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सपनों को जवां होते देख रही थी आंखें

राकेश पठानिया, धर्मशाला सर्दी, गर्मी या बरसात का दर्द झुग्गी झोंपड़ी वालों से अधिक कौन समझ सकता है।

By Edited By: Published: Thu, 20 Nov 2014 04:19 AM (IST)Updated: Thu, 20 Nov 2014 01:52 AM (IST)
सपनों को जवां होते देख रही थी आंखें

राकेश पठानिया, धर्मशाला

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सर्दी, गर्मी या बरसात का दर्द झुग्गी झोंपड़ी वालों से अधिक कौन समझ सकता है। जमीं पर लगे बिस्तर पर नींद के पल व दिन भर की थकान का सकून मिलता हैं। लेकिन एक बड़े समारोह में अगर कुर्सियों पर सम्मान पूर्वक बैठ कर अपने बच्चों को मंच पर नाचते गाते देखने का मौका मिले तो शायद यह क्षण उनके स्वर्णिम पलों से भी कहीं अधिक थे। कुछ अभिभावक इसे किसी सपने से अधिक नहीं समझ रहे थे तो कुछ इस सोच में भी थे कि शायद उनके बचपन में भी कोई ऐसा मोड़ आता और वह उन्हे भी इस मकाम पर पहुंचा देता तो आज वह इस समारोह के बाद वह फिर से झुग्गी झोपड़ी के जीवन में वापस नहीं लौटते। लेकिन यह सारा दर्द बच्चों की प्रतिभा का प्रदर्शन पूरी तरह से दूर कर रहा था। यही एक मंजर भी था कि जैसे ही प्रस्तुति बदलती वैसे ही अभिाभावकों की आंखें अगली प्रस्तुती में अपने बच्चों को तलाशना शुरू कर देती। अपने बच्चे को देखते ही वह चिल्ला उठते और दोनो हाथ तालियों की गड़गड़ाहट के लिए स्वयं ही उठ जाते।

चेहरे पर केवल एक गर्व का अहसास जरूर नजर आ रहा था कि आज वह गरीबी के आलम में जरूर हों पर उनके बच्चों की प्रतिभा किसी से कम नहीं है। यह एक सकून भरा पल भी था कि बच्चे अब अपनी मंजिल पर पहुंच कर उन्हें कम से कम बुढ़ापे में तो झुग्गी झोपड़ी के दर्द से मुक्ति दिला कर एक नया जीवन देंगे। टांग लेन का दसवां वार्षिक समारोह केवल इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रहा था।

इस समारोह में लघु एकांकियां भी उन्हें यही संदेश दे रही थीं कि बालपन में काम लेना जुर्म है। जमा दो की शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों ने अपने समूहगान में भी यही कुछ बताने का प्रयास किया कि 'दूर तक जाऊंगा इस मंजर पल को न भूल पाऊंगा'। राजस्थान से यहां चरान की झुग्गी झौपड़ी में बसने वाली लच्छो देवी सामदोंग में भगवान देख रही थी। 10 वर्ष पूर्व एक सात वर्षीय बच्ची निशा सौंपी थी। जिसे ¨हदी तक का ज्ञान न था लेकिन आज वह एमबीबीएस की कोचिंग कर रही है। बकौल लच्छो देवी 'म्हारी निशा डाक्टरी की तैयारी कर रही है'। बस इतना ही कहती है और सामदोंग की ओर बढ़ जाती है। मां सीतू व पिता भोला राम की आंखों की चमक भी कहां कम थी, उनका बेटा कर्ण अब इंजीनिय¨रग की तैयारी में है। ऐसे कई अभिभावक अपने बच्चों का नया जीवन देख कर उत्साहित थे तो कुछ इन प्रतिभाओं को देख कर उस समय का इंतजार भी कर रहे थे कि कब उन्हें इस संस्थान से न्योता मिले और अपने नन्हें बच्चे को यहां भेज कर अपनी अगली पीढि़यों का इतिहास बदलें।


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