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हलधर.. हक.. हैसियत.. और हुंकार

- प्रदेश में स्टेटस सिंबल रही जमीन के अधिग्रहण संबंधी अध्यादेश किसानों के लिए दोधारी तलवार - विकास

By Edited By: Published: Sat, 28 Feb 2015 01:01 AM (IST)Updated: Sat, 28 Feb 2015 01:01 AM (IST)
हलधर.. हक.. हैसियत.. और हुंकार

- प्रदेश में स्टेटस सिंबल रही जमीन के अधिग्रहण संबंधी अध्यादेश किसानों के लिए दोधारी तलवार

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- विकास में सहायक हुई है मुआवजा देकर किसानों से ली गई जमीन

प्राइम इंट्रो :

मोदी सरकार का बहुचर्चित भूमि अधिग्रहण संबंधी अध्यादेश भले ही अभी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंचा हो .. बेशक सरकार विधेयक लाने से पहले किसानों से रायशुमारी के लिए विवश हो .. लेकिन हलधर किसान अपनी जमीन पर अपना ही मालिकाना हक मानते हैं। हक पर हस्तक्षेप उन्हें कतई मंजूर नहीं। यही नहीं, लगातार घटती जोत के बावजूद जमीन उनकी हैसियत का परिचायक है। जाहिर है कि हक और हैसियत को लेकर किसानों के मन में तमाम आशंकाएं सिर उठा रही हैं। किसानों की सहमति बगैर भूमि अधिग्रहण को वे इसीलिए नाजायज भी करार दे रहे हैं। हालांकि भूमि अधिग्रहण का सकारात्मक व सुखद पक्ष भी है। कहना ना होगा कि इससे विकास को सुदृढ़ जमीनी आधार मिल रहा है। इसका तात्पर्य यह कि निश्चित तौर पर इसका दूरगामी लाभ नई पीढ़ी को मिल पाएगा। फतेहाबाद जिले में भी सैकड़ों एकड़ अधिग्रहीत भूमि पर विकास की नई इबारत या तो लिखी गई है या फिर लिखी जा रही है। प्रस्तुत है, मणिकांत मयंक की रिपोर्ट :

जागरण संवाददाता, फतेहाबाद

इन दिनों हॉट मुद्दा भूमि अधिग्रहण के किसी पक्ष पर चर्चा करने से पहले हम इसके सामाजिक पहलू पर गौर करते हैं। मिसाल के तौर पर टोहाना खंड के एक गांव में हुए जमीनी विवाद पर लेते हैं। करीब चार साल पहले यहां जमीन को लेकर झगड़े में अपनी मां व भतीजी की हत्या कर दी थी। वह उम्रकैद काट रहा है। यह उदाहरण मात्र है। पिछले दो साल के आपराधिक आंकड़े बताते हैं कि जमीन विवाद में हत्या व हत्या के प्रयास के आधा दर्जन मामले विभिन्न थानों में दर्ज हैं।

इन आपराधिक मामलों पर सरकारी महिला कॉलेज की समाजशास्त्री डॉ. नीलम दहिया हैरानी नहीं जताती हैं। वह कहती हैं कि हरियाणा में जमीन के साथ सोशल स्टेटस जुड़ा हुआ है। समाज में यह धारणा बनी हुई है कि मनमाने ढंग से अधिग्रहण होने की सूरत में स्टेटस खतरे में आ जाएगा। हालांकि यह भी सच है कि मुआवजे की राशि से लोगों ने अपनी हैसियत बढ़ाई भी है। किसानों के बीच यह धारणा गहरी पैठ बना चुकी है कि उनकी जमीन पर उनका ही हक है और अधिग्रहण से पहले सरकार को किसानों से सहमति ली जानी चाहिए।

सच्चाई का अहम पक्ष यह कि अकेला फतेहाबाद जिले में अधिग्रहीत जमीन विकास के पथ पर अग्रसर भारतीय अर्थव्यवस्था को आधारभूत संरचना देने में सहायक रही है। मिसाल के तौर पर जिले के गांव गोरखपुर में 20,594 करोड़ की अनुमानित लागत वाली न्यूक्लियर पावर प्लांट की आधारशिला रखी गई है। इसके अतिरिक्त अनाज मंडी, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट, जलघर, माइनर आदि के निर्माण के लिए भी भूमि अधिग्रहण हुआ है। बेशक, इसके बदले मुआवजा राशि भी दी गई है।

इन तमाम सच्चाइयों के बीच आक्रोश का प्रमुख कारण वर्तमान सरकार की ओर से किसानों की सहमति का पक्ष हटाना है। किसान संगठनों का भी मानना है कि बगैर सहमति किसानों की भूमि का अधिग्रहण नाजायज है और हलधर की हुंकार का अहम कारण भी।

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पिछले पांच साल में अधिग्रहीत भूमि

वर्ष जमीन(एकड़ में)

2009 0.34

2010 26.15

10.862

2011 99.775

40.54

16.20

12.868

0.63

2012 1312.768

185.13

4.5

79.95

1.85

0.281

0.981

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अदालतों में एक दर्जन मामले

किसानों के आक्रोश को इस रूप में समझा जा सकता है कि भूमि अधिग्रहण से मिली मुआवजा राशि व अन्य बातों को लेकर अदालतों का दरवाजा भी खटखटाया जा चुका है। विभिन्न अदालतों में करीब एक दर्जन मामले चल रहे हैं।

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सकारात्मक-नकारात्मक दोनों प्रभाव : कथूरिया

अर्थशास्त्री कृष्ण कुमार कथूरिया कहते हैं कि भूमि अधिग्रहण नीति का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव होता है। इसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू होते हैं। जब विदेशी पूंजी निवेश, उद्योग-व्यापार एवं रोजगार की बात आती है तो निश्चय ही इनकी आधारभूत संरचना के लिए भूमि चाहिए। यह तो अधिग्रहण से ही संभव है। हां, यह अलग बात है कि जोत कम रह जाने के कारण छोटे किसान संकट में पड़ जाएंगे। ये सड़क पर आ जाएंगे।

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समाज पर प्रतिकूल असर : डॉ. दहिया

समाजशास्त्री डॉ. नीलम दहिया कहती हैं कि जमीन हाथ से निकल जाने पर सोशल स्टेटस ही खत्म हो जाएगा। यहां का समाज कृषि आधारित रहा है। इसलिए जमीन अधिग्रहीत हो जाने से समाज में बेरोजगारी का दानव सिर उठाएगा। बेरोजगारी होगी तो निश्चित तौर पर क्राइम का ग्राफ बढ़ेगा।

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किसानों की सहमति हो : पूनिया

किसान सभा के प्रांतीय संयुक्त सचिव दयानंद पूनिया कहते हैं कि केंद्र सरकार का अध्यादेश गलत साबित होगा। उनका मानना है कि बेशक, पिछली सरकार की नीति भी ठीक नहीं थी लेकिन इससे तो वही अच्छी थी जिसमें कम से कम 80 फीसद किसानों की सहमति का प्रावधान था। निश्चय ही किसानों की सहमति अनिवार्य होनी चाहिए।

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कोढ़ में खाज होगा : गोरखपुरिया

समाजसेवी व किसान नेता कृष्ण स्वरूप गोरखपुरिया कहते हैं कि पिछले नौ माह में खेती की दुर्गति हुई है। कपास-धान आधा रह गया है तो खाद की जबरदस्त किल्लत रही है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू नहीं की गई है। ऐसे में, वर्तमान सरकार का अध्यादेश कोढ़ में खाज समान है।

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जमीन किसान की, सरकार मालिक : रामसिंह गिल्लांखेड़ा

नब्बे एकड़ जमीन के स्वामी व जीटी रोड पर सरकार को करीब पांच एकड़ जमीन दे चुके रामसिंह गिल्लांखेड़ा का मानना है कि जिस तरह सरकार अध्यादेश ला रही है, उससे तो किसान की जमीन पर सरकार ही मालिकाना हक लेकर बैठ जाएगी। व्यापारिक घरानों को लाभ पहुंचाने वाली सरकार किसान विरोधी रवैया रखती है। यह अध्यादेश नाजायज है।

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अंग्रेजी शासन की याद आती है : डिंपल चौधरी

प्रगतिशील किसान डिंपल चौधरी केंद्र सरकार के अध्यादेश के प्रावधानों पर विरोध जताते हैं। उनका कहना है कि इससे तो अंग्रेजी शासन की याद आती है। किसानों की मर्जी के बिना जमीन छीनना गलत होगा। यह काला कानून होगा। इतने दिनों में किसानों के हित में सरकार ने अच्छा फैसला नहीं लिया तो कम से कम गलत फैसला ता ना ले।


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