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डूबकर गाने में है सुकून: आबिदा परवीन

टीवी शो 'सुर-क्षेत्र' में जज की भूमिका निभा रही हैं मशहूर पाकिस्तानी सूफी गायिका आबिदा परवीन। उन्होंने इस शो के जरिए भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की संगीत प्रतिभाओं को जज करने की चुनौती स्वीकार की है। वैसे तो इस सहारा वन के इस शो की शूटिंग दुबई में हो रही है ले

By Edited By: Published: Thu, 25 Oct 2012 04:07 PM (IST)Updated: Thu, 25 Oct 2012 06:15 PM (IST)
डूबकर गाने में है सुकून: आबिदा परवीन

टीवी शो 'सुर-क्षेत्र' में जज की भूमिका निभा रही हैं मशहूर पाकिस्तानी सूफी गायिका आबिदा परवीन। उन्होंने इस शो के जरिए भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की संगीत प्रतिभाओं को जज करने की चुनौती स्वीकार की है। वैसे तो इस सहारा वन के इस शो की शूटिंग दुबई में हो रही है लेकिन शो के प्रमोशन के लिए आबिदा जी खासतौर पर पाकिस्तान से भारत आई थीं। उनसे हुई बातचीत के प्रस्तुत हैं अंश।

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'सुर-क्षेत्र' से जुड़ते समय आपके मन में क्या बात थी?

मुझे तो संगीत ने इस शो से जुड़ने के लिए तैयार किया। मेरा मानना है संगीत को किसी भी भाषा या देश की सरहदों में नहीं बांधा जा सकता। जब शो 'छोटे उस्ताद' आया था, उसमें भी कुछ पाकिस्तानी कलाकार थे और इसे लोगों ने भारत के साथ-साथ पाकिस्तान में भी बहुत पसंद किया था। 'सुरक्षेत्र' को भी लोग पसंद कर रहे हैं। संगीत को लेकर भारत-पाकिस्तान के लोगों में हमेशा उत्साह नजर आता है। मुझे यह भी लगा कि इस शो के माध्यम से मैं भारत-पाकिस्तान के तमाम प्रशंसकों के बीच पहुंच सकती हूं इसलिए भी जुड़ी।

लेकिन 'सुर-क्षेत्र' तो भारत-पाकिस्तान के मुकाबले से युक्त संगीतमय शो है?

हर कोई एक जैसा है। हम एक जैसे दिखाई देते हैं। इसलिए मुझे कुछ भी अजीब-सा नहीं लगा। अब तक हमें अच्छी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। इस शो के साथ तमाम पाकिस्तानी म्यूजीशियन भी जुड़े हुए हैं। मशहूर पाकिस्तानी गायक आतिक असलम पाकिस्तानी टीम के मेंटर हैं, लेकिन कहीं न कहीं मुकाबला भी है। जब से इस शो की शुरुआत हुई, तभी से लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि किसकी जीत होगी?

शो के गायकों को जज करते समय किन बातों पर ध्यान देती हैं?

सुर, लय और अल्फाजों की अदायगी के आधार पर मैं फैसला सुनाती हूं। मेरा मानना है कि एक गायक के लिए शब्द को उसके महत्व के साथ उच्चारित करना बहुत जरूरी है।

क्या आप बॉलीवुड की फिल्मों में गाना पसंद करेंगी?

क्यों नहीं? मुझे पहले भी कई ऑफर मिल चुके हैं, लेकिन अपनी दूसरी वजहों के कारण मैं नहीं गा सकी। शाहरुख खान ने मुझसे फिल्म 'रॉ-वन' में गाने के लिए संपर्क किया था, लेकिन उस वक्त मैं अपने कुछ दूसरे कार्यक्रमों में इस कदर व्यस्त थी कि उनके ऑफर को स्वीकार नहीं कर पाई। बीच में एक बार ए आर रहमान ने भी एक फिल्म में गाने का ऑफर दिया था। जब सही समय आएगा, मैं निश्चित रूप से फिल्मों में गाना पसंद करूंगी।

कोई नया एलबम आ रहा है?

बहुत जल्द मेरा एक नया एलबम 'या अली बू' दिल्ली में एक समारोह के दौरान बाजार में आएगा। इसमें ज्यादातर फारसी कलाम हैं।

क्या वर्तमान समय में लोगों को फारसी का यह एलबम पसंद आएगा?

अल्लाह की बातों को समझने के लिए आपके पास दिल चाहिए, इसके लिए भाषा की जरूरत नहीं होती। शब्द मायने नहीं रखते। मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोय..।

जब भी पाकिस्तान से कलाकार भारत आते हैं, तो तनाव पैदा होता है?

मुझे नहीं लगता कि भारत-पाकिस्तान के कलाकारों के बीच कोई तनाव है। मेरा अनुभव तो यही है कि दोनों देशों के कलाकारों के बीच प्यार के साथ-साथ अपनापन भी है। कुछ समय पहले ही अलका याज्ञनिक और कुमार सानू पाकिस्तान आए थे। वहां लोगों ने उन्हें खूब प्यार दिया।

आपने गायकी में एक लंबा सफर तय किया है। अपने सफर के बारे में कुछ बताएंगी?

मेरा सफर वाकई लंबा सफर है। मुझे आज भी याद है, जब मैंने मुस्तफा जैदी की लिखी पहली गजल 'आंधी चली तो नक्शे-कदम..' गाई थी। मैं पीछे मुड़कर देखती हूं, तो मुझे हैरानी होती है। यह सब अल्लाह की मेहरबानी है। इस सफर में सच कहूं तो मेरा ज्यादा समय मेरे पहले उस्ताद मेरे वालिद के साथ ही गुजरता था। मैं उस्ताद सलामत अली खां की भी शिष्या रही हूं। वैसे तो मैंने पूरी कायनात से सीखा है और जिससे भी मैंने एक लफ्ज सीखा, वह मेरा उस्ताद हो गया..।

सूफियाना कलाम, उर्दू लव सॉन्ग, गजल और कव्वाली यानी आपने सब कुछ गाया है। सबसे ज्यादा सुकून किसे गाकर मिला?

पहली और असली बात तो यह है कि कोई भी फॉरमेट हो, डूबकर गाने में ही सुकून मिलता है। इसके बावजूद मैं यह कहना चाहूंगी कि सूफी मौसिकी, सूफी कलाम में पूरी दुनिया को मस्त कर देने वाली रूहानी ताकत है। यहां किसी प्रकार की जात-पात, रंग-रूप का भेद नहीं होता है। सूफियाना पैगाम किसी जुबान का मोहताज नहीं रहता। यह यूनिवर्सल रूहानी कलाम है। यह दिल से निकल कर दिल में जाता है। दुनिया के हर मुल्क के जर्रे-जर्रे पर इसका असर है। सूफी मौसिकी का ऐसा रंग है कि इसे समझने के लिए किसी जुबान की जरूरत नहीं होती।

कभी गजलें-कव्वाली फिल्मों और महफिलों का अहम हिस्सा होती थीं। इधर इसमें कमी आई है?

मेरा ख्याल है कि फिल्में और टीवी सीरियल सिचुएशन से चलते हैं। कभी कव्वाली, कभी सॉन्ग..। इनके बावजूद मैं कहूंगी कि कव्वाली का कैनवास इतना बड़ा है कि इसे कोई खत्म नहीं कर सकता। आज भी पाकिस्तान में लोग घरों में कव्वाली सुनते हैं। सबसे जरूरी बात यह है कि दरवेशों का कलाम गाने से कव्वाली जिंदा रहती है। कव्वाली का मतलब कौल से है। इसमें एक बात होती है, जो हर चीज में मौजूद होती है। ऐसा माना जाता है कि जिस दरवेश का कलाम गाया जाता है, वह हाजिर हो जाता है।

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