बरकरार है अभिव्यक्ति की आजादी
भारतीय सिनेमा के सौ सालों के सफर में गीतों की भूमिका और भारतीय समाज पर पड़ी इसकी छाप पर विचार व्यक्त कर रहे हैं प्रख्यात गीतकार प्रसून जोशी
नई दिल्ली। भारतीय सिनेमा ने 100 वर्षो का गौरवपूर्ण सफर पूरा किया है। इस पर मैं कहूंगा कि हम एक जन-मन में बसी संस्कृति का शताब्दी उत्सव मना रहे हैं। आज हम सिनेमा से अलग अपने समाज की कल्पना नहीं कर सकते। यह हमारे जीवन के हर हिस्से में शामिल है। फिर वह चाहे हमारे कपड़े पहनने का ढंग हो या बात-चीत करने का सलीका या बाल काढ़ने की अदा, सब पर सिनेमा की छाप दिखती है। इसका क्षेत्र केवल हिंदी भाषी दर्शकों तक सीमित नहीं है।
सिनेमा सिर्फ हमारा आईना ही नहीं है, यह हमें आकार भी देता है। एक ऐसे लेखक के तौर पर जो जीने के लिए लिखता है, मैंने गौर किया है कि किस प्रकार सिनेमा भाषा को प्रभावित करता है। समय के साथ हिंदुस्तानी बोली में जो उल्लेखनीय परिवर्तन आए हैं, उनका श्रेय हिंदी सिनेमा को ही जाता है। आज लोग अपनी रोजमर्रा की भाषा में ज्यादातर जिन कहावतों का इस्तेमाल करते हैं वह सिनेमा से ही अवतरित हैं। कितने ही शब्द एक-एक करके हमारे व्यक्तित्व से सिर्फ इसलिए जुड़ते गए क्योंकि हमने उन्हें फिल्मों में सुना। इसकी मुख्य वजह यह रही कि लेखकों ने संवाद कभी भी अभिनेता को केंद्र में रखकर नहीं लिखे। आम आदमी की छवि हमेशा उनकी कल्पनाओं में शामिल रही। हम दर्शकों के बोलने की शैली से प्रभावित होते हैं।
सिनेमा और भाषा का जुड़ाव 1930 में तब हुआ, जब सिनेमा हॉलों में दृश्यों के साथ गीत शामिल हुए। उस वक्त के गीतकारों में एक खूबी थी। वे बेहद सरल गीतों के जरिए गहरी बात कह देते थे। उनके गीतों में सांसारिक ज्ञान दिखता था। इक बंगला बने न्यारा, हर फिक्र को धुएं में, जिंदगी कैसी है पहेली और इक दिन मिट जाएगा माटी के मोल गीतों को ही लें, सबमें दर्शनशास्त्र की गहरी छाप दिखती है। उस वक्त की ज्यादातर आबादी निरक्षर थी, फिर भी वे इन गीतों से खुद को जोड़ पाई।
यह उस दौर के उन छिपे चेहरों वाले गीतकारों की उपलब्धि ही है कि हिंदी सिनेमा ने भाषायी बाधाओं को पार कर राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। मैंने दक्षिण के ऐसे तमाम उम्रदराज लोगों को देखा है जो ठीक से हिंदी बोल नहीं पाते, लेकिन अपने दौर के क्लासिक हिंदी गीतों को बड़े प्रेम से गुनगुनाते हैं। यहां तक कि हम संसद में भी बहुत से राजनेताओं को अपनी बात रखते समय गजलों की लाइनें इस्तेमाल करते हुए देखते हैं।
गीतों के जरिए भारतीय सिनेमा ने जो भी अर्जित किया वह आज भी हर जोनर के गीतों के साथ आगे बढ़ रहा है। निश्चित ही इसे लेकर मतभेद हो सकते हैं कि क्या स्वीकार करना चाहिए और क्या नहीं। बावजूद इसके आज आइटम नंबर और सूफी संगीत दोनों ही चलन में हैं क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी से आज भी कोई समझौता नहीं हुआ है। मेरे अनुसार, यह हमारे लिए गर्व की बात है।
शक्ति शेट्टी
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