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स्वर्णाक्षरों में लिखा है अहीरवाल के वीरों का बलिदान

जागरण संवाददाता, रेवाड़ी: अहीरवाल को सैनिकों की खान यूं ही नहीं कहा जाता है। बात चाहे आजादी से पहले आ

By Edited By: Published: Mon, 25 Jul 2016 07:20 PM (IST)Updated: Mon, 25 Jul 2016 07:20 PM (IST)
स्वर्णाक्षरों में लिखा है अहीरवाल के वीरों का बलिदान

जागरण संवाददाता, रेवाड़ी: अहीरवाल को सैनिकों की खान यूं ही नहीं कहा जाता है। बात चाहे आजादी से पहले आजादी पाने के लिए संघर्ष की हो या फिर आजादी को बरकरार रखने के लिए दुश्मन के दांत खट्टे करने की, हर मामले में अहीरवाल के वीर आगे रहे हैं। कारगिल में भी यहां के जवानों का बलिदान स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। कारगिल युद्ध में यहां के तीन जांबाज जवानों ने अपनी कुर्बानी दी थी। रेजांगला की दुर्गम पहाड़ियों की तरह ही कारगिल क्षेत्र में भी भौगोलिक स्थिति भारतीय सैनिकों के विपरीत थी, लेकिन सैनिकों का जज्बा दुश्मन पर भारी पड़ा। उन्होंने दिलेरी के बल पर पाक को धूल चटाई।

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घायल होकर भी देते रहे निर्देश

गांव धामलावास निवासी डिप्टी कमांडेंट सुखबीर ¨सह को अहीरवाल क्षेत्र कारगिल के प्रथम शहीद के रूप में हर वर्ष नमन करता है। 26 मई 1999 को सायं पौने आठ बजे अपने साथियों सहित कारगिल क्षेत्र के 'छेनीगुंढ' इलाके में बर्फीली सर्द हवाओं के बीच मुस्तैदी से तैनात थे। वे एक चेक पोस्ट का निरीक्षण करने जा रहे थे, तभी घाटी में घात लगाकर बैठे पाक आतंकवादियों ने गोलियां बरसानी शुरू कर दी। आवाज सुनकर सुखबीर ¨सह चौकन्ने हो चुके थे। उन्होंने जवाबी फायर किया, लेकिन गोलाबारी के बीच उग्रवादियों ने एक गोला उनकी ओर फेंक दिया। सुखबीर ¨सह गंभीर रूप से घायल हो गये, परंतु उन्होंने धैर्य नहीं खोया तथा घायल होने के बावजूद जवानों से दुश्मनों को खदेड़ने के आदेश देते रहे। घायल सुखबीर को तत्काल श्रीनगर के आर्मी अस्पताल में पहुंचाया गया, परंतु उनका जीवन बचाया नहीं जा सका। वर्ष 1999 में उन्हें जम्मू-कश्मीर में तैनात किया गया, परंतु यह उनकी अंतिम नियुक्ति सिद्ध हुई। 26 मई 1999 को देश के लिए वे शहीद हो गए।

सूबेदार रामनिवास व हवलदार साधूराम हुए शहीद

गांव रतनथल बास निवासी सूबेदार रामनिवास का नाम भी कारगिल शहीदों में प्रमुखता से लिया जाता है। रामनिवास कारगिल के उड़ी सेक्टर में 9 राजपूत रेजीमेंट में तैनात थे। इस बीच 21 अक्टूबर 1998 को देश की सीमा में घुसे दुश्मन देश के सैनिकों व उग्रवादियों से लड़ते हुए वह मार्ग भटक गए। उस समय बेशक उनकी शहादत को गुमशुदा कहकर सम्मान नहीं मिल पाया, परंतु जब लगभग सात माह बाद 8 मई 1999 को कारगिल युद्ध के दौरान कश्मीर घाटी में उनका पार्थिव शरीर मिला तो शहादत पर छाया कोहरा भी छंट गया। तत्कालीन कार्यवाहक कमान अधिकारी ने शहीद रामनिवास की पत्नी वीरांगना फूलवती को 10 मई 1999 को पत्र भेजकर उनके बलिदान को राजपूत रेजीमेंट के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने की सूचना दी। कमान अधिकारी ने ही यह खुलासा किया था कि रामनिवास ने वीरता से लड़ते हुए ही कुर्बानी दी थी।

दूसरी ओर कारगिल विजय दिवस 26 जुलाई के बाद भी शहादत का सिलसिला थमा नहीं था। यहां के मंदौला निवासी हवलदार साधूराम ने 4 सितंबर 1999 को देश सेवा के लिए कारगिल में ही अपने प्राण न्यौछावर किये थे। जिला सैनिक बोर्ड भी उन्हें कारगिल शहीद का सम्मान दे रहा है।


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