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गीतकार प्रसून जोशी क्यों पूछ रहे हैं... शर्म आ रही है ना!

बेटियों के जन्म के बाद से ही उनकी उपेक्षा शुरू हो जाती है। प्रसून की कविता समाज के रस्मो-रिवाज पर प्रहार करती है।

By Manoj KumarEdited By: Published: Wed, 24 Aug 2016 05:39 PM (IST)Updated: Wed, 24 Aug 2016 06:12 PM (IST)
गीतकार प्रसून जोशी क्यों पूछ रहे हैं... शर्म आ रही है ना!

मुंबई। बॉलीवुड के मशहूर गीतकार प्रसून जोशी ने ओलंपिक में महिला खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन को समर्पित एक कविता सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर साझा की है।

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'शर्म आ रही है' शीर्षक की इस कविता में प्रसून ने देश में बेटियों को कमतर आंके जाने की मानसिकता पर ताना मारते हुए सवाल भी उठाया है। प्रसून जोशी अपनी रचना में समाज की उस मानसिकता पर चोट की है, जब बेटियों के जन्म के बाद से ही उनकी उपेक्षा शुरू हो जाती है। प्रसून की कविता समाज के रस्मो-रिवाज पर प्रहार करती है। प्रसून की कविता एक करारा जवाब है उस समाज को, जो बेटियों की परवरिश को तवज्जो नहीं देते। प्रसून की कविता के लिरिक्स नीचे दिए गए हैं-

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शर्म आ रही है ना उस समाज को जिसने उसके जन्म पर खुल के जश्न नहीं मनाया

शर्म आ रही है ना उस पिता को उसके होने पर जिसने एक दिया कम जलाया

शर्म आ रही है ना उन रस्मों को उन रिवाजों को उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को

शर्म आ रही है ना उन बुज़ुर्गों को जिन्होंने उसके अस्तित्व को सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा

शर्म आ रही है ना उन दुपट्टों को उन लिबासों को जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा

शर्म आ रही है ना स्कूलों को दफ़्तरों को रास्तों को मंज़िलों को

शर्म आ रही है ना उन शब्दों को उन गीतों को जिन्होंने उसे कभी शरीर से ज़्यादा नहीं समझा

शर्म आ रही ना राजनीति को धर्म को जहाँ बार बार अपमानित हुए उसके स्वप्न

शर्म आ रही है ना ख़बरों को मिसालों को दीवारों को भालों को

शर्म आनी चाहिए हर ऐसे विचार को जिसने पंख काटे थे उसके

शर्म आनी चाहिए ऐसे हर ख़याल को जिसने उसे रोका था आसमान की तरफ़ देखने से

शर्म आनी चाहिए शायद हम सबको क्योंकि जब मुट्ठी में सूरज लिए नन्ही सी बिटिया सामने खड़ी थी

तब हम उसकी उँगलियों से छलकती रोशनी नहीं उसका लड़की होना देख रहे थे

उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल और सब देख रहे थे मटमैला आज

पर सूरज को तो धूप खिलाना था बेटी को तो सवेरा लाना था और सुबह हो कर रही


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