बाजारवाद से प्रभावित हो रहा साहित्य
दुमका : प्रखर साहित्यकार व मैथिली भाषा में विशिष्टता की अमिट धरोहर के तौर पर खुद को स्थापित करने वाल
दुमका : प्रखर साहित्यकार व मैथिली भाषा में विशिष्टता की अमिट धरोहर के तौर पर खुद को स्थापित करने वाले डॉ. रामदेव झा को तीसरी बार साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा जाना एक विशिष्ट घटना है। उन्हें 2015 में साहित्य अकादमी के बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। डा.रामदेव की यादें दुमका से जुड़ी हैं। उन्होंने अपने अध्यापकीय करियर की शुरुआत दुमका के एसपी कॉलेज से वर्ष 1961 में की थी। दैनिक जागरण से खास बातचीत में डॉ. रामदेव ने कहा कि 'हंसनी पान आ बजन्ता सुपारी' (हंसता हुआ पान और बोलता हुआ सुपारी) नामक बाल साहित्य में उन्होंने नौ से 16 वर्ष के किशोर के संदर्भो को उकेरा है। इस उम्र की उद्दंडता और चंचलता के साथ आ रही परिपक्वता व व्यवहार में परिवर्तन को भी बखूबी उदृत किया है।
इससे पूर्व इन्हें 1991 में नाट्य कृति पसिझैत पाथर (गलता हुआ पत्थर) एवं 1994 में पंजाबी साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी की उपन्यास एक चादर मैली सी को मैथिली में अनुवाद सगाई शीर्षक से अनुवाद करने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। वर्ष 1936 में जन्मे डॉ. रामदेव अपनी विलक्षण प्रतिभा की छाप स्कूली शिक्षा के दौरान ही छोड़ने लगे थे। कक्षा आठ से लेकर 11वीं तक कभी भी वर्ग से अनुपस्थित नहीं रहे और कक्षा में प्रथम आते रहे। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह एवं स्वास्थ्य मंत्री हरिनाथ मिश्र ने उन्हें प्रमाणपत्र प्रदान किया था। बिहार विश्वविद्यालय से 1959 में मैथिली साहित्य में स्नातक तथा 1961 में पटना विश्वविद्यालय से मैथिली साहित्य में स्नातकोतर में इन्हें स्वर्ण पदक मिला। बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन ने उन्हें गोल्ड मेडल प्रदान किया था।
1970 में पीएचडी करने के बाद डॉ. झा ने दुमका के एसपी कॉलेज में अध्यापन कार्य शुरू किया। इस कॉलेज में 1961 से 1963 तक सेवा देने के उपरांत इन्होंने बिहार विश्वविद्यालय में योगदान दिया और फिर ललित नारायण मैथिली विश्वविद्यालय पहुंचे। यहां से मैथिली पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट से 1996 में सेवानिवृत्त हुए। इनकी एक अति लोकप्रिय कहानी बसातक मोल (हवा की कीमत) दुमका के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई है। सत्य घटना पर आधारित इस कहानी का मुख्य पात्र दुमका का एक अधेड़ आदिवासी है।
2013 में बिहार के प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्थान चेतना समिति ने इन्हें लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया था। 2006 में साहित्य अकादमी ने इनके व्यक्तित्व और रचना जीवन पर मीट दी ऑथर प्रोग्राम आयोजित किया था। 1998 से 2002 तक साहित्य अकादमी नई दिल्ली के मैथिली परमार्शदाता समिति के संयोजक एवं साहित्य अकादमी के कार्यकारिणी बोर्ड के सदस्य रहे डॉ. झा 1988 से 1997 तक साहित्य अकादमी नई दिल्ली में मैथिली परमार्शदाता समिति के सदस्य भी रहे। 2006 से 2008 तक सरस्वती सम्मान के मैथिली बोर्ड के सदस्य रहे। फिलहाल दरभंगा में रह रहे रामदेव झा साहित्य साधना में रत हैं।
डॉ. झा कहते हैं कि दुमका और संतालपरगना ने जीवन और रचनाधर्मिता को नयी ऊर्जा और राह दिखाई। तमाम उपलब्धियों में दुमका और संताल परगना का बहुत बड़ा योगदान है। दुमका और संताल परगना के लोग मुझे आज भी याद हैं। एक शिक्षक के रूप में खुद को सिर्फ क्लास रूम में बांध कर नहीं रखा। दुमका के एसपी कॉलेज में रहने के दौरान मुहिम चलाई थी कि आदिवासी समाज और गरीबों में शिक्षा का प्रसार हो।
डॉ. रामदेव की पारिवारिक पृष्ठभूमि शैक्षणिक रूप से काफी समृद्ध है। इनकी पत्नी डॉ. योगमाया झा मैथिली के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान पंडित चंद्रनाथ मिश्र अमर की ज्येष्ठ पुत्री हैं। इन्हें तीन पुत्र और तीन पुत्रिया हैं। एक सवाल पर डॉ. रामदेव कहते हैं कि वर्तमान दौर में लोग साहित्य से विमुख हो चुके हैं। मनोरंजन के साधन और सूचना प्रौद्यौगिकी के विस्तार ने साहित्य व इसके कद्रदानों की अहमियत कम कर दी है। विद्यालयों में भी मातृभाषा से छात्रों को विरक्त किया जा रहा है। बावजूद इसके साहित्य और साहित्य की रचना में कुछेक लोग जमे हुए हैं और अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। ऐसे लोगों की रचना अब भी बिकती नहीं है। इन्हें बांटना पड़ता है। बाजारवाद भी साहित्य को बहुत हद तक प्रभावित कर रहा है।