विलायती बबूल खा गया अरावली की हरियाली
सत्येंद्र ¨सह, गुरुग्राम : 'बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय'.. संत कबीर के दोहे की यह पंक्ति विलायत
सत्येंद्र ¨सह, गुरुग्राम : 'बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय'.. संत कबीर के दोहे की यह पंक्ति विलायती बबूल की पूरी कहानी बयां कर देती है। अंग्रेजी राज में विलायती बबूल हरियाली बढ़ाने के लिए लगाया गया था, लेकिन आज यह नासूर बन गया है। गुरुग्राम सहित कई जिला को भूकंप से सुरक्षित रखने वाली अरावली पहाड़ी में विलायती बबूल (कीकर व इजराइली बबूल भी कहते हैं)के दंश को झेल रही है।
यह पेड़ जैव विविधिता के लिए बड़ा खतरा है बल्कि पर्यावरण पर भी बोझ बन गया है। विलायती बबूल देशी पेड़-पौधों की कई प्रजातियों को खत्म कर चुका है। अगर इसे समय रहते नहीं मिटाया गया तो देशी पेड़-पौधों की रही-सही प्रजातियां भी खत्म हो जाएंगी। यही नहीं अरावली क्षेत्र में जल संकट और गहरा सकता है, वायु प्रदूषण भी बढ़ जाएगा। सरकार ने कीकर व मस्कट को पेड़ को प्रतिबंधित पेड़ों की सूची से बाहर कर दिया था हालांकि आलोचना के बाद इस निर्णय को वापिस ले लिया है।
कांटे उगाने में करोड़ों हुए खर्च : दक्षिणी हरियाणा मे नूंह, गुरुग्राम, नारनौल, रेवाड़ी व भिवानी जिलों में फैली अरावली की पहाड़ियों को हराभरा करने के लिए विलायती बबूल उगाए गए। विश्व बैंक से करीब 600 करोड़ रुपये की सहायता ली गई। अरावली में हेलीकाप्टर से ही बीज बिखेर दिया गया। इस पेड़ की सबसे बड़ी खासयित यह है कि मामूली से पानी से ही ये हराभरा हो जाता है। वन विभाग के अधिकारियों ने पानी देने की परेशानी से बचने के लिए इस वनस्पति को ही लगाकर पूरा पैसा खर्च कर दिया।
गुरुग्राम में अरावली पहाड़ी सोहना से शुरू होकर रायसीना, टीकली, गैरतपुर बांस, शिकोहपुर, मानेसर व कासन तक फैली है। इसके साथ ही दमदमा, रिठौज, बहल्पा व कादरपुर तक है। पहाड़ियों में विलायती बबूल व धौं, ढ़ाक के पेड़ के अलावा दूसरे पेड़ नही है। धौं में लगने वाला फूल कई दवाइयों में काम आता है। विलायती बबूल किसी भी काम नही आता। इसके झाड़ अन्य पेड़ों को भी नष्ट कर देते हैं, वहीं जंगली जानवर भी कांटे से घायल होते हैं।
अरावली की पहाड़ियों से बारिश के पानी के साथ बहकर किसानों की जमीन तक भी आ पहुंचा। निचले इलाके में भी यह पेड़ काफी संख्या में हो गए। पर्यावरण विशेषज्ञ विवेक कंबोज कहते है कि दक्षिणी हरियाणा में अरावली का लगभग 1, 00,000 हेक्टेयर क्षेत्र है। हालांकि अरावली का दस फीसदी हिस्सा भी वनक्षेत्र नहीं है। वन विभाग को अरावली में विलायती बबूल के अलावा दूसरे पेड़ लगाने चाहिए। अरावली में दूसरे तरह के पेड़ लगाए जा सकते है, जिससे सरकार को कई तरह के फायदे हो सकते हैं।
इसकी हरियाली के फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं। जिस जमीन पर यह पैदा होता है वहां कुछ और नहीं पनपने देता। इसकी पत्तियां छोटी होती हैं। इसका पर्यावरण की ²ष्टि से भी कोई उपयोग नहीं है। बहुत कम कार्बन सोखता है।
-राजेश वत्स, पर्यावरण विशेषज्ञ।
पक्षी हुए कम
विलायती बबूल से पक्षियों की प्रजातियां भी काफी कम हो गई हैं। पहले करीब 450 प्रजातियां थी जो घटकर केवल 100 रह गईं। सरकार को इसे खत्म करने के लिए अविलंब कदम उठाने चाहिए। विलायती बबूल हटा कर देशी प्रजातियों के पौधे लगाए जाएं। इससे प्रदूषण भी कम होगा।
यह है प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा
बिलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा है। यह मूलरूप से दक्षिण और मध्य अमेरिका तथा कैरीबियाई देशों में पाया जाता था, 1870 में इसे भारत लाया गया था।
हरियाणा देश में दूसरे सबसे कम वन क्षेत्र में आता है। अधिकांश वन क्षेत्र दक्षिण हरियाणा और उत्तर में शिवालिक में है। कम वन क्षेत्र और अरावली पहाड़ियों की महत्वता को देखते हुए अरावली को किसी भी कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए।
-चेतन अग्रवाल, पर्यावरण विश्लेषक
हरियाणा में ये हैं जंगल के हालात
शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र : पंचकूला, अंबाला, यमुनानगर जिले। तीन हजार पांच सौ चौदह वर्ग किलोमीटर में फैली है पहाड़ियां। पंचकुला के मोरनी और ¨पजौर में है 45 फीसद हिस्सा।
अरावली पहाड़ी क्षेत्र : दिल्ली, दिल्ली से सटे गुरुग्राम, फरीदाबाद और नूंह जिला। गुरुग्राम में 11,256 हेक्टेयर, फरीदाबाद, नूंह में 49,330 हेक्टेयर में अरावली की पहाड़ियां हैं।
अरावली की पहाड़ियों में पर्यावरण के अनुकूल पौधे लगा उन्हें संरक्षित किया जाएगा। इसके लिए एक पुख्ता प्लान बनाया जाएगा।
-राव नरबीर ¨सह, वन मंत्री हरियाणा।