दिल से निकलती है फिल्म की पटकथा
शोले, लगान, लंच बॉक्स व आमिर जैसी फिल्मों की पटकथा एक दिन में नहीं लिखी जा सकी थी। इनकी पटकथा लिखने में कई माह लगे। लगान की पटकथा लिखने में दो साल से ज्यादा लग गए और सिर्फ पटकथा लिख देने भर से स्क्रीनप्ले राइटर का काम समाप्त नहीं हो
अरविंद कुमार द्विवेदी, दक्षिणी दिल्ली। शोले, लगान, लंच बॉक्स व आमिर जैसी फिल्मों की पटकथा एक दिन में नहीं लिखी जा सकी थी। इनकी पटकथा लिखने में कई माह लगे। लगान की पटकथा लिखने में दो साल से ज्यादा लग गए और सिर्फ पटकथा लिख देने भर से स्क्रीनप्ले राइटर का काम समाप्त नहीं हो जाता है। यह तो सिर्फ एक शुरुआत होती है अपनी कल्पना को कागज पर उतारने की। इसके बाद भी बहुत सारे काम होते हैं। फिल्म को पर्दे तक आने में बहुत लंबा वक्त इसीलिए लग जाता है।
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यह बातें सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में चल रहे छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल की ‘मास्टर क्लास’ में पटकथा लेखक अंजुम रजबअली ने लोगों को बताईं। दो घंटे की क्लास में अंजुम ने मीडिया के छात्र-छात्रओं, फिल्म प्रेमियों व रंगमंच के कलाकारों आदि को स्क्रीनप्ले राइटिंग की एक-एक बारीकी से अवगत कराया। उन्होंने पटकथा लेखन संबंधी सवालों के जवाब दिए और लोगों को समझाया कि कैसे कुछ लाइनों का आइडिया पटकथा का और फिर फिल्मों का रूप ले लेता है। एक लेखक को खुद को कैरेक्टर की तरह महसूस करना पड़ता है।
उन्होंने बताया कि सबसे कठिन होता है किसी खलनायक की कल्पना करना और उसके चरित्र की रचना करना। अंजुम ने छात्रों को विभिन्न फिल्मों का उदाहरण देकर बताया कि किस तरह से उक्त फिल्म की पटकथा की शुरुआत की गई, कैसे किसी विशेष फिल्म का आइडिया दिमाग में आया आदि।
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उन्होंने छात्रों को बताया कि फिल्म की स्क्रिप्ट पूरी हो जाने के बावजूद लेखक का काम खत्म नहीं होता है, क्योंकि फिल्म को पेपर पर तो उतार दिया गया। लेकिन उसे पर्दे पर लाने तक लेखक को जरूरत के हिसाब से उसमें कुछ बदलाव भी करने पड़ते हैं। कई ड्राफ्ट के बाद स्क्रिप्ट पूरी हो पाती है। कोई भी दृश्य यदि लेखक के दिल को अच्छा लगता है तभी वह दर्शकों को भी भाएगा क्योंकि लेखक खुद भी तो एक दर्शक होता है। अंजुम ने बताया कि पटकथा लेखक स्टोरी टेलर ऑन पेपर होता है।
वहीं फिल्म निर्देशक सिनेमैटिक स्टोरी टेलर होता है। यानि एक सफल स्क्रिप्ट राइटर में ये दोनों गुण होना जरूरी है। किसी भी फिल्म की कहानी की शुरुआत के लिए नाटकीय परिस्थितियां बनानी पड़ती हैं। इसके आधार पर हम कैरेक्टर और सिचुएशन चुनते हैं। इन दोनों के बीच ही लेखक को एक कॉनफ्लिक्ट (टकराव) की खोज या यूं कहें रचना करनी पड़ती है। यही टकराव फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाता है।
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शोले हो, लगान हो या फिर सारांश। सबमें कोई न कोई टकराव पैदा किया गया। अंजुम ने कहा कि आशुतोष गोवारिकर ने जब लगान की पटकथा लिखना शुरू किया, उस वक्त उनकी दो फिल्में फ्लॉप हो चुकी थीं। लगान की सफलता ने उन्हें आसमान पर पहुंचा दिया। कई बार असफलता से हम बड़ा सबक सीख पाते हैं।