राजा की जलेब का अपना महत्व
बालकृष्ण शर्मा, कुल्लू
अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा में राजा की जलेब का विशेष महत्व है। दशहरा में रथयात्रा रघुनाथ के साथ राजा की चानणी से लेकर ढालपुर मैदान के चारों ओर से होती हुई पुन: राजा की चानणी के पास समाप्त हुई। गौर रहे कि शोभायात्रा में कुल्लू के राजा महेश्वर सिंह को पालकी पर बैठाकर ढालपुर मैदान के चक्कर लगाए जाते हैं। यह परंपरा लंका दहन के दिन समाप्त हुई। इस परंपरा के लोग भी प्रबल समर्थक हैं तथा इसे अपनी सांस्कृतिक धरोहर बताकर इसे अपना गौरव मानते हैं। जलेब में रोजाना अलग-अलग देवी-देवता हिस्सा लेते हैं व नरसिंह की घोड़ी सज धजकर जलेब के साथ चलती है। राजा की पालकी देवताओं के बीच में रहती है, जिसमें रघुनाथ जी के छड़ीबरदार राजसी पोशाक में जलेब की शोभा बढ़ाते हैं। जनश्रुति के अनुसार राजा की रियासत के समय अनेक कारणों से यह जलेब निकाली जाती थी। सर्वप्रथम सुरक्षा की दृष्टि से इस जलेब के महत्व को देखा जाता था। क्योंकि राजा की रियासत के समय कुल्लू घाटी में लगभग सभी देवी-देवता दशहरा में हिस्सा लेने के लिए ढालपुर मैदान में पहुंचते थे। देवताओं की जलेब में सम्मिलित होने का अभिप्राय था कि कहीं दैत्य शक्ति का आक्रमण दशहरा में सम्मिलित हुए देव समाज पर न हो जाए। राजा की जलेब में आने से महत्व बढ़ जाता है और राजा दशहरा की प्रशासनिक व्यवस्था का स्वयं अवलोकन कर सकें। इसी महत्व के मद्देनजर यह जलेब निकाली जाती है। जलेब में बाजों की धुन पर आम जनता अपने शासक के सामने नाच गाकर अपना स्नेह दर्शाती है। इसलिए इस जलेब का कुल्लू दशहरा में धार्मिक, राजनीतिक एवं समाजिक महत्व रहा है।
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