साधने होंगे सजग साधना वाले
हिमाचल की तंग व सर्पीली सड़कों पर हिमाचल रोडवेज की बसों को शिद्दत से दिन-रात चलाते आ रहे चालकों की बेबसी का मंजर जो कल दिखा उससे शासन का हिलना तय था।
डॉ. रचना गुप्ता
हिमाचल की तंग व सर्पीली सड़कों पर हिमाचल रोडवेज की बसों को शिद्दत से दिन-रात चलाते आ रहे चालकों की बेबसी का मंजर जो कल दिखा उससे शासन का हिलना तय था। हालांकि अदालती फरमान के चलते उस एचआरटीसी के कर्मियों ने अपनी जिद पर रोक लगाई है जिसका सूत्रवाक्य है, 'सजग साधना सविनय सेवाÓ। लेकिन मामले की तह तक जाएं तो कई विषय ऐसे उभर रहे हैं जिन पर निसंदेह सरकार को ध्यान देना ही होगा। क्योंकि जोखिम भरे पहाड़ी रास्तों पर जनता को यह चालक भी ठीक वैसी सेवाएं दे रहे हैं जैसा कि अस्पतालों में चिकित्सकों या स्कूल में शिक्षकों की। फर्क सिर्फ इतना है कि खस्ता वाहनों व तंग व खराब सड़कों के चलते हादसों की बलि यही चालक-परिचालक चढ़ते हैं। इनमें जो हादसों के शिकार हुए उनके परिजन अर्से से नौकरी की इंतजार में हैं, लगातार 400 घंटों का ओवर टाइम करते रहे और अब रिटायर हुए तो पेंशन की पाई-पाई को मोहताज! दर्द की इंतहां यहीं खत्म नहीं होती बल्कि स्टाफ की कमी के कारण दोहरा कार्य प्रभार भी शारीरिक व मानसिक रूप से इन्हें प्रभावित कर रहा है।
ऐसा नहीं कि सरकार इसका मर्ज नहीं ढूंढ सकती या इसका इल्म उन्हें नहीं है। लेकिन कुछ राजनीति की ओढऩी तो कुछ सामंजस्य की कमी के कारण बात सिरे नहीं चढ़ती। हालांकि अदालत कहती है कि इनका मामला 20 जून तक निपटाया जाए। लेकिन जिस महकमे को जीएस बाली सींच रहे हैं उस महकमे पर वीरभद्र के मुख्यमंत्री रहते कितनी तवज्जो मिलेगी, यह बड़ा सवाल है। अक्सर बदलते रहे परिवहन सचिवों के हाथ कितने मजबूत हुए यह भी एक बड़ा सवाल है। परंतु नई योजनाओं से लबरेज परिवहन मंत्री कोई नया रास्ता खोजें तो बात बन सकती है। लेकिन फिलहाल राज्य में हर रोज 26 हजार बसें प्रदेश के कोने कोने तक जा रही हैं, खासकर वहां जहां प्राइवेट बसें जाना मुनासिब नहीं समझती। दस लाख लोग औसतन यात्रा करते हैं। इनमें बीस फीसद पर्यटक आते हैं। पांच लाख किमी प्रतिदिन यह बसें चलती हैं। यह काम करते हैं राज्य के छह हजार ड्राइवर व कंडक्टर। जबकि 160 स्टाफ में ऐसे हैं जो दुर्घटनाओं में मर चुके हैं और आश्रित नौकरी की इंतजार में हैं। वहीं 4500 रिटायर हैं जिन्हें पेंशन के लिए छह महीने तक इंतजार करना पड़ता है।
हालत इस कदर दयनीय इसलिए नहीं कि कंगाल निगम के पास पैसा हो नहीं सकता। लेकिन तीस फीसद मुफ्त यात्रा करने वाले हों तो समस्या खुद ब खुद बयां हो जाती है। यानी मुफ्त यात्रा तो सरकार दे रही है, लेकिन खर्चा नहीं। इसीलिए परिवहन विभाग की मांग होने लगी। निगम के सस्ते राशन की तरह सामाजिक दायित्व का भुगतान सरकार के खजाने से ग्रांट इन एड में नहीं होता। जाहिर है कि बिना तेल के बसें कब तक चलेंगी? वर्ष 2012 में भी सड़कों पर विरोध हुआ और अब चार बरस बाद भी। सवाल यह भी है कि घाटे से उबरने के लिए सरकार ठोस नीति क्यों नहीं बनाती? राजनेता किराये बढ़ाने से गुरेज क्यों करते हैं? स्कूलों में दनादन भर्ती होते टीचरों के साथ ड्राइवरों पर ध्यान क्यों नहीं? निगम के जेसीसी सचिव नील कमल कहते हैं कि सरकार को हमारी भी सुननी चाहिए। परिवहन मंत्री जीएस बाली कहते हैं कि हम बेहतरी के लिए ध्यान दे रहे हैं। लेकिन काम की अधिकता व दबाव के चलते यात्रियों के जीवन को जोखिम में डाल कर तो नहीं झेला जा सकता। फिर सड़कों की भाग्यरेखा से सकुशल गुजारने वालों पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा?