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उषा खन्‍ना - एक विरल प्रतिभा और त्रासदी

दिनकर के आर्विभाव में उषा अपनी लालिमा से ही पहचानी जाती है और अवसान की बेला में यही लालिमा उसका स्मृति—चिन्ह बन जाया करती है।

By Monika SharmaEdited By: Published: Wed, 07 Oct 2015 08:21 AM (IST)Updated: Wed, 07 Oct 2015 09:17 AM (IST)
उषा खन्‍ना - एक विरल प्रतिभा और त्रासदी

आज 74 वें जन्मदिन पर विशेष

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नवोदित सक्तावत।

भारतीय सिनेमा के दामन में चांद—सितारों के साथ—साथ कुछ दाग भी समानांतर रूप से सदा रहे हैं। कुछ नाम शोहरतनशीन हुए तो कुछ गुमनाम रह गए। यह बात दीगर है कि कुछ ने गुमनामी को नियति मान लिया तो कुछ ने इसे अंगीकार कर लिया। हमारे पास एक नाम ऐसा भी है जिसका गुमनामी में खो जाना रहस्य से कम नहीं। कमतर लोगों के लिए गुमनामी पनाहगाह का काम करती है लेकिन प्रतिभाशाली व्यक्ति का गुमनाम हो जाना सालता ही है। जहां तक संगीत की बात है, यह क्षेत्र शुरू से ही पुरुष प्रधान रहा है। पिछले वर्षों में संगीतकार के रूप में उभरी स्नेहा खानवलकर ने इस मिथक को तोड़ते हुए स्वयं को स्थापित किया। नई पीढ़ी के संगीतप्रेमी उन्हें बखूबी जानते हैं, लेकिन वे जिसे नहीं जानते, उसे जाने बिना उनका संगीतप्रेम ही अधूरा है।

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खगोल की दुनिया में धूमकेतु के बारे में कहा जाता है कि यह ऐसा तारा होता है तो 76 बरस में एक बार दिखाई देता है, फिर ओझल हो जाता है अगले 76 बरस के लिए। सिने संगीत में उषा खन्ना एकमात्र ऐसी महिला रही हैं जिनका पर्दापण किसी धूमकेतु की भांति हुआ था और वे इसी रूपक की भांति खो गईं। उषा खन्ना की पहचान भारतीय सिने इतिहास की पहली स्थापित महिला संगीतकार के तौर पर बनी थी। अफसोस, यह कायम ना रह सकी। उनकी फिल्मोग्राफी चौंकाती है। 55 साल के कैरियर में उनके खाते में एक दर्जन भी ख्यात फिल्में भी नहीं हैं। उन्होंने जिस मौलिकता और मधुरता से दस्तक दी थी, वह अंदाजे—बयां वन फिल्म वंडर ही बनकर रह गया। आधी सदी गुजरने के बाद भी हम उन्हें "दिल देके देखो" के जर्बदस्त मेलोडियस और खूबसूरत गीतों के लिए ही याद करते हैं।

1959 में आई यह फिल्म कई मायनों में इत्तेफाक थी। नासिर हुसैन ने इस फिल्म से तीन नए चेहरों को मौका दिया था। म्यूजिक कंपोजर के रूप में उषा खन्ना थीं, तो आशा पारेख की भी यह पहली ही फिल्म थी। उस वक्त आशा केवल 17 साल की थीं और उनकी सालगिरह के मौके पर नासिर हुसैन ने फिल्म रिलीज की थी। प्रेमनाथ के छोटे भाई राजेंद्र नाथ का भी पर्दापण इसी फिल्म से हुआ था। इस फिल्म में उन्होंने हीरो के जोड़ीदारनुमा कामेडियन का रोल किया। यह इतना जंचा कि बाद में उन्होंने इसी प्रकार की दर्जनों भूमिकाएं कीं। लेकिन सबसे ज्यादा गौरतलब साबित हुईं उषा खन्ना, जो उस वक्त महज 18 की थीं। यह नौशाद, ओपी नैयर, सचिनदेव बरमन, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन जैसे दिग्गजों का दौर था, ऐसे में अचानक एक 18 साल की अनजान लड़की आई महफिल लूट ले गई।

हल्की कॉमेडी और जवांदिल रोमांस से भरी इस फिल्म में थीम के अनुसार संगीत देना चुनौती से कम इसलिए नहीं था क्योंकि शम्मी कपूर का नया—नया स्टारडम था. उनकी इमेज चुलबुले, डासिंग स्टार की थी। इसे पर्दे पर बराबर कायम रखने के लिए उसी रौ में बहते संगीत की दरकार थी। ओपी नैयर, जो इस विधा के मास्टर थे और नासिर हुसैन की पसंद भी थे, आश्चर्यजनक रूप से इस फिल्म में नहीं थे। ऐसे में नए संगीतकार के लिए इस चुनौती को लेना आसान नहीं था। चुनौती तब और बढ गई जब संगीतकार पुरुष की बजाय स्त्री थी, वह भी नवयौवना! मजरूह सुल्तानपुरी ने दिलकश अंदाज के गीत लिखकर अपना काम पूरा कर दिया। उषा का यह टोटल फ्री लांस एक्ट था।

इससे पहले उसका ना कोई अतीत था, ना नाम था, ना छबि, ना छबि को निभाने का जिम्मा! बस, वह आई और आकर छा गई। चूंकि वह नैयर की प्रशंसक थी तो उसने लहजा भी नैयर के गीतों सा ही चुना। नैयर की तरह उसे भी रफी और आशा ही भाये। इतना भाये कि दूसरे नाम पर विचार ही नहीं किया। फिल्म में सात गीत थे। सातों मोहम्मद रफी से ही गवाये। तीन डुइट थे, उनमें रफी के साथ आशा को ही रखा। जिन्होंने भी फिल्म देखी और संगीत सुना उसके लिए यह विश्वास करना मुश्किल हो गया कि यह किसी नए म्यूजीशियन का काम है। इसका टाइटल गीत "दिल देके देखो, दिल देके देखो, दिल देके देखो जी, दिल लेने वालों, दिल देना सीखो जी" एक रॉक एन रोल पार्टी सांग था, जो श्रोताओं की जुबां पर चढ़ गया। हिंदी सिने संगीत के स्वर्णयुग में उषा को मौका मिलना बहुत से अर्थों में मूल्यवान रहा।

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रफी भी अपने शबाब पर थे, आशा अपनी अदाओं से आराइश कर रहीं थीं। शम्मी कपूर भी बेहद हसीन थे और आशा गंभीरता की उस छबि से मुक्त थीं जो उन्होंने बाद की फिल्मों में ओढ़ ली थी। इस फिल्म के दो गीत तो ऐसे हैं जिन्हें हम सर्वकालिक महान रोमांटिक गीतों में शामिल कर सकते हैं। रफी ने अपनी मधुरतम आवाज और अलौलिक गायकी से इन्हें महान बना दिया। इन्हें केवल सुनकर ही लगता है कि पर्दे पर खिलंदड नायक ही होगा और वह सिवाय शम्मी के कोई नहीं हो सकता।

"हम और तुम और ये समां, क्या नशा—नशा सा है,

बोलिये ना बोलिये, सब सुना—सुना सा है"

इस गीत में रफी ने अपनी गुणवत्ता और गायकी के शिखर को छू लिया है। उन्हें सुनने पर बगीचा, वादियां, शाम, ढलती धूप और चढ़ता इश्क सारे शब्द जीवित हो उठते हैं। इसे सुनकर दिशाएं गुनगुनाती मालूम पड़ती हैं। यह गीत गजब का जीवंत टुकड़ा है। खुमारी की खासी खुराक ही है। इसमें जब रफी गाते हैं "क्या नशा—नशा सा है" तो वाकई मदहोशी ही छा जाती है। एकदम खालिस नशीली आवाज़। लेकिन अगली लाइन में जब वे गाते हैं " सब सुना—सुना सा है" तो लगता है कुछ भी सुना सा नहीं है, सब कुछ अनसुना ही है। शब्द अनुभवों के वाहक कब भला बने हैं। ऐसे मधुरतम गीत की शिल्पी उषा खन्ना को उनका जायज़ हक़ न मिलना नियति की विद्रूपता नहीं तो क्या है! इसी तरह फिल्म का दोगाना, "प्यार की कसम है, ना देखे ऐसे प्यार से" रोमांस का सांगीतिक खुशनुमा अहसास है।

यह जानना हैरतनाक लगता है कि उषा ने कैसे—कैसे स्थापित लोगों के सामने जर्बदस्त आत्मविश्वास दिखाते हुए सात गीत रिकार्ड किए और इतिहास रच दिया। इस सफलता के बाद तो उषा के पास फिल्मों और पुरस्कारों का ढेर लग जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तीन साल बाद शशधर मुखर्जी ने फिल्म "हम हिंदुस्तानी" में फिर मौका दिया। इसमें मुकेश का गाया गीत "छोड़ों कल की बातें, कल की बात पुरानी, नए दौर में लिक्खेंगे मिलकर नई कहानी" बहुत प्रसिद्ध हुआ। देशभक्ति गीतों की महफिल में, स्कूलों में आज भी यह गीत गाया जाता है। लेकिन इस सुस्थापित सफलता के बावजूद उषा स्थापित होने के लिए संघर्षरत ही रहीं।

यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया कि वे स्वयं फिल्मों से दूर रहीं या उनके खिलाफ दबी—छुपी साजिशें चलती रहीं। उन्हें जब भी मौका मिला उन्होंने अत्यंत सधा हुआ, सलीकेदार संगीत दिया लेकिन इन अवसरों की श्रृंखला कभी नहीं बन पाई! यहां से फिर 18 साल गुमनामी का सफर शुरू हुआ। 1979 में उन्हें तीसरा मौका मिला। येसुदास से उन्होंने एक गीत गवाया "दिल के टुकड़े—टुकड़े करके, मुस्कुराके चल दिये, जाते—जाते ये तो बता जा, हम जीयंगे किसके लिए" जो फिर मधुर बन पडा। इतना हिट हुआ कि उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया। इसके बाद फिर चार साल का फासला आया। चार साल बाद "सौतन" फिल्म के गीत कंपोज किए. हिट हुए। आखिर उषा को फिल्मफेयर नामांकन मिला लेकिन उसके बाद फिर गुमनामी का एक और सिलसिला...! 1980 में रिलीज फिल्म "आप तो ऐसे न थे" का रफी का गाया मशहूर गीत "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है" बेहतरीन गीत है।

उषा खन्ना ने जब संगीत दिया, वह गौरतलब ही रहा। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि बॉलीवुड में प्रतिभा को पहचानने की ना कद्र है, ना सलीका, ना तमीज, ना रिवाज। उषा खन्ना भी उन कमनसीबों में से है एक है, जिसे यहां की राजनीति ने पनपने नहीं दिया। असल में, उषा खन्ना पूर्णिमा—अमावस की तरह रहीं। ना पूरी तरह जाहिर ना पूरी तरह नजरबंद। उनका होना, उनके होते हुए भी नहीं होने के बराबर रहा। यह ऐसा ही रहा जैसे वे मौजूद रहीं लेकिन पूरी तरह से कभी सामने नहीं आईं। बीच—बीच में आकर आभास कराती रहीं मौजूदगी का, जब उनकी मौजदूगी प्रखर होने लगतीं वे फिर लंबे समय के लिए खो जातीं।

उनका होना रहस्यपूर्ण है। फिल्ममेकर सावनकुमार से विवाह और अलगाव को यदि उनके व्यक्तित्व से जोड़कर ना देखा जाए तो भी उषा उतनी ही बेबूझ मालूम पडेंगी जितनी हम सुचित्रा सेन को कह सकते हैं। सुचित्रा और उषा में यह साम्य देख सकते हैं कि भरपूर प्रतिभा और बेहद संभावनाओं को अपने अंक में समेटे ये स्त्रियां यदि एक्सपोजर के लिए नहीं आईं थीं तो उसकी झलक दिखाने के पीछे क्या रहस्य हो सकता है! वे निश्चित ही समकालीनों से श्रेष्ठ थीं तो शो—बिजनेस में इस दुराव—छुपाव का प्रयोजन क्या हो सकता है? वे उतनी ही उजागर हुईं जितना चाहती थीं, अथवा उनका उजागर होने नहीं दिया गया? सिनेमा के रसिक अपने कलाबोध में इस कदर आकंठ डूबे होते हैं कि वे कमतर व अयोग्य, अपात्रों को सर—आंखों पर बैठाने में गुरेज नहीं करते।

ऐसे में सुचित्रा—उषा का अल्पतम कैरियर में उत्कृष्ट प्रदर्शन कलारसिकों के प्रति तो कतई न्यायपूर्ण नहीं है। उषा खन्ना का बहुत कम काम करना कुछ—कुछ खययाम साहब की याद दिलाता है। वे भी संगीतकारों की जमात में बने रहे लेकिन कभी मुख्यधारा से जुड़कर नहीं रहे। वे समानांतर सृजन करते रहे। पचास के दशक में फिल्म "फुटपाथ" का तलत महमूद का गाया "शामे गम की कसम" जैसा बहुमूल्य गीत देने वाला शख्स कदाचित गुमनाम ही रहा। इस प्रकार की गुमनामी बड़ी गूढ़ है। जो उषा स्वयं कभी पारंपरिक अर्थों में बहुत आगे नहीं बढ़ी, उन्होंने एक पड़ाव पर नए गायक—गायिकाओं की पौध को संवारने का बीड़ा उठाया। यहां स्वयं को स्थापित करने में आई कठिनाइयों को एक तरफ रखकर संभावनाशील युवाओं को मौका देती रहीं। ये युवा आगे चलकर पकंज उधास, रूपकुमार राठौड, सोनू निगम, मोहम्मद अज़ीज़, शब्बीर के रूप में सुस्थापित हुए, लेकिन उषा पृष्ठभूमि में ही रही।

ऐसा नहीं है कि उषा को बिलकुल ही काम नहीं मिला या उन्होंने स्वयं काम नहीं किया। उन्होंने फिल्में जरूर कीं, लगातार संगीत भी दिया लेकिन यह मुख्यधारा के स्तर का काम नहीं था। उनकी फिल्में कब आईं, कब गईं पता नहीं चला। उनका संगीत नोटिस नहीं किया गया। हो सकता है उन्होंने छोटी—मोटी फिल्मों में अपनी प्रतिभा के अनुसार कमाल का संगीत दिया हो, लेकिन वह सुर्खियों का हिस्सा न बन सका, और उषा कमोबेश पाशर्व में धकेल दी गई! आज वे 74 साल की हैं और किसी प्रकार की सुखिर्यों का हिस्सा नहीं बनतीं। ना किसी पार्टी में जाती हैं, ना कोई बयान जारी करती हैं। संगीत आधारित किसी कार्यक्रम में भी शिरकत नहीं करतीं। सफलता के चरम पर भी वे मुख्यधारा में नहीं रहीं तो अब कैसे रह सकती हैं! उनका व्यक्तित्व अचंभित करता है। उन्हें हम कदाचित सुचित्रा की सहधर्मिणी कह सकते हैं।

बीते 55 बरस में उनका मुख्यधारा में न होना गहरी जिज्ञासा पैदा करता है। उनके फोटोग्राफस और इंटरव्यूज सहज उपलब्ध नहीं हैं। यदि मिलेंगे तो वह रेयर या एक्सक्लूसिव की श्रेणी में ही होते हैं। उनके मधुर संगीत को सुनने वाले रसिक निश्चित ही बेकल हो उठते होंगे और अपने ही कौतूहल का पार नहीं पा पाते होंगे कि वे कौन सी स्थितियां रही होंगी, जिनमें उषा पनप नहीं पाईं या उन्होंने स्वयं को इन सबसे दूर रखा।

संगीत उनकी गुणवत्ता है और माधुर्य गुणधर्म। शब्दकोष में उषा का समानार्थी सुबह भी होता है। दिन बारह पहर का होता है लेकिन सुबह की उम्र छोटी ही होती है। उषा खन्ना का होना भी ऐसी ही त्रासदी है। वे अपने नाम के अनुरूप आईं और जीवन का दूसरा पहर लगते ही ढल गईं। दिनकर के आर्विभाव में उषा अपनी लालिमा से ही पहचानी जाती है और अवसान की बेला में यही लालिमा उसका स्मृति—चिन्ह बन जाया करती है।

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