थिएटर में बसती है मेरी जान - मानव कौल
इन दिनों ऑफबीट फिल्में खूब बन रही हैं। इस वजह से रंगमंच की पृष्ठभूमि के कलाकार डिमांड में हैं। मानव कौल उन चंद युवा नाट्यकर्मियों से एक हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी रंगमंच को समर्पित कर दी है। वो कई बरस मुंबई के स्लम इलाकों में रहे। नाटक मंडली में काम
इन दिनों ऑफबीट फिल्में खूब बन रही हैं। इस वजह से रंगमंच की पृष्ठभूमि के कलाकार डिमांड में हैं। मानव कौल उन चंद युवा नाट्यकर्मियों से एक हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी रंगमंच को समर्पित कर दी है। वो कई बरस मुंबई के स्लम इलाकों में रहे। नाटक मंडली में काम किया। अब उन्हें मुंबई में डेढ़ दशक की मेहनत का फल मिला है। उन्हें लगातार मीनिंगफुल फिल्में मिल रही हैं। ‘काई पो छे’ और ‘सिटीलाइट्स’ के बाद अब वो अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर के संग ‘वजीर’ में अपना जलवा बिखेरेंगे।
दुख देती है अपेक्षा
जम्मू-कश्मीर के बारामूला की पैदाइश और मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में पले-बढ़े मानव कहते हैं, ‘नाटक के अलावा मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। मैं नाटक लिखता हूं। निर्देशित करता हूं। उनमें अभिनय करने के बाद ही सुख, संतुष्टि और गर्व हासिल करता हूं। उस तैयारी और परफॉर्मेंस से पहले और बाद के कई घंटे मेरे लिए खुशी भरे होते हैं। मुझे इससे बेहतर जिंदगी की चाह भी नहीं है। थिएटर से मेरी कोई अपेक्षा नहीं थी। मैं अपेक्षाएं पालता तो दुखी रहता। वो कहते हैं न कि इंसान को काम दुख नहीं देता, उससे जुड़ी अपेक्षाएं देती हैं।’ वो बताते हैं, ‘कॉलेज के दिनों में मेरा अक्सर भोपाल जाना होता था। 20-22 साल उम्र रही होगी, जब थिएटर से लगाव होने लगा। लगने लगा कि कितनी सुंदर दुनिया है वो। मैं थियेटर की उत्तेजना को भीतर महसूस करने लगा और इस तरह सफर की शुरुआत हुई।’
जल्दी बोर हो जाता हूं
मानव बताते हैं, ‘बहरहाल, भोपाल में थिएटर करते-करते मैं खुद से ऊबने लगा। एक ही तरह की कम्युनिटी के सामने थिएटर करना मुझे भा नहीं रहा था। सोचा दिल्ली की राह निकलूंगा लेकिन मन में उथल-पुथल हुई और 1998 में मुंबई आ गया। यहां सत्यदेव दुबे जैसे महारथी का सात बरस का सान्निध्य मिला और थिएटर को एक अलग नजरिए से देखने-समझने का मौका मिला। मेरी एक समस्या ये रही है कि मैं बड़ी जल्दी बोर हो जाता हूं। ऐसे में थिएटर करने के दौरान 2003 में ‘जजंतरम ममंतरम’ की। वो सफल भी रही लेकिन उसके बाद के प्रोजेक्ट मुझे एक्साइट करने में असफल रहे। नतीजतन मैंने एक साल के लिए मुंबई को अलविदा कह दिया। फिर कुछ दोस्तों के संग ‘अरण्य’ ग्रुप बना नाटकों का मंचन करने लगा। उसमें मैं व्यस्त और खुश दोनों रहने लगा।’
रंगमंच में मस्त-मलंग
मानव के मुताबिक, ‘मैं आज जो कुछ भी हूं, वो थिएटर के चलते हूं। वो मेरी जिंदगी में नहीं होता तो मैं शायद बर्बाद हो चुका होता। उसी में इतना खुश रहा कि मैं 40 का होने को हूं, फिर भी शादी का ख्याल नहीं आया। गाड़ी, बंगले से प्यार नहीं रहा। कुछ भी खा लिया। कहीं भी रह लिया। मेरा मन तो रंगमंच में मस्त-मलंग हो चुका था। हां, फिल्मों में मजा आ रहा है, पर मैं इनमें टाइम लेता हूं। ‘काई पो छे’ के साल भर बाद ‘सिटीलाइट्स’ आई, क्योंकि खुद को स्टीरियोटाइप नहीं होने देना चाहता था। ‘सिटीलाइट्स’ के बाद भी मैंने अच्छी फिल्मों का इंतजार किया। फल अब ‘वजीर’ के तौर पर मीठा निकला है।’
अमित कर्ण
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