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फिल्म रिव्‍यू: फीकी फंतासी, लुंज-पुंज अफसाना ‘कॉफी विद डी’ (एक स्टार)

स्‍क्रीन पर स्‍पष्‍ट नजर आता है कि उन्होंने आधे-अधूरे मन से अदायगी की है। पारूल बनी अंजना सुखानी और गीत-संगीत, सब असरहीन हैं।

By मनोज वशिष्ठEdited By: Published: Thu, 19 Jan 2017 03:22 PM (IST)Updated: Fri, 20 Jan 2017 04:18 PM (IST)
फिल्म रिव्‍यू: फीकी फंतासी, लुंज-पुंज अफसाना ‘कॉफी विद डी’ (एक स्टार)
फिल्म रिव्‍यू: फीकी फंतासी, लुंज-पुंज अफसाना ‘कॉफी विद डी’ (एक स्टार)

अमित कर्ण

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कलाकार: सुनील ग्रोवर, अंजना सुखानी, राजेश शर्मा, जाकिर हुसैन, राजेश शर्मा व अन्य

निर्देशक: विशाल मिश्रा

निर्माता: विनोद रमानी

स्टार: एक

राजनीति में गड़े मुर्दों को भी जिंदा रखने की रवायत रही है। उनके अतीत के स्याह अध्याय वर्तमान तक में भूचाल लाने की कुव्वत रखते हैं। फिल्मकारों के लिए वह काम मुंबई का अंडरवर्ल्ड करता रहा है। विशेषकर तब, जब उस जहान यानी डी कंपनी के महारथियों की तूती बोली जाती थी। अब सिस्टम के समानांतर अपनी सत्ता चलाने वाले वैसे लोग नहीं रहे। फिर भी उनके आतंक की रक्तरंजित गाथाएं ग्लैमर जगत को आकर्षित करती रही हैं। सबसे ज्यादा 1993 मुंबई धमाकों के आरोपी दाउद इब्राहिम के अपराध।

बीते 12 सालों में उनकी जिंदगी पर भांति-भांति की दसियों फिल्मों में फंतासी की उड़ान दिख चुकी हैं। ‘कॉफी विद डी’ की भी बुनियाद कपोलकल्पित सोच पर रखी गई। वह यह कि कराची के ‘महफूज’ आशियाने पर जा दाउद इब्राहिम का खास इंटरव्यू और उससे उसके गुनाह कबूल करने के इकबालिया जवाब लेना। कौन्सेप्ट के स्तर पर दर्शकों को रोमांच के गहरे सागर में भेजने का यह नायाब आइडिया था। अलबत्ता लेखक और निर्देशक के निहायत लचर क्रियान्वयन के चलते उस अवधारणा पर महज ताश के पत्तों का महल बन सका। कभी फिल्म समीक्षक रहे विशाल मिश्रा इसके डायरेक्टर हैं। नायक अर्णब घोष पर टीआरपी लाने का प्रचंड दवाब है। अन्यथा उसका बॉस रॉय उसे प्राइम टाइम से हटा कूकरी शो में शिफ्ट कर देगा।

‘मरता क्या न करता’ जैसी स्थिति में फंसा अर्णब अपनी गर्भवती बीवी पारूल के कहने पर दाउद इब्राहिम का इंटरव्यू प्लान करता है। दाउद पर फर्जी आरोपों की खबरें चलाता है। उन्हें देख आजिज आ आखिर में दाउद अपने राइट हैंड गिरधारी सेक्युलर से कहलवा अर्णब को कराची आने का आमंत्रण देता है। अर्णब राजस्थान के बाहिद गांव से कराची कूच करता है। फिर शुरू होता है दाउद को सवालों से छलनी करने का सिलसिला। अर्णब वह भी नहीं कर पाता। क्यों? वह फिल्म में है। ऐसा नहीं है कि इस मिजाज की मनगढंत कहानी को लोग स्वीकारते नहीं। हॉलीवुड में ‘आर्गो’ और ‘बॉडी ऑफ लाइज’ विशुद्ध फंतासी हैं, पर वे दुनियाभर में लोकप्रिय हैं। यहां ‘तेरे बिन लादेन’ जैसी गुणी फिल्म बन चुकी हैं। ‘कॉफी विद डी’ उस लिहाज से बेअसर है। सभी केंद्रीय किरदार हंसी के पात्र बन कर रह गए हैं। अति तो फिल्म का निष्कर्ष है, जहां विशाल मिश्रा काव्यात्मक न्याय जाहिर करते हैं। जो सवाल-जवाब गढे गए हैं, वे एस हुसैन जैदी की ‘डोंगरी टु दुबई’ के पेज नंबर 22 से लेकर 26 तक से प्रेरित हैं।

दाउद उसी तरह के गोलमोल जवाब दे रहा है। गिरधारी सेक्युलर की आवाज में आदेश की जगह मिन्नतों के भाव हैं। अर्णब उस बाहिद इलाके से कराची जाता है, जो रेगिस्तानी इलाका है, पर वह शूट जंगलों और पहाड़ों में कर ली गई है। इन वजहों से फिल्म न सटायर बन पाई, थ्रिलर तो दूर की बात है। दिशाविहीन व दोयम दर्जे के लेखन के चलते अर्णब बने सुनील ग्रोवर, गिरधारी के रोल में पंकज त्रिपाठी, रॉय की भूमिका में राजेश शर्मा और दाउद इब्राहिम के किरदार में जाकिर हुसैन जैसे समर्थ कलाकारों ने अपनी प्रतिष्ठा धूमिल ही की है। स्क्रीन पर स्पष्ट नजर आता है कि उन्होंने आधे-अधूरे मन से अदायगी की है। पारूल बनी अंजना सुखानी और गीत-संगीत, सब असरहीन हैं।

अवधि-123 मिनट


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