बेटी तो बचा ली पर पढ़ाने के लिए गिरवी रख रहे मकान
संजीव कांबोज, यमुनानगर मोदी सरकार का दिया गया बेटी-बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा जरूरतमंद
संजीव कांबोज, यमुनानगर
मोदी सरकार का दिया गया बेटी-बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा जरूरतमंद बेटियों के गले से नहीं उत रहा है। प्रयासों से बेटी बच तो अवश्य रही है, लेकिन पढ़ाई की राह आसान नहीं है। जम्मू कालोनी में रह रहे तीन गरीब परिवार ऐसे हैं, जिनकी बेटियां आर्थिक तंगी से जूझते हुए अपनी सफलता का रास्ता बना रही हैं। एजुकेशन लोन के लिए बैंक गई तो गिरवीं रखने के लिए जमीन मांग ली और मुख्यमंत्री मनोहरलाल को पत्र लिखा तो आज तक जवाब नहीं आया। यह मात्र बानगी है। ऐसे हजारों बेटियां हैं, जो उच्च शिक्षा के लिए सरकार का मुंह ताक रही हैं।
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केस नंबर एक
नाम साक्षी। पिता का नाम अश्वनी है बसों और ट्रेनों में चूर्ण बेचने का काम करते हैं। मां किरण, स्वयं सहायता समूह की प्रधान और फैक्टरी में नौकरी भी करती है। पढ़ने लिखने में साक्षी शुरू से होश्यिार थी। नॉन मेडिकल फर्स्ट डिवीजन से पास करने के बाद बीटेक में दाखिले की इच्छा जाहिर की। खर्च देखकर एक बारगी तो मां-बाप ने माथा पकड़ा, क्योंकि परिवार गरीब है और आमदन का कोई ठोस साधन नहीं है। एजुकेशन लोन लेने की बात दिमाग में आई और इस संबंध में जब नजदीकी बैंक में जाकर पूछताछ की तो मैनेजर ने प्लाट गिरवीं रखने की बात कही। काफी खुशामद करने के बावजूद कोई रास्ता नहीं निकला। मजबूरी में प्लाट गिरवीं रखकर बेटी को बीटेक कराई। चूर्ण तैयार करते हुए मां और दूसरी बहनों के हाथों में छाले पड़ जाते थे और बाप के कंधे लाल हो जाते थे। कभी बस तो कभी ट्रेन में चढ़कर चूर्ण बेचा, लेकिन बेटी को बीटैक कराई। अब बेटी एक निजी कंपनी में नौकरी कर रही है, लेकिन प्लाट बैंक के पास गिरवीं है। बेटी साक्षी का प्रण है कि तब तक शादी नहीं करेगी, जब तक मां-बाप के नाम न हो जाए और बाप को अच्छा रोजगार का साधन मुहैया न करा दे।
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केस नंबर दो
नाम सुरभि शर्मा। पिता का अशोक शर्मा है और एक प्लाईवुड फैक्टरी में नौकरी करते हैं। एक दिन दिहाड़ी लग गई तो अगले दिन गारंटी नहीं है। मां रजनी शर्मा भी एक फैक्टरी में मजदूरी करती है। सुरभि के अलावा प्रिया व ¨बदिया दो बेटियां व एक बेटा सत्यम भी है। सुरभि का सपना इंजीनियर बनने का है। बेटी की इच्छा का समझते हुए मां-बाप दोनों ने दिन रात पसीना बहाया। अपना पेट काटकर बेटी की पढ़ाई जारी रखी। सुरभि ने दामला के सेठ जय प्रकाश पोलिटेक्निक से इलेक्ट्रोनिक्स एंड कम्युनिकेशन से 80 प्रतिशत अंक लेकर डिप्लोमा कर लिया। हालांकि तीन मल्टीनेशन कंपनियों से जॉब की आफर आई, लेकिन सुरभि की इच्छा है कि वह इंजीनियर बने और बीेटैक में दाखिले के लिए तीन बैंकों में एजुकेशन लोन के लिए गई, लेकिन तीनों ने 12 प्रतिशत ब्याज और प्लाट गिरवीं रखने की बात कही। सुरभि के दिमाग में आया कि मां-बाप की कमाई तो हर माह ब्याज चुकाने में ही चली जाएगी तो दूसरे भाई-बहनों की पढ़ाई व घर का गुजारा कैसे होगा। लोन लेने से इन्कार कर दिया। संस्थान के ही एक पदाधिकारी ने इस बेटी के आंसुओं को पौंछा और बिना एक भी रुपया फीस के लिए दाखिला दिया। सुरभि का कहना है कि सरकार नारे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से कतई सहमत नहीं हूं।
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केस नंबर तीन
संप्रीति शर्मा। पिता कामेश्वर शर्मा दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। मां राधा क्षेत्र की ही एक फैक्टरी में काम करती है। नॉन मेडिकल से 12वीं करने के बाद बीटेक करने की बहुत इच्छा थी। तीन अलग-अलग बैंकों में एजुकेशन लोन के लिए गई, लेकिन तीनों के अधिकारियों ने लोन की एवज में प्लाट गिरवीं रखने की शर्त रखी। किराये के मकान में रहती है। अपना प्लाट है ही नहीं तो गिरवीं कहां से रखें। मन मसोस लिया और मुकंद लाल नेशनल कॉलेज में बीएससी में दाखिला ले लिया। पांच-छह किलोमीटर हर दिन साइकिल पर कालेज गई। एमएससी करने के बाद अब बीएससी भी कर रही है और साथ में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती ताकि मां-बाप का सहयोग कर सके। संप्रिति का कहना है कि सरकार के प्रयासों से बेटियां बच तो रही हैं, लेकिन पढ़ नहीं है। पढ़ाई को लेकर बेटियों के लिए किसी योजना को को धरातल नहीं दिया। बेटियां उच्च शिक्षा लेना चाहती है। वह भी आसमान में उढ़ना चाहती हैं, लेकिन कैसे? पांवों में तो लाचारी व गरीबी की बेड़ियां हैं और सरकार बेटी पढ़ाओ का नारा अवश्य दे रही है, लेकिन पढ़ाने सहायता को आगे नहीं आ रही है।
इनसेट
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ऐसा हो तो बेहतर
सरकार के दिए गए बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा मात्र ढकोसला साबित हो रहा है। हकीकत से बहुत दूर है। यदि कुछ करना ही है, तो ज्यादा नहीं कहते, कम से कम स्कूल से पांच टॉपर बेटियों को सरकार गोद लेले और उठाए उनकी उच्च शिक्षा का खर्च। फिर मानें कि बेटी को पढ़ाया भी जा रहा है। एजुकेशन के लिए होनहार बेटियों को बिना ब्याज पर लोन दे। बिना गारंटी के जब मुद्रा लोन दिया जा सकता है, तो एजुकेशन लोन क्यों नहीं।
निर्मल चौहान, पार्षद।