तीर्थ पुरोहितों के पास है पूर्वजों का रिकार्ड
संवाद सहयोगी, पिहोवा : विश्व प्रसिद्ध सरस्वती तीर्थ स्थल के पावन पट पर तीर्थ पुरोहितों के पास कई र
संवाद सहयोगी, पिहोवा :
विश्व प्रसिद्ध सरस्वती तीर्थ स्थल के पावन पट पर तीर्थ पुरोहितों के पास कई राज्यों की पुश्तों का पीढ़ी दर पीढ़ी रिकार्ड बही खातों में दर्ज है। इन बही खातों के माध्यम से ही युवा पीढ़ी अपने पूर्वजों का नाम जान पाती है और पूर्वजों के लेखे-जोखे को देखकर दंग भी रह जाती है। जी हां, महाराज पृथु द्वारा बसाया गया प्राचीन शहर पृथुदक जो वर्तमान समय में पिहोवा के नाम से विश्व विख्यात तीर्थ स्थल है। महाभारत सहित अनेक पुराणों व ग्रंथों में पिहोवा को कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, पुष्कर व गया, बिहार से भी अधिक महत्व दिया है। भगवान कृष्ण के कथन पर महाराजा युधिष्ठर ने महाभारत युद्ध में अपने परिजनों व मारे गए वीरों की आत्मिक शांति हेतु यही पर क्रियाक्रम, गति व ¨पडदान किया था, जिससे उसके परिजनों की आत्मा को शांति मिली। इसी वजह से देश-विदेश से लाखों लोग अपने मृत संबंधियों की आत्मिक शांति तथा मोक्ष प्राप्ति हेतु गति कराने यहां आते हैं।
माना जाता है कि तीर्थ स्थानों की शोभा स्वच्छ जल, मंदिर, साधु, तपस्वी तथा पंडों व पुरोहितों के कारण होती है। इनमें से प्रत्येक का अपना अपना अलग ही महत्व है। तीर्थ का जहां इतना महत्व हैं, वहीं पर यहां के पंडों-पुरोहितों का भी काफी महत्व है। मानव जीवन में पुरोहितों का महत्व जन्म से मृत्यु अंतिम संस्कार तक है। देवताओं ने भी बृहस्पतिवार को तथा दानवों ने शुक्राचार्य को अपना पुरोहित माना है। वर्तमान में पंडे-पुरोहित, ब्राह्मणों, कुलाचार्य इत्यादि नामों से विभिन्न स्थलों पर रहते हैं। मुख्य रूप से इन कुलाचार्यों की भी तीन श्रेणियां हैं। एक कुल पुरोहित है, जो कुल की सभी धार्मिक रस्में पूरी करते हैं। दूसरे तीर्थ पुरोहित हैं जो तीर्थ स्थानों पर मिलते हैं। तीसरे आचार्य जो अंतिम संस्कार के कार्य कराते हैं। वंशावलियों संबंधी पुराने रिकार्ड तीर्थ पुरोहितों के पास ही मिलते हैं। पिहोवा के पंडों के पास कई प्राचीन अभिलेख रिकार्ड के रूप में सुरक्षित हैं। यह रिकार्ड बही या पोथी के नाम से सुरक्षित हैं। यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से यह अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है, परंतु पुरोहितों ने यह रिकार्ड ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं बल्कि व्यक्तिगत व्यवसाय व धार्मिक रस्मों की पूर्ति हेतु रखा है। यहां के पंडे-पुरोहितों के पास 300 से 400 वर्ष पुराने रिकार्ड देखे जा सकते हैं।
पिहोवा के तीर्थ घाट पर पंहुचते ही यात्रियों को पुरोहित पेन व डायरी लिए मिलते हैं, जो यात्री से उनके पूर्वजों के पिछले निवास स्थान व उनकी जाति के बारे में पूछते हैं फिर इन्हें उनका पुरोहित अपने साथ ले जाता है, जहां पर यात्रियों को उनकी वंशावली बताई जाती है। उनके पूर्वजों के नाम व हस्ताक्षर दिखाए जाते हैं तथा भविष्य के लिए उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम लिख कर हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं, जो कि रिकार्ड का एक हिस्सा बन जाते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी वंशावली को याद रखना संभव नहीं होता, परंतु इन बहियों के माध्यम से इसे जाना जा सकता है। इनके अतिरिक्त प्राचीन राजा, महाराजाओं द्वारा अपने मंत्रियों तथा कुल पुरोहितों द्वारा भेजे गए दान का भी वर्णन है। पुरोहितों को कई बार दान में पूरा गांव ही दे दिया जाता था। राजा-महाराजा कई बार विदेशी भाषा में भी दान पट्टा लिख कर दे जाते थे। 165 वर्ष पूर्व परशियन भाषा में एक पट्टा पटियाला के महाराजा ने अपने पुरोहित पंडित गोपाल जी सरूप लाल को दिया, जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी है। उस समय मोहम्मदपुरा गांव दो कुंए, जिनकी वार्षिक आय 300 रुपये थी तथा किशनपुरा नामक पूरा गांव दान में पुरोहित को दिया। पिहोवा के एक अन्य पुरोहित की बही से प्राप्त अभिलेख में लिखा है कि भदौड़ शहर के रईस जब ¨पजूपुरा गांव में कब्जा लेने जा रहे थे तो रास्ते में पिहोवा में अपने पुरोहित को मिले तथा उन्हें लिख कर दिया कि यदि उन्हें पींजूपूरा गांव का कब्जा मिल गया तो वह अपने तीर्थ पुरोहित को छह मन अनाज हर फसल पर देंगे। यह घटना सावन माह की 6 तारीख-संवत 1894वीं की है। इससे पता चलता है कि किस तरह पहले रईस लोग कब्जा लेते थे। इस तरह इन बहियों का अध्ययन करने से तथ्यों का संसार खोजा जा सकता है। सैंकड़ों वर्ष पुराने ये रिकार्ड इतिहास का पुन: निर्माण कर रहे हैं। यहां के पंडों ने इन रिकार्डों के द्वारा जायदाद संबंधी बटंवारे भी कराए हैं, भारत पाक विभाजन के समय बिछड़े अनेक परिवारों को इन पंडों ने मिलवाया भी है, क्योंकि उनके पास वर्तमान स्थान भी लिखा होता है। इस समय यहां पर 200 के लगभग ब्राहमण परिवार हैं, जो कर्मकांड का काम करते हैं। वैसे तो पिहोवा में पुरोहितों का प्रतिदिन ही महत्व है, परंतु चैत्र चर्तुदशी पर लगने वाले वार्षिक मेले पर पुरोहितों का विशेष महत्व हो जाता है, क्योंकि मेले के अवसर पर लाखों लोग यहां पर पिण्डदान हेतु आते हैं। यह कार्य पंडों द्वारा ही संपन्न होता है। इसलिए हर कोई पुरोहित के पास बैठा नजर आता है, ताकि वह उनसे आर्शीवाद प्राप्त कर सके तथा अपने मृत संबंधियों पिण्डदान करके उनके लिए अक्षय मोक्ष की कामना कर सके।