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गुजर गया मो. सईद की जिंदगी का कारवां

(गोड्डा) : स्वतंत्रता सेनानी सह पूर्व मंत्री एवं शिक्षाविद मो. सईद अहमद को राष्ट्रीय सम्मान के साथ उ

By Edited By: Published: Sun, 05 Jul 2015 01:06 AM (IST)Updated: Sun, 05 Jul 2015 01:06 AM (IST)
गुजर गया मो. सईद की जिंदगी का कारवां

(गोड्डा) : स्वतंत्रता सेनानी सह पूर्व मंत्री एवं शिक्षाविद मो. सईद अहमद को राष्ट्रीय सम्मान के साथ उनके पैतृक गांव कदमा में मिट्टी दी गयी। इस मौके पर काफी संख्या में शासन-प्रशासन और गांव के लोग उपस्थित थे। उनका निधन शुक्रवार को दुमका में हो गया था। वे 94 वर्ष के थे।

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मिट्टी देने से पूर्व अंतिम दर्शन के लिए उनके पार्थिव शरीर का कदमा गांव में रखा गया था। उनके अंतिम दर्शन को लोग उमड़ पड़े। प्रशासन की ओर से कार्यपालक दंडाधिकारी फूलेश्वर मुर्मू, बीडीओ अमिताभ भगत आदि लोग उपस्थित थे। प्रशासनिक अधिकारियों ने राष्ट्रीय सम्मान के तहत उनके पार्थिव शरीर पर राष्ट्रीय ध्वज दिया और अपनी संवेदना प्रकट की। उपायुक्त हर्ष मंगला ने शोक संवेदना प्रकट करते हुए कहा कि जिले के लोग उनके बताए मार्ग पर चलें। उन्होंने कहा कि मो. सईद अहमद का जाना जिला के लिए बड़ी क्षति है। श्रद्धांजलि देने वालों में अब्दुल बहाव शम्स, प्राचार्य रुस्तम अली, बिंदु मंडल, रिंकू आनंद सहित बड़ी संख्या में लोगों ने दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि दी।

पुस्तक में लिखी अपनी कहानी : अपने 94 वर्ष के पूरी जीवनी को उन्होंने एक पुस्तिका जिंदगी का कारवां में भी लिखा। पुस्तक में चुनाव जीतने, मंत्री बनने और स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं को लिखा है। इसके साथ ही इस पुस्तक में उन्होंने अपने पारिवारिक जीवनी को भी दर्शाया है। 13 दिसंबर 1985 को उनकी पत्‍‌नी की मृत्यु के बाद अपनी पुस्तिका में एक शेर लिखा कि 'अपनी नजर में बसाया था कल जिसे, आज उन्होंने हर नजर से गिराकर चली गयी'। दो पुत्र, चार पुत्री के साथ-साथ चार भाइयों में सईद अहमद सबसे बड़े भाई थे।

1969 में बने विधायक : वर्ष 1969 में वे महागामा विधानसभा से पहली बार विधायक निर्वाचित हुए थे। इस चुनाव में मो. सईद ने कांग्रेस के प्रत्याशी जनार्दन प्रसाद को हराया था। पुन: 1977 में वे कांग्रेस के अवध बिहारी सिंह को हराकर राम सुंदर दास मंत्रिमंडल में पर्यटन मंत्री बने। उनकी प्रारंभिक शिक्षा एवं राजनीति की शुरुआत सनौर गांव से हुई थी।

पुस्तक में लिखा गरीबी का दर्द : इसके साथ-साथ अपनी गरीबी के बारे में उन्होंने लिखा है कि उनकी हालात ऐसे नहीं थे कि वे वर्तमान में देश की आजादी या फिर राजनीति में पहुंच सकें। लेकिन इच्छा को उन्होंने महत्व दिया और आजीवन ही उर्दू, अरबी, अंग्रेजी एवं हिन्दी को सदा ही अपने पास रखा। वे उपरोक्त सभी भाषाओं के ज्ञाता थे। 1942 के आंदोलन में वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वे जेल नहीं गए लेकिन उन्हें भूमिगत जीवन बीताना पड़ा। आजाद होने के बाद हिन्दुस्तान को नया सबेरा बताया।


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