही बन पाएगी और कुछ नहीं। हमारे गांव के विकास के लिए यह काफी नहीं। हमें समग्र विकास चाहिए। सिंचाई से लेकर पीने के पानी तक। चेकडैम वैसे जगह में बना जहां कोई जरूरत नहीं।

- सुभाष महतो, बांगुड़दा निवासी

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पड़ोसी गांव के किसान पानी ढोकर करते सिंचाई

बांगुड़दा को आदर्श ग्राम बनाने की पहल से पड़ोस के गांव वैसे तो खुश हैं, लेकिन दबी जुबान से नाराजगी में जता जाते हैं। अब बांगुड़दा से दो किमी आगे स्थित माहलीपाड़ा गांव को ही ले लीजिए। यहां के किसान कंधे पर पानी ढो कर अपने खेतों की सिंचाई कर सब्जी की खेती करने को मजबूर हैं। ये मजबूरी उन्हें आदर्श ग्राम में हालात बदलने की उम्मीद निराशा के गर्त में ढकेले जा रही है। उन्हें लगता है कि वे कहीं विकास की दौड़ में पीछे न छूट जाएं।

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हम नल की नाली में जमा पानी से अपने खेतों को सींचने को मजबूर हैं। ऐसे में हम कैसे अच्छे दिन की उम्मीद कर सकते हैं। हमारे हालात न बदले हैं और न बदलने की उम्मीद दिख रही है। हां, पड़ोसी गांव आदर्श ग्राम बनने जा रहा है, हो सकता है कि कुछ बदलाव आए।

- गुरुचरण महतो, माहलीपाड़ा निवासी

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पानी की समस्या हमारी बड़ी समस्या है। विकास से हम कोसो दूर हैं। पड़ोसी गांव बांगुड़दा के हालात बदल सकते हैं, लेकिन लगता नहीं कि हमारे गांव का कुछ होगा। अच्छा होता अगर सांसद हमारे गांव के विकास में भी उतनी ही दिलचस्पी लेते।

- छोटूलाल महतो, माहलीपाड़ा निवासी

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जागरण विचार

सांसद आदर्श ग्राम योजना गांवों की तस्वीर बदलने की बेहद सटीक योजना है और इससे हालात बिल्कुल बदल सकते हैं, लेकिन तब, जब इसे सांसद व प्रशासन के फोकस के साथ पूरी ऊर्जा व उत्साह के साथ किया जाए। करना है, इसलिए कर रहे हैं का रवैया इस योजना को बाकी सरकारी योजनाओं की तरह ढकोसला भर बनाकर रख सकता है। बांगुड़दा के अभी तक के हालात बहुत उत्साहजनक नहीं दिखे। आम गांव की तरह यहां सरकारी रफ्तार से काम हो रहे। गांव की नब्ज को बेहद गंभीरता से न टटोल कर योजनाओं की प्राथमिकता तय नहीं हो पा रही। नतीजा यह कि गांव के लोग अभी तक की प्रगति से कुछ खास खुश नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है इस गांव को सांसद के खास ध्यान देने की। ताकि एक गांव तो कम से कम ऐसा कहे कि वाह-वाह क्या काम हुआ है, हमारा गांव नरक था अब स्वर्ग हो गया है। कम से कम इस गांव के लोग तो सरकार व शासन की वाहवाही करें.। अब तक यह स्थिति बनी नहीं, और बनती दिख भी नहीं रही। समय है, हालात बदल सकते हैं। जरूरत है तो बस इच्छाशक्ति की।


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