कई मायनों में खास है पुरानी दिल्ली की होली
हास-परिहास, हंसी-ठिठोली, व्यंग्य, रूठना मनाना, रसिया के मीठे सुर की मिठास और सभी का साथ होली के रंगों को और प्यारा व चटख बना देता वहै।
चांदनी चौक की गलियों में टेसू के फूलों की बोरियां सज गई हैैं। यहां के बाजारों में रंग, पिचकारियां, गुलाल, गुब्बारे होली की मस्ती का अहसास कराने लगे हैैं। पुरानी दिल्ली की होली कई मायनों में खास रही है क्योंकि यहीं पर कभी बादशाह होली खेलने आया करते थे। इसका जिक्र कई लेखकों और इतिहासकारों ने अपने लेखों में किया है। एलेक्स रुथर फोर्ड की किताब की पांच वॉल्यूम में बादशाहों की होली का जिक्र आता है। पांचों मुगल बादशाहों ने होली के मौके पर हिंदुओं के पर्व में शिरकत की। अकबर के महल में सोने चांदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर में टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे।
बहादुरशाह जफर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएं आज तक सराही जाती हैं। मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।
-भगीरथ पैलेस से गधा यात्रा :
पुरानी दिल्ली की गलियां होली के दिन हंसी-ठिठोली, रंग-गुलाल के पर्व के उल्लास से लबरेज होती हैं। इस दिन यहां महा मूर्ख सम्मेलन का आयोजन करने की परंपरा हुआ करती थी। पहले इस आयोजन का मिजाज पर्व के रंगों की मस्ती में घुला होता था। इस आयोजन में दूर दूर से हास्य व्यंग्य लेखक, साहित्यकारों को यहां बुलाया जाता था। साल 1970-80 के दशक के बीच भगीरथ पैलेस से गधा यात्रा भी निकाली जाती थी। इस यात्रा में कई साहित्यकार भी भाग लेते थे, उन्हें खासतौर पर आमंत्रित किया जाता था। महा मूर्ख यात्रा में लोग बैलगाडिय़ों में सवार हो कर भगीरथ पैलेस से यात्रा शुरू हुआ करता था। ढोल मंजीरे के साथ रसिया, फगुआ गाते हुए, हास्य कविताएं सुनाते हुए टोली निकला करती थीं। यात्रा फतेहपुरी चौक से होते हुए, फल सब्जी मार्केट, कटरा से गुजरा करती थी। इस बीच लोग हर गली कूचों में ठंडाई, मिठाइयां लेकर स्वागत के लिए खड़े रहते थे। लोग घरों से गुलाल उड़ाते थे। बच्चे रंग भरे गुब्बारे मारा करते थे। सुरों की इस यात्रा में राग और रंग कुछ इस तरह घुल मिल जाया करते थे कि दिन तमाम हो जाता था लेकिन मस्ती नहीं। इस सम्मेलन में महा मूर्ख की उपाधी से भी नवाजा जाता था, इनाम के तौर पर गधे की मूर्ति भेंट की जाती थी। अब भी इस तरह के कार्यक्रम चांदनी चौक में आयोजित हो रहे हैैं और होली की मस्ती से लोगों को सराबोर कर रहे हैैं।
अशोक चक्रधर, साहित्यकार
-जमती थी होली की टोली :
चालीस साल पहले होली रूठने मनाने का पर्व हुआ करता था। जिनसे नाराजगी हुआ करती थी उनके घर पर मिट्टी जरूर डालकर आते थे। दिल्ली में मॉडल टाउन व तिमारपुर, डीयू के कैंपस में होली बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती थी। खासकर लेखकों और साहित्यकारों के घरों में बैठकें होती थीं और होली पर रची गई कविताओं और गीतों की बात होती थी। कैंपस में प्रसिद्ध लेखक नामवर सिंह,साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी, सर्वेश्वर दयाल सबके घरों में जाकर उन्हें बधाई दी जाती थी। उस समय होली में मिलना जुलना सिर्फ के रस्म अदायगी भर नहीं थी। घरों में पकाए जाने वाले पकवान खाने को मिलते थे। होलिका दहन की रात सभी लोग अपने अपने घरों से उपले लेकर आते थे। हरे चने, गेहूं की बालियों को भूनकर खाया भी जाता था। पकौडिय़ों के साथ होली का स्वागत किया जाता था। पत्रकारों के लिए तो होली वाले दिन सभी से मिलने मिलाने का होता था। तब प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति के घर पर जाना मुश्किल नहीं हुआ करता था। बड़े स्नेह के साथ मंत्री,राजनेता रंग लगाते और होली की मस्ती में रंगे दिखते थे।
सुधीश पचौरी, साहित्यकार
-चटकीले-तीखे रंग :
दिल्ली की शाहजहांबादी मुगलिया होली जो चटकीले और तीखे रंग उस समय हुआ करते थे आज भी उनकी शोखी में कमी नहीं आई है। दिल्ली की शानदार होली का प्रथम वर्णन मिलता है 'आईन-ए-अकबरीÓ मेंऌ जिसमें अकबर शहंशाह के समय की सुन्दर होली-ठिठोली का सटीक वर्णन है। पुस्तक में लिखा है कि जन जीवन में रंग घोलने वाली होली का उत्सव मुगल सम्राट अकबर के जमाने में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। होली के आगमन माह से ही राज महल में होली खेलने की तैयारियां शुरू हो जाती। जगह-जगह सोने-चांदी के ड्रम रखे जाते जिनमें एक शुभ अवसर पर रंग घोला जाता। यह रंग महल के आस-पास उगे टेसू के पेड़ों को छांटकर एक विशेष मात्रा में नाप कर बनाए जाते थे। अकबर की तरह ही जहांगीर,शाहजहां, हुमायूं, बहादुरशाह जफर आदि भी उसी जोर-शोर से होली मनाते थे। लाल किले के किला-ए-मुअल्ला में होली का खास जश्न मनता था। खासकर बहादुर शाह जफर सुबह-सवेरे से ही अपने हिन्दू-मुस्लिम उमरा के साथ लाल किले के झरोखे में आकर बैठ जाते और होली मनाने वाले विभिन्न समूह, स्वांग बनाने वाले, हुड़दंग मचाने वाले टोलियां बनाकर निकलते। बादशाह सभी से खुश-ओ-खुर्रम हो कर इनाम दिया करते थे। बहादुरशाह जफर एक ऐसे शायर रहे जिन्होंने होली की पारंपरिक फाग लिखी है। एक बंद हाजिर है 'क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी,/देखो कुंवर जी दूंगी मो गारी। उधर महेश्वर दयाल ने अपनी किताब 'आलम-ए-इंतेखाब' में लिखा है कि होली से पूर्व वसंत के आगमन पर देवी-देवताओं पर सरसों के फूल चढ़ाया जाना दिल्ली की प्राचीन परंपरा रही है। होली के रसिया पर्व से दो सप्ताह पूर्व ही ढाक और टेसू के फूलों को पानी से भरे मटके में डालकर चूल्हे पर चढ़ा देते ताकि पानी उबलने पर फूलों के रंग से पानी गेरूआ हो जाए। होली के मतवाले, मस्त कलंदर गली-गली, कूचे-कूचे घूमते फिरते थे।
-दिल्ली और होली की यादें :-
-सरदारनी के साथ खेली थी पहली होली :
.अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली में भवनों का निर्माण करने वाले सुजान सिंह के बेटे और 'दिल्लीÓ नामक उपन्यास के लेखक खुशवंत सिंह 'मेरे साक्षात्कारÓ पुस्तक में बताते हैं कि मैंने तो होली पहली बार दिल्ली आकर मॉडर्न स्कूल में ही मनाई।5-6 साल का था, जब गांव से दिल्ली आया। तब मॉडर्न स्कूल दरियागंज में था। उस वक्त इस स्कूल को बनाने वाले लाला रघुवीर सिंह के घर पर होली खेली जाती थी। पहली बार जिस लड़की के साथ मैंने होली खेली, वह एक सरदारनी ही थी। नाम था कवल। यह भी मेरे साथ ही उसी स्कूल में पढ़ती थी। बाद में वह मेरी पत्नी बनी। इतना ही नहीं, वे अपने समय के मौसम का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि होली के दिनों में मौसम सबसे अधिक सुहावना होता है। परिंदे अपने घोंसले बनाने में जुटे होते हैं। फूलों पर बहार आई होती है। दिल्ली में इतने फूल कभी खिले ही नहीं दिखते, जितने होली के मौसम में। विशेष रूप से टेसू या पलाश अपने पूरे यौवन का होता है। पलाश के फूलों का होली का विशेष संबंध है।
-राष्ट्रपति भवन में रूपको का आयोजन :
.1955 से 1962 तक आकाशवाणी में काम करते हुए हिंदी की लोकप्रियता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले आइएएस अधिकारी और नाटककार जगदीशचंद्र माथुर अपनी पुस्तक 'जिन्होंने जीना जानाÓ में लिखते हैं कि होली पर राष्ट्रपति भवन में संगीत और रूपकों का आयोजन मुझे करना होता था। मुगल गार्डन में अतिथियों और औपचारिकता से घिरे राजेंद्र बाबू को मैंने भोजपुरी में होली के लोक-संगीत पर झूमते देखा। वे लिखते हैं कि राष्ट्रपति भवन की दीवारें मानों गायब हो जाती, दिल्ली का वैभव भी। उत्तरदायित्व का भार भी। सुदूर भारत जिले के देहात की हवा मस्ततानों को लिए आती और ग्रामीण हृदयों का सम्राट अपनेपन को पाकर विभोर हो जाता।
-एक पता ये भी :
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी अपनी पुस्तक 'दृष्टिकोण ब्लाग पर बातेंÓके मेरा निवास और होली लेख में लिखते हैं कि मुझे याद आता है कि 1970 के शुरुआती दशक में एक अंग्रेजी अखबार के मैगजीन सेक्शन में होली पर अनेक लेख प्रकाशित हुए थे। उनमें से एक लेख का शीर्षक था-दिल्ली में होली के दिन आपको इन स्थानों पर जाने से नहीं चूकना चाहिए। उस लेख में एक पता दिया गया था सी-1/6, पंडारा पार्क। उल्लेखनीय है कि आडवाणी पहली बार सांसद बनने के बाद से उप प्रधानमंत्री बनने तक पंडारा पार्क में ही रहे।
-अब कहां वो उत्साह :
हिंदी साहित्यकार लेखक मनोहर श्याम जोशी 80 के दशक की दिल्ली की होली पर'आज का समाजÓ पुस्तक में लिखते हैं कि जब तक दिल्ली में कुमाऊंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्वार्टरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं। इतना ही नहीं, राजधानी में होली के बहाने सामाजिक अलगाव पर गहरी टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि होली तो वैसे भी सामंतों के संरक्षण में होने वाला समाज के तथाकथित पिछड़े वर्गों का त्योहार माना जाता था। तो आज के महानगरों में होली का उत्साह कहीं नजर आता भी है तो झोपड़पट्टियों में ही। अपने मध्यमवर्गीय मोहल्ले में मैंने इधर होली का रंग वर्ष प्रतिवर्ष और अधिक फीका होता हुआ पाया है।
फिरोज बख्त अहमद, लेखक
-प्रस्तुति : विजयालक्ष्मी, नई दिल्ली