पहले दर्द था, अब जख्म हैं
दलजीत सिंह, सुचेतगढ़ आरएसपुरा
68 साल पहले आजादी के साथ ही लोगों को भारत-पाकिस्तान के विभाजन का दर्द मिला। वह दर्द आज एक जख्म का रूप ले चुका है, जो वर्षो बीतने के बाद भी वैसे का वैसा ही है। आजादी के बाद से वर्ष 1947, 65, 71, 75, 99 और न जाने कितनी बार पाक गोलीबारी के कारण उन्हें अपने घरों को छोड़ सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ा है। बार-बार गोलाबारी कर पाकिस्तान इस जख्म को हरा कर देता है।
पाकिस्तानी गोलीबारी से तंग आ चुके गांव अब्दुल्लियां के 90 वर्षीय कपूर चंद कल्पित होकर कह रहे थे। वह कहते हैं, हाल ही में हमने देश की आजादी का 68वां दिवस मनाया है। लेकिन यह कैसी आजादी कि हम अपने घर में भी सुख-चैन का दिन नहीं गुजार सकते। हर पल बाल-बच्चों को पाक गोलीबारी से बचाने के लिए जिद्दोजहद करनी पड़ती है। न जाने कब पाकिस्तान के गोले हमारे घर पर आ गिरें। इससे बढि़या तो आजादी के पहले के दिन थे जब लोगों को ऐसी कोई समस्या नहीं थी। सीमांत क्षेत्रों के गांवों के लोग आजादी के बाद से कोई जीवन नहीं जी रहे हैं। आजादी के बाद से अब तक सैकड़ों लोगों की जानें जा चुकी हैं तो सैकड़ों जख्मी होकर अपाहिज की जिंदगी जी रहे हैं। इतना कुछ होने के बावजूद आज तक राज्य या फिर केंद्र सरकारों ने कोई स्थायी समाधान नहीं निकाला।
गांव के ही 80 वर्षीय मंगा राम, गांव चंदू चक निवासी 80 वर्षीय प्यारा लाल ने बताया कि सीमा पर आए दिन गोलीबारी के कारण उनको अपने घर बाहर छोड़ कर जाना पड़ता है। आज तक इसका कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया। उनकी तीसरी पीढ़ी इस जख्म के दर्द को महसूस कर रही है। और न जाने कितनी ही पीढि़यां जख्म के दर्द को झेलेंगी। पता नहीं और कितनी बार वे अपने घरों से बेघर होंगे। उन्हें नहीं लगता है कि कभी इसका कोई स्थायी समाधान निकल पाएगा।