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चिकनी मिट्टी को तरस रहे कुम्हार

By Edited By: Published: Wed, 23 Jul 2014 06:35 PM (IST)Updated: Wed, 23 Jul 2014 06:35 PM (IST)
चिकनी मिट्टी को तरस रहे कुम्हार

संशोधित फोटो: 5

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- परंपरागत काम को छोड़ चुके कई लोग

- चंद लोग ही संभाले हुए विरासत को

सुधीर बैंसला, सोनीपत :

मशीन ने बहुत से हाथ के दस्तकारों को सिसकने के लिए मजबूर किया है। कुम्हार वर्ग भी इनमें से एक है। मशीनी उत्पादों के कारण बहुत से कुम्हार अपना परंपरागत कार्य छोड़ चुके हैं। कुछेक परिवार जो इस कार्य को संभाले हुए हैं, वे चिकनी मिट्टी के अभाव की समस्या से जूझ रहे हैं। अधिक श्रम और कम बचत और ऐसे ही अनेक कारण है, जिसके कारण जटवाड़ा के बहुतेरे कुम्हार अब चाक (आकार गढ़ने वाला पहिया) और भट्ठी नहीं चलाते।

करीब तीन दशक पहले सोनीपत के अकेले जटवाड़ा मोहल्ले में ही 30 से अधिक परिवार मिट्टी के बर्तन व अन्य वस्तुएं बनाने का कार्य करते थे। तब जिले में शहरीकरण भी ज्यादा नहीं था। इन कुम्हारों को ककरोई रोड स्थित जोहड़ से खूब चिकनी मिट्टी मिला करती थी। मिट्टी में पकड़ मजबूत थी। यह इलाका भी शहरी हवा से दूर था। लोग शीतल पेय के लिए मिट्टी से निर्मित बर्तनों, मसलन घड़ा, सुराही का प्रयोग करते थे। दूध के लिए कड़ाह होती थी। फूल दस्ता, पशु पक्षियों के लिए कुंडी होती थी। और भी घरेलू जरूरत की कई वस्तुएं चाक पर कुम्हार के हाथ की दस्तकारी से गढ़ी और फिर उसे भट्ठी पर पकाया जाता था।

लेकिन जैसे जैसे हाथ के दस्तकारों पर मशीनी युग हावी होने लगा तो कुम्हार वर्ग भी उससे अछूता नहीं रहा। दीपावली व पूजन में जो मिट्टी के दीये बनते थे, उनकी जगह इलेक्ट्रिक मोमबत्तियों और लड़ियों ने ले ली। घड़ों व सुराही की जगह फ्रिज ने हथिया ली। दूध उबालने का काम अब कड़ाह की जगह सिल्वर व स्टील के बर्तनों में हो रहा है।

अत्यधिक मेहनत और लागत के बाद कम बचत व बढ़ती महंगाई ने कुम्हारों को इस धंधे से दूर कर दिया। रही सही कसर गांव से शहर में तब्दील हुए क्षेत्रों में चिकनी मिट्टी की कमी ने पूरी कर दी। अब कुम्हारों को ककरोई स्थित जोहड़ से मिट्टी नहीं मिलती। आबादी का बोझ बढ़ते ही इस पर कब्जे हो गए हैं।

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मिट्टी व ईधन भी महंगा हुआ

मिट्टी के बर्तनों पर मिट्टी की कमी ही नहीं बल्कि महंगी मिट्टी और ईधन पर खर्च ज्यादा बढ़ना भी कुम्हार वर्ग इस पेशे से तौबा कर रहा है। एक बुग्गी मिट्टी 600 रुपये में आती है। 100 मटके बनाने के लिए 500 रुपये से अधिक के उपले फुंक जाते हैं। दो-तीन महीने तक घर के सभी सदस्य परिश्रम में लगे रहते हैं। एक सदस्य की न्यूनतम मजूरी भी नहीं निकल पाती।

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जटवाड़ा में अब दो तीन परिवार ही चाक पहिया चला रहे हैं। पूरा परिवार मेहनत करता है, तब भी बड़ी मुश्किल से गुजर बसर होती है। अब तो पुरानी पीढ़ी के बूढ़े बचे हैं, वही इसे कर पा रहे हैं। युवा तो दूसरे रोजगार व धंधों में लग गए। शादी विवाह और गर्मियों के दिनों में थोड़ा बहुत काम चलता है, बाकी दिनों में तो खाली हाथ बैठे रहना पड़ता है। चिकनी मिट्टी भी नहीं मिलती है। गांव जहारी से मिट्टी लानी पड़ रही है।

- महासिंह, विक्रेता कुम्हार, माडल टाउन।


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