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फ़िल्म रिव्यू: 'आत्मा' विहीन खोखला जिस्म 'घोस्ट इन द शेल'

फ़िल्म का प्लॉट पेचीदा और उलझा हुआ है। कहानी भागती और बिखरी हुई है, जो दर्शक को बांधकर नहीं रख पाती। संवाद बेतरतीब और दार्शनिक भाव लिए हुए हैं।

By मनोज वशिष्ठEdited By: Published: Thu, 06 Apr 2017 03:45 PM (IST)Updated: Fri, 07 Apr 2017 10:51 AM (IST)
फ़िल्म रिव्यू: 'आत्मा' विहीन खोखला जिस्म 'घोस्ट इन द शेल'
फ़िल्म रिव्यू: 'आत्मा' विहीन खोखला जिस्म 'घोस्ट इन द शेल'

मुख्य कलाकार: स्कारलेट जॉहेनसन, पीलू एस्बेक, ताकेशी कितानो, जूलिएट बिनोचे, माइकल पिट और चिन हान।

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निर्देशक: रूपर्ट सेंडर्स

रेटिंग: ** (दो स्टार)

हॉलीवुड फ़िल्मों में विज्ञान, भावनाओं और रोमांच का अद्भुत संगम अक्सर देखने को मिलता है। कल्पना की उड़ान से ऐसी दुनिया और बाशिंदे पैदा किए जाते रहे हैं, जो दर्शक को सोचने के लिए विवश कर देते हैं। घोस्ट इन द शेल इसी श्रृंखला की एक और कड़ी है। फ़िल्म की कहानी कई साल आगे के जापान में सेट की गई है, जहां साइबरनेटिक्स और मानवों के बीच अंतर करने वाली रेखा लगातार धुंधली हो रही है। एक चेतन मानव मस्तिष्क को सिंथेटिक मानवाकार ढांचे में स्थापित कर दिया जाता है और इसके बाद शुरू होता है एक्शन, रोमांच और ज़बर्दस्त ड्रामा का सफ़र। फ़िल्म आपको रोबोकॉप की याद दिला सकती है।

कहानी के केंद्र में मीरा किलियन नाम का महिला किरदार है, जिसे स्कारलेट जॉहेनसन ने निभाया है। एक भीषण दुर्घटना में मीरा मरणासन्न हालत में पहुंच जाती है, लेकिन वैज्ञानिक डॉ. ओवलेट (जूलिएट बिनोचे) उसे बचा लेता है। इसके लिए ओवलेट उसके मस्तिष्क या चेतना को रोबोटिक बॉडी में स्थानांंतरित कर देता है। मानवीय मस्तिष्क वाले रोबोटिक शरीर का इस्तेमाल एक सरकारी एजेंसी अपराध रोकने के लिए करती है। मेजर मीरा अपने पार्टनर के साथ एक हत्यारे की खोज में है, जो मीरा को बनाने वाली संस्था के वैज्ञानिकों को निशाना बना रहा है। 

इसी संघर्ष के दौरान मेजर मीरा किलियन को अपने अतीत के बारे में पता चलता है और यही इस कहानी का मुख्य बिंदु है। डायरेक्टर रूपर्ट सेंडर्स और स्क्रीन राइटर्स जैमी मॉस, विलियम व्हीलर और एहरेन क्रूगर ने भविष्य की दुनिया को विस्तार देने के लिए कल्पना का शानदार उपयोग किया है। कंप्यूटर से बनाई गई इमेजेज काफी असरदार और चमकदार हैं। हर एक फ्रेम में खाली जगहों को होलोग्राफिक इमेजेज से ढका गया है, जो काफी मज़ेदार लगते हैं, लेकिन इससे कथ्य को ज़्यादा असरदार बनाने में सहायता नहीं मिलती। 

फ़िल्म का प्लॉट पेचीदा और उलझा हुआ है। कहानी भागती और बिखरी हुई है, जो दर्शक को बांधकर नहीं रख पाती। संवाद बेतरतीब और दार्शनिक भाव लिए हुए हैं, जिससे वो असरहीन प्रतीत होते हैं। किरदारों की अदाकारी में गहराई का अभाव है। अदाकारी में लापरवाही की झलक है। फ़िल्म की जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है, वो है इसका प्रोडक्शन डिज़ाइन, ख़ासकर मैट्रिक्स और रोबोट। अवधि लगभग दो घंटे होने की वजह से फ़िल्म थका सकती है। फ़िल्म में कुछ लम्हे ऐसे आते हैं, जो काफी प्रभावित करते हैं, मगर ऐसे लम्हों की संख्या अधिक नहीं है। हालांकि लंबे वक़्त तक फ़िल्म बांधे रखने में कामयाब नहीं होती। 


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