यह व्रत सब व्रतों में उत्तम अर्थात सब पापों से मुक्त कराने वाला है
आमलकी या रंगभरी एकादशी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। यह सब पापों का नाश करता है। इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ होता है |
पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार फाल्गुन मास की शुक्ल एकादशी का बड़ा महत्त्व दिया जाता है| इस एकादशी को रंगभरी एकादशी एवं आमलकी एकादशी कहते हैं| इस एकादशी की विशेषता के 3 मुख्य कारण हैं| पहले मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के पश्चात पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आये थे | यह पर्व काशी में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का प्रतिक है| दूसरी मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने सृष्टि की हेतु ब्रह्मा जी एवं आंवले के वृक्ष को जन्म दिया था। और अंत में आखिरी मान्यता के अनुसार इसी दिन श्याम बाबा का मस्तक अर्थात शीश पहली बार श्याम कुंड में प्रकट हुआ था| इसलिए इस दिन लाखो श्याम भक्त श्याम दर्शन हेतु खाटू जाते है|
फाल्गुन मास को मस्ती और उल्लास का महीना कहा जाता है। इसके कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को वैद्यनाथ जयंती तथा चतुर्दशी को महाशिवरात्रि काशी विश्वनाथ का उत्सव होता है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष क
फाल्गुन मास को मस्ती और उल्लास का महीना कहा जाता है। इसके कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को वैद्यनाथ जयंती तथा चतुर्दशी को महाशिवरात्रि काशी विश्वनाथ का उत्सव होता है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी रंगभरी होती है। दरअसल इस एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। लेकिन फाल्गुन माह में होने के कारण और होली से पहले आने वाली इस एकादशी से होली का हुड़दंग या कहें एक-दूसरे को रंग लगाने की शुरुआत होती है, इसलिए इसे रंगभरी एकादशी भी कहा जाता है। इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है और अन्नपूर्णा की स्वर्ण की या चांदी की मूर्ति के दर्शन किए जाते हैं।
आमलकी या रंगभरी एकादशी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। यह सब पापों का नाश करता है। इस वृक्ष की उत्पत्ति भगवान विष्णु द्वारा हुई थी। इसी समय भगवान ने ब्रह्मा जी को भी उत्पन्न किया, जिससे इस संसार के सारे जीव उत्पन्न हुए। इस वृक्ष को देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ, तभी आकाशवाणी हुई कि महर्षियों, यह सबसे उत्तम आंवले का वृक्ष है, जो भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है। इसके स्मरण से गौ दान का फल, स्पर्श से दो गुणा फल, खाने से तीन गुणा पुण्य मिलता है। यह सब पापों का हरने वाला वृक्ष है। इसके मूल में विष्णु, ऊपर ब्रह्मा स्कन्ध में रुद्र, टहनियों में मुनि, देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण एवं फलों में सारे प्रजापति रहते हैं।
व्रत की विधि: व्रती प्रात:काल स्नान एवं संकल्प करके एकादशी व्रत करें। इस दिन परशुराम जी की सोने या चांदी की मूर्ति बनाकर पूजा और हवन करते हैं। इसके उपरान्त सब प्रकार की सामग्री लेकर आंवला (वृक्ष) के पास रखें। वृक्ष को चारों ओर से शुद्ध करके कलश की स्थापना करनी चाहिए और कलश में पंचरत्न आदि डालें। इसके साथ पूजा के लिए नया छाता, जूता तथा दो वस्त्र भी रखें। कलश के ऊपर परशुराम की मूर्ति रखें। इन सबकी विधि से पूजा करें। इस दिन रात्रि जागरण करते हैं। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक कथा वार्ता करके रात्रि व्यतीत करें। आंवले के वृक्ष की 108 या 28 बार परिक्रमा करें तथा इसकी आरती भी करें। अन्त में किसी ब्राह्मण की विधि से पूजा करके सारी सामग्री परशुराम जी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि दान कर दें।
इसके साथ विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन करवाएं और इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। सम्पूर्ण तीर्थो के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, यह सब उपयुक्त विधि इस एकादशी के व्रत का पालन करने से सुलभ होता है। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है अर्थात् सब पापों से मुक्त कराने वाला है। इस दिन इन बातों का व्रती को ध्यान करना चाहिए कि बार-बार जलपान, हिंसा, अपवित्रता, असत्य-भाषण, पान चबाना, दातुन करना, दिन में सोना, मैथुन, जुआ खेलना, रात में सोना और पतित मनुष्यों से वार्तालाप जैसी ग्यारह क्रियाओं को नहीं करना चाहिए।
भारतीय उत्सवों में स्वास्थ्य की पैनी दृष्टि भी दिखती है। फाल्गुन में विषाणु प्रबल हो जाते हैं, अत: उनसे लड़ने, उनका प्रतिकार करने के लिए अग्नि (होलिका) जलाना, रंग उड़ाना, रंग पोतना और नीम का सेवन आनन्द तो देते ही हैं, साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा भी करते हैं। इस दिन से मित्रता एवं एकता पर्व आरम्भ हो जाता है। यही इस व्रत का मूल उद्देश्य एवं संदेश है।
काशी में रंगभरी एकादशी
फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है | इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है | प्रतिवर्ष श्री काशी विश्वनाथ का भव्य श्रृंगार रंगभरी एकादशी, दीवाली के बाद अन्नकूट तथा महा शिवरात्रि पर होता है | पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के उपरान्त पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आये थे | इस पुनीत अवसर पर शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में लायी जाती हैं और बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाध्ययंत्रो की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर अपनी जनता, भक्त, श्रद्धालुओं का यथोचित लेने व आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते है | यह पर्व काशी में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का भी सूचक है | जिसमे उनके गण उन पर व समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाते, खुशियाँ मानते चलते है | जिसमे सभी गलियां रंग अबीर से सराबोर हो जाते है और हर हर महादेव का उद्गोष सभी दिशाओ में गुंजायमान हो जाता है और एक बार काशी क्षेत्र फिर जीवंत हो उठता है जहाँ श्री आशुतोष के साक्षात् होने के प्रमाण प्रत्यक्ष मिलते है | इसके बाद श्री महाकाल श्री काशी विशेश्वेर को सपरिवार मंदिर गर्भ स्थान में ले जाकर श्रृंगार कर अबीर, रंग, गुलाल आदि चढाया जाता है | इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिन तक चलता है |