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सीओपीडी: लापरवाही बन सकती है जानलेवा

एक्यूट इक्सासरबेशन (बीमारी की तीव्रता का बढ़ जाना) कहते हैं। काफी मरीजों की इस स्थिति में मौत हो जाती है। इस रोग का इलाज करने के लिए सांस रोग विशेषज्ञ (पल्मोनोलॉजिस्ट) की आवश्यकता पड़ती है। मरीज को आईसीयू में भर्ती करके बाईपैप नामक मशीन का इस्तेमाल किया जाता है।

By ChandanEdited By: Published: Tue, 18 Nov 2014 01:28 PM (IST)Updated: Tue, 18 Nov 2014 03:20 PM (IST)
सीओपीडी: लापरवाही बन सकती है जानलेवा

सीओपीडी से संबंधित लगभग 90 प्रतिशत मामले निर्धन और विकाससील देशों में सामने आते हैं। आज देश में करीब डेढ़ करोड़ से अधिक लोग इस बीमारी से पीडि़त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सी.ओ.पी.डी. विश्व में मृत्यु का चौथा कारण है और वर्ष 2020 तक यह रोग तीसरा मुख्य कारण बन जाएगा।

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कारण

सी.ओ.पी.डी. का मुख्य कारण धूम्रपान है। इन दिनों भारत में ही लगभग 25 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं। धूम्रपान के अलावा चूल्हे से निकलने वाला धुआं, प्रदूषित वातावरण, फैक्ट्री का धुआं और टी.बी. की पुरानी बीमारी भी सी.ओ.पी.डी. के प्रमुख कारण हैं।

लंबे समय तक धूम्रपान करने से कार्बन के कण सांस नली में जमा हो जाते हैं, जिससे वहां पर सूजन और अवरोध उत्पन्न हो जाता है। इस कारण मरीज को सांस लेने में तकलीफ होती है। लगातार ऑक्सीजन की कमी रहने से शरीर के बाकी अंग भी कार्य करना बंद कर देते हैं।

गंभीर स्थिति

बीमारी की तीव्रता बढ़ जाने पर या उचित इलाज न मिलने की स्थिति में यह बीमारी भयानक रूप ले लेती है। इस स्थिति में मरीज के पैरों में सूजन आने लगती है। लगातार बलगम की मात्रा बढ़ती जाती है। यहां तक कि मरीज अपनी दिनचर्या के आवश्यक कार्य नहींकर पाता है और हमेशा बिस्तर पर बैठा रहता है। शरीर में लगातार ऑक्सीजन की कमी रहने के कारण हाथ, पैर की उंगलियां नीली हो जाती हैं और मांशपेशियां बहुत कमजोर हो जाती हैं। मरीज इस स्थिति में पहुंच जाता है कि वह दो कदम भी नहीं चल सकता।

इलाज

चिकित्सा जगत में नए शोध-अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि इनहेलर के प्रयोग से इस बीमारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है। यह कड़वा सत्य है कि सीओपीडी को नियंत्रित तो किया जा सकता है, किंतु पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। रोगी के लिये अति आवश्यक है कि वह धूम्रपान और किसी भी रूप में तंबाकू का सेवन छोड़ दे। और डॉक्टर के बताये हुए नियमों का पालन करे। अतीत में इस बीमारी का इलाज टैब्लेट्स, कैप्सूल और इंजेक्शन से किया जाता था, लेकिन अब इनहेलर्स ही इसकी प्रमुख दवा है। मुख्य तौर पर दो तरह के इनहेलर्स डॉक्टर अपने मरीज को इस्तेमाल कराते हैं। इनमें टायोट्रोपियम, इप्राट्रोपियम, साल्मेट्रोल और फार्मेट्रोल नामक दवाइयां (ये दवाएं ब्रांड नेम वाली दवाएं नहींहैं) होती हैं। इनका प्रयोग दिन दो से तीन बार किया जाता है। कभी-कभी स्टेरायड का प्रयोग भी करना पड़ता है, लेकिन इन दवाओं का प्रयोग डॉक्टर के परामर्श के बगैर नहींकरना चाहिए।

सांस फूलने का इलाज

देश के उन क्षेत्रों (जहां सर्दियों की शुरुआत होती है) में अक्टूबर व नवंबर के महीनों में अक्सर फेफड़ों में संक्रमण हो जाता है। ऐसे संक्रमण से फेफड़े के कार्य करने की क्षमता बहुत कम हो जाती है। रोगी को सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है और ऑक्सीजन में कमी होने के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। इस स्थिति को एक्यूट इक्सासरबेशन (बीमारी की तीव्रता का बढ़ जाना) कहते हैं। काफी मरीजों की इस स्थिति में मौत हो जाती है। इस रोग का इलाज करने के लिए सांस रोग विशेषज्ञ (पल्मोनोलॉजिस्ट) की आवश्यकता पड़ती है। मरीज को आईसीयू में भर्ती करके बाईपैप नामक मशीन का इस्तेमाल किया जाता है।

बाईपैप एक तरह का नया वेंटीलेटर है, जिसमें मरीज को बेहोश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अधिकतर मरीज पांच से छह दिनों में ठीक हो जाते हैं, क्योंकि ये परिस्थिति इन्फेक्शन की वजह से होती है। इस कारण महंगी एंटीबायोटिक्स भी देनी पड़ती हैं। इसलिए यह एक महंगा इलाज है। इसके बावजूद इस स्थिति में मरीज को सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है और वह अपनी नियमित दवाओं जैसे इनहेलर्स और गोलियों का इस्तेमाल नहीं कर पाता। इसलिए अधिकतर दवाइयां अस्पताल में नेबुलाइजर के द्वारा दी जाती हैं, क्योंकि ये दवाइयां बहुत तेजी से असर करती हैं। इस कारण मरीज की स्थिति में तेजी से सुधार आता है।

बचाव

इस भयानक बीमारी से बचने का एकमात्र तरीका है कि लोगों को धूम्रपान नहीं करना चाहिए। इसके अलावा ऐसी जगहों पर जहां पर वायु प्रदूषण ज्यादा है, वहां जाने से बचना चाहिए।

मौजूदा दौर में कुछ वैक्सीन्स उपलब्ध हैं, जिनसे इस रोग के बार-बार होने होने वाले संक्रमण की तीव्रता को कम किया जा सकता है। मरीज को डॉक्टर के परामर्श पर अमल करना चाहिए और दवाओं का नियमित सेवन करना चाहिए।

(डॉ.ए.के.सिंह पल्मोनोलॉजिस्ट)


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