चार माह में नहीं चले चार कदम
शैलेंद्र गौतम, झज्जर
इसे कहते हैं चिट भी मेरी और पट भी। गरीब अपनी पत्नी को डिलीवरी कराने के लिए सरकारी अस्पताल में ले तो गया पर उसे यह नहीं पता था वह दिन दहाड़े लूट जाएगा। नर्स ने उसे सरकारी टीका पैसे लेकर दिया तो एंबुलेंस भी पैसे देकर ही मिली। बात जब ऊपर तक पहुंची तो पहे दोषी स्टाफ को दूसरी जगह पर तैनात कर दिया गया। जांच में जब साबित हो गया कि स्टाफ ने पैसे लिए थे तो डांट डपट कर पैसे पीड़ित को वापस करा दिए गए और दोनों पक्षों का समझौता करा दिया गया। 14 दिनों बाद दोषी स्टाफ को फिर से पुरानी जगह भेज दिया गया। सिविल सर्जन डा. रमेश धनखड़ ने कहा था कि मामले की जांच जारी है और कड़ा एक्शन लिया जाएगा। चार माह बाद भी जांच पूरी नहीं हो सकी है। एनआरएचएम के प्रभारी डॉ. अशोक शर्मा से जांच रिपोर्ट जानने के लिए तीन बार फोन पर संपर्क साधा गया लेकिन फोन पर जवाब नहीं मिला। अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक आम आदमी उनसे किस तरह से संपर्क साध सकता है।
मातनहेल के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में यह घटना हुई थी। खेतावास गांव में रहने वाला सुनील की पत्नी मंजू को बच्चा होना था। रविवार 15 दिसंबर को सुबह पांच बजे वह अपनी पत्नी को स्वास्थ्य केंद्र में ला गया। जैसे ही उसने वहां संपर्क किया उसी समय से जेब काटने का सिलसिला शुरू हो गया। सबसे पहले एंबुलेंस चालक सतपाल ने उससे दो सौ रुपये ऐंठ लिए। जबकि एंबुलेंस मुफ्त है। सुबह 9 बजकर 44 मिनट पर मंजू ने एक लड़के को जन्म दिया। डिलीवरी कराने की एवज में स्टाफ नर्स रेणु ने कथित तौर पर तीन सौ रुपये वहीं ले लिए। यह सेवा भी मुफ्त देने का दावा सरकार करती है। उसके बाद सफाई कर्मी ने भी दो सौ रुपये मेहनताना के तौर पर वसूल कर लिए। सिलसिला यही पर नहीं रुका, सुनील ने अपनी शिकायत में कहा कि स्टाफ नर्स ने उसे उसकी पत्नी का ब्लड ग्रुप बताया। उसे ठीक करने की एवज में एक इंजेक्शन मंजू को लगाया गया। उसके लिए 34 सौ रुपये वसूल किए। इंजेक्शन अस्पताल के स्टोर से ही मंगवाया गया था। सरकार जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम के तहत सरकारी अस्पताल में डिलीवरी कराने वाली महिला को सौ रुपये का खाने का सामान मुफ्त देती है। लेकिन मंजू को कुछ भी नहीं दिया गया। 11 बजे उसे वहां से रवाना कर दिया गया। वहां के स्टाफ ने उससे यह भी कहा कि अगर वह बड़े सरकारी अस्पताल में गया तो उसकी पत्नी की पेट काट दिया जाएगा। बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। शिकायत करने के अगले दिन सुनील के घर पर चार पांच लोग आए और जबरन उससे खाली कागज पर दस्तखत कराकर ले गए। उसने इस बात की शिकायत पुलिस को भी दी थी। लेकिन फिर पंचायती दबाव डालकर समझौता करा दिया गया।
खास बात है कि जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम के तहत डिलीवरी का सारा काम सरकारी अस्पताल में मुफ्त होता है लेकिन सुनील का केस देखा जाए तो स्वास्थ्य केंद्र के कर्मी मुफ्त सेवा को आमदनी का साधन बना रहे हैं। झज्जर में 89 फीसद डिलीवरी संस्थागत हो रही हैं। इनमें अधिकांश सरकारी अस्पतालों में कराई जा रही हैं। इस केस को देखकर लगता है कि इस सेवा को भी पैसा कमाने का जरिया बना लिया गया है। जब मामला सामने आया भी तो केवल 14 दिनों के लिए दूसरी जगह पर काम कराकर गोलमाल करने वाले स्टाफ को वापस भेज दिया गया। इस मामले में कड़ी कार्रवाई होती तो स्वास्थ्य कर्मी अपने काम को संजीदगी से लेते पर जांच के नाम पर केवल कागज काले हो रहे हैं तो एक्शन के नाम पर महज खानापूर्ति की जा रही है।