इतिहास में शुमार हुई सावन की परंपराएं
जागरण संवाददाता, बहादुरगढ़ :
सावन की परंपराएं अब इतिहास में शुमार होकर रह गई है। इसकी शुरूआत से लेकर तीज पर्व तक पेड़ों की डाल पर लटकने वाले झूले और पारंपरिक मंगल गीत अब सिर्फ यादों का हिस्सा ही बनकर रह गए है। त्यौहारों के रूप में सावन की परंपराएं अब एक दिन तक ही सीमित होकर रह गई हैं।
तीज पर्व को त्यौहारों का बीज माना जाता है। यह सावन में सबसे पहले आने वाला त्यौहार है। हरियाणा में कहावत भी है कि आ गई तीज, बिखेर गई बीज। उसके बाद होली तक त्यौहारों की लड़ी चलती है इसलिए कहा जाता है कि आ गई होली, भर ले गई झोली। सावन के महीने में आने वाले तीज पर्व से ही महिलाओं के कंठ से पारंपरिक मंगल गीतों की जो स्वर लहरियां निकलती थी, उन्हे सुनने के लिए आज हर किसी के कान तरस जाते हैं। तीज की इन परंपराओं से महिलाओं की नई पीढ़ी ने तो बिल्कुल किनारा कर लिया है। उम्र दराज महिलाओं के लिए ये परंपराएं अब यादों से ज्यादा कुछ नही है। डेढ़ दशक पहले तक गांवों के साथ-साथ शहरों में भी तीज का पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता था, लेकिन अब वह बात नहीं। तीज पर्व से पखवाड़ा पहले ही पेड़, पुराने मकानों की चौखट व अन्य स्थानों पर युवतियां पींगें डालकर झूला झूलती नजर आती थी। महिलाओं में यह भी होड़ रहती थी कि किसकी पींग सबसे ऊंची होगी, लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध ने प्राचीन संस्कृति को पीछे छोड़ दिया है। जो महिलाएं जिंदगी के 60 से ज्यादा बसंत देख चुकी है, उनके मन में तीज की बहार आज भी जीवित है। इन महिलाओं के जीवनकाल से जुड़ा अनुभव बताता है कि उस समय की तीज की परंपराओं और आज के दौर में कितना अंतर आ चुका है।
मन में बसी है यादें
उम्रदराज महिलाओं के मन में सावन की झूलों की सिर्फ यादें ही रह गई हैं। 65 वर्षीय नई बस्ती निवासी कमला देवी कहती हैं कि वैसे तो अब किसी भी त्यौहार पर पुरानी परंपराएं नहीं दिखती। अब पहले जैसा माहौल नहीं रहा। सावन आते ही झूले डल जाते थे। तीज पर्व से कई दिन पहले महिलाओं की टोलियां गीतों के बीच झूला झूलती थी, लेकिन आज जीवन शैली ऐसी हो गई है कि पुरानी परंपराएं पीछे छूट रही है। महिलाओं और लड़कियों के लिए कानूनी रूप से सुरक्षित माहौल न होना भी परंपराओं के छूटने की एक वजह है। लालचंद कालोनी निवासी लक्ष्मी देवी का कहना है कि आज सास-बहु, ननद-भाभी, देवरानी-जेठानी के रिश्तों में पहले जैसी मिठास नहीं रही। खुद का जीवन सुविधा युक्त और सुरक्षित जीने की चाह ने दूसरों को खुशी देने की इच्छाओं का तो गला ही घोंट दिया है। आज आधुनिक दौर है। भागदौड़ भरी जिंदगी में परंपराओं के लिए समय ही नही रहा। वहीं 55 वर्षीय शीला देवी कहती है कि सामाजिक तानाबाना भी पहले जैसा नहीं रहा। वैसे भी झूला डालने के लिए अब वे भारी भरकम पेड़ नहीं रहे और न ही परंपराओं को निभाने की किसी के पास फुर्सत है।