हल्ला बोल Interview: बोली लिपस्टिक टीम : वोट दे सकते हैं, तो क्या फिल्म नही बना सकते
हम वुमेन को वुमेन की तरह देखते नहीं। उनकी चाहत, उनकी च्वॉयस की बात नहीं करते। ये फिल्म उसी लहजे से महिलाओं की फिल्म है।
अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। 'लेडी ओरिएंटेड फ़िल्म' । इन दिनों एकता कपूर की कमान में अलंकृता श्रीवास्तव निर्देशित फिल्म लिपस्टिक अंडर बुर्का को कुछ ऐसे ही तमगों से नवाजा जा रहा है। एकता खुश हैं और वह डंके की चोट पर कह रहीं हैं कि फिल्म पर विवाद है क्योंकि कहानी औरत की नज़र से दिखाई जा रही है और सम्पूर्ण पुरुष समाज पर सवाल खड़े कर रही है। इस फिल्म को भारत में रिलीज करने में खूब मशक्कत करनी पड़ी है और अब जब फिल्म रिलीज़ हो रही है तो इस आल वुमेन्स फिल्मी ब्रिगेड ने हल्ला बोल दिया है। आइये जानते हैं क्या कहती है इस फिल्म की एक्ट्रेसेस।
रत्ना पाठक शाह : वोट दें सकते तो फिल्म देखने की आज़ादी क्यों नहीं?
रत्ना पाठक शाह फिल्म में एक अहम् किरदार निभा रही हैं। वह इस फिल्म को लेकर सेंसर बोर्ड के रवैये को देखते हुए अपनी बात रखती हैं और कहती हैं कि कोफ़्त होती है कि हम एक ऐसे देश में हैं, जहां हमें वोट देने के काबिल समझा जाता है. लेकिन कौन सी फिल्म देखें कौन सी नहीं, इसकी इजाजत नहीं है। अलंकृता ने इस कहानी को यहां तक लाने में बहुत मेहनत की है। रत्ना कहती हैं कि फिल्म में ऐसी बात है, जो आपको सोचने समझने पर मजबूर करती है। परेशान करती है। इस फिल्म से एक ऐसा मसला उठा है, जो जरूरी है दिखाना। रत्ना का कहना है कि ये एजेंडा लग रहा है। मुझे तो खतरे दिखते हैं। समाज अगर अपने आपको ऐन्लाइज करना छोड़ तो वो बंद हो जाएगा। ये दिमाग बंद करने की कोशिश है। लेकिन हां, अलंकृता जैसे लोग आगे आयेंगे और बात रखेंगे। हम जैसे लोग उनका साथ देंगे। रत्ना कहती हैं कि ऐसी फिल्में काफी मशक्कत से बनती हैं। इस फिल्म में ऐसे कई सीन्स होते हैं कि जिसको अगर कोई गलत मूड वाला इंसान वहां हो तो उस सिचुएशन में दिक्कत हो जाती, लेकिन अलंकृता ने इस बात का खास ख्याल रखा था कि हमलोग कभी असहज न हों।
कोंकणा सेन शर्मा : मेरी मर्जी, क्या पहनूं, क्या नहीं. कोई और क्यों बताये?
कोंकणा फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। कहती हैं कि ऐसी स्क्रिप्ट नहीं मिलती। उन्होंने कहा कि अन्युजल कहानी थी। हमलोग वहां तक पहुंच ही कहां पाते हैं कि भोपाल में चार अलग अलग एज ग्रुप की महिलाएं हैं, उनकी जिंदगी में क्या चैलेंज हो सकते हैं। हम कहां ऐसी कहानी लेकर आते हैं छोटे जगह की। मैं तो प्रीव्लेज हूं कि मुझे इस फिल्म के किरदार की तरह जिंदगी नहीं जीनी पड़ी है। जिस तरह से मुझे एजुकेशन और परिवार मिला है, मेरे कैरेक्टर की जिंदगी ऐसी नहीं है। यह एक ऐसी महिला की कहानी है कि जो अपनी मर्जी से काम नहीं कर सकती। कोंकणा इस बात पर फोकस करती हैं कि हम मुंबई में रहें या लॉसएंजेलिस में, पूरी दुनिया में उन्हें पूरी आजादी नहीं है कि उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं, कैसे बात करनी है, कैसे नहीं। एक्ट्रेस हों, तो भी आम महिला हैं तो भी। हम वुमेन को वुमेन की तरह देखते नहीं। उनकी चाहत, उनकी च्वॉयस की बात नहीं करते। ये फिल्म उसी लहजे से महिलाओं की फिल्म है।
प्लाबीता बोर ठाकुर/ अहाना कुमारा : पैम्पर को प्यार का नाम न दो, फूल नहीं इंसान हैं, ये बंधन क्यों?
प्लाबीता असम से संबंध रखती हैं और वह स्वीकारती हैं कि वह जिस जगह से आयी हैं, वहां लड़कियों को हद से अधिक पैम्पर किया जाता है। यह कह कर कि आप तो लड़कियां हैं। पैम्पर करने के नाम पर हमें बंधन डालने की कोशिश की जाती है। हालांकि प्लाबीता लकी रही हैं कि उनके परिवार वालों ने उनका बहुत साथ दिया लेकिन वह जब बाकी लड़कियों को देखती हैं तो महसूस करती हैं कि उन्हें किस तरह पूरी आजादी नहीं दी जाती है। लिपस्टिक अंडर बुर्का उन लोगों को भी एक ठोस जवाब देती है।
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वहीं अहाना कहती हैं कि कबसे ऐसे गाने हमारे यहां बन रहे हैं कि हीरो हीरोइन को इतना छेड़ता है कि लड़की हां कह ही देती है। सेक्स इन द सिटी एक सीरीज़ है, जिसमें लड़कियों के पॉइंट ऑफ़ व्यू से बात रखी गई है। वह फिल्म कितनी लोकप्रिय है वहां और हम अगर कुछ यहां की बात लेकर, यहां की कहानी कह रहे तो यहाँ हंगामा हो रहा है। इस कहानी से बस हम सब यही दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि एक महिला चाहे कुछ भी हो उसकी अपनी आइडेंटिटी होनी चाहिए और वह हासिल करना उनका हक़ है। लेकिन लोगों को यह बर्दाश्त नहीं हो रहा। ऐसी कहानी बनती कम हैं और हम औरतों की कंडिशनिंग ही उस तरह से होती है कि हम पुरुषों के पॉइंट ऑफ़ व्यू से ही दुनिया देखती हैं।