देवभूमि में कांग्रेस या वीरभद्र कांग्रेस!
बिहार में जिस प्रकार से भाजपा ने सत्ता में वापसी की है, उससे साफ है कि वह हिमाचल में भी भगवा लहराने में कोई कसर नहीं छोडऩे वाली।
शिमला, डॉ.रचना गुप्ता। कांग्रेस में वीरभद्र व सुखविंदर सिंह सुक्खू जिस तरह से भिड़ रहे हैं, उससे साफ है कि पार्टी में वर्चस्व के लिए मुख्यमंत्री संगठन को कब्जे में लेना चाहते हैं ताकि टिकटों का बंटवारा मनमाफिक हो सके। साथ ही सत्ता की आखिरी पारी में बेटे का भविष्य सुनहरा बना सकें।
लेकिन कांग्रेस की एक बड़ी टीम, जिस तरह से पार्टी अध्यक्ष सुक्खू के साथ खड़ी है, उससे वीरभद्र की राह हर बार की तरह इस बार इतनी सुगम नहीं दिख रही। बिहार में जिस प्रकार से भाजपा ने सत्ता में वापसी की है, उससे साफ है कि वह हिमाचल में भी भगवा लहराने में कोई कसर नहीं छोडऩे वाली। यूं भी भाजपा कांग्रेस की बजाए वीरभद्र को चुनावी चुनौती मानती है, इसलिए मुख्यमंत्री को उनके ही घर में घेरे रखने की चर्चा है। इसलिए कांग्रेस के लिए वीरभद्र को फ्रीहैंड देना सही रहेगा या नहीं, इसी मसले पर हाईकमान का रुख स्पष्ट नहीं है। तभी सुक्खू को चाह कर भी वीरभद्र व उनका आधा मंत्रिमंडल पद से नहीं हटवा पा रहा।
इनके दिल्ली दौड़ के क्या समीकरण बनेंगे या बिगड़ेंगे, यह तो जल्द पता चलेगा, लेकिन फिलवक्त सुक्खू ने जिस तरह से संगठन की युवा व जुझारूटीम को प्रदेशभर में खड़ा कर दिया है, उससे उन करीब डेढ़ दर्जन नेताओं के होश फाख्ता हैं, जो न सिर्फ अपने साथ-साथ बच्चों के लिए भी टिकट के तलबगार हैं।
वीरभद्र बेटे विक्रमादित्य को चुनाव लड़ाना चाहते हैं, इसलिए यदि यह एक टिकट दिया गया तो करीब 15 नेता परिजनों के लिए टिकट लेंगे। सुक्खू के अध्यक्ष रहते यह संभव नहीं हो सकेगा। बतौर पार्टी अध्यक्ष सुक्खू ने भी बड़े नेताओं के घरों में ऐसे कांग्रेसियों को संगठन में मजबूत कर दिया है, जो मुख्यमंत्री कैंप को सीधी टक्कर देने की स्थिति में है। वीरभद्र की मुखालफत उन्हीं के मंत्रियों व चेयरमैनों ने कर दी व पत्र भी लिखकर सोनिया गांधी को भेज दिया। इसी पर वीरभद्र को पांच मंत्रियों के साथ सफाई देनी पड़ रही है।
हालांकि हाईकमान भी मानता है कि वीरभद्र दबाव की राजनीति करते आए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने पार्टी प्रभारी विरेंद्र चौधरी को आंखें दिखाईं व ऐन मौके पर अध्यक्ष बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पा ली। न
राहुल गांधी कुछ कर सके न ही सोनिया गांधी। वह करीब पांच साल सीबीआइ व ईडी से घिरे रहे, लेकिन हाईकमान इनका बाल भी बांका नहीं कर पाया। जो विरोधी मंत्री बने रहे, वह भी विभागों में कुछ काम नहीं कर पाए। इतिहास गवाह है कि वीरभद्र को छह मर्तबा मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली व कई बार केंद्रीय मंत्री भी रहे, परंतु
विरोधी कभी भी सिर ऊंचा न कर सके।
सुखराम, रामलाल ठाकुर या फिर विद्या स्टोक्स अथवा कौल सिंह, जिसने भी सिर उठाया, उसका हश्र राजनीति में क्या हुआ, यह सार्वजनिक है। अब जीएस बाली, मेजर विजय सिंह मनकोटिया या सुक्खू के अलावा कई नेता फन फैला रहे हैं, जिसकी काट वीरभद्र नए अध्यक्ष के रूप में देखते हैं। लेकिन नए प्रभारी सुशील कुमार शिंदे क्या रुख अपनाते हैं, यह देखना होगा।
यह भी मामला उठ रहा है कि वीरभद्र ही यदि भाजपा की चुनौती है तो उन्हें 'सर्वेसर्वा' बनाने का असर कांग्रेस पर तो नहीं पड़ेगा? या यदि वीरभद्र की मांगें न मानीं तो वह कांग्रेस को आंख दिखाने की कितनी क्षमता उम्र के इस दौर में रख सकते हैं? क्योंकि यह भी सही है कि वीरभद्र ने राज्य के लगभग हर विधानसभा हलके में कार्यों के लिहाज से एक व्यक्ति ऐसा तैयार किया है, जो कांग्रेस टिकट के साथ या फिर स्वतंत्र तौर पर मैदान में डटने का माद्दा रखता है। इसलिए शिंदे को यह तय करना है कि उन्हें चुनाव में बतौर 'कांग्रेस' डटना है या ''वीरभद्र कांग्रेस'' के रूप में!
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