Loksabha Election 2019 : पानी के बुलबुले की तरह उभरे कई दल और फिर अदृश्य हो गए
कई राजनीतिक दलों ने बड़े शोरशराबे के साथ इंट्री मारी लेकिन जल्द ही गुमनाम हो गए। उनके संस्थापकों ने या तो दूसरे दलों के आगे समर्पण कर दिया या फिर संगठन ही तितरबितर हो गया।
लखनऊ [आनन्द राय]। चुनाव आयोग में पंजीकृत होने वाले राजनीतिक दलों की सूची भले लंबी हो रही है लेकिन, बहुत से दल इस सूची से अदृश्य भी हो रहे हैं। ऐसे दलों की लंबी फेहरिश्त है। पर, कई ऐसे भी दल हैं जिनकी उपस्थिति तो बनी रहती है लेकिन, अपने संस्थापकों के समर्पण के चलते उन पर गुमनामी की चादर पड़ गई है। उनका कोई ख्याल भी न आए अगर चुनावी बिसात पर पिछले मोहरों के शह-मात की यादें ताजा न हों। लोकसभा के 16 बार हो चुके चुनावों के कई वाकये हैं जिसमें कई दल उभरे और फिर अदृश्य से हो गए।
राजनीति में किसी न किसी बहाने अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने वाले सांसद अमर सिंह ने 2012 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकमंच नाम से राजनीतिक दल बना पूरे प्रदेश में खूब माहौल बनाया लेकिन, कोई उपलब्धि नहीं मिली। पिछले चुनाव में उन्हें जब कोई बड़ा ठिकाना नहीं मिला तो चौधरी अजित सिंह से मिले और रालोद के टिकट पर फतेहपुर सीकरी से मैदान में कूद गये। रालोद में जाते ही उनका राष्ट्रीय लोकमंच नेपथ्य में चला गया।
ऐसे ही भाजपा से विद्रोह करने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी (जनतांत्रिक) बनाई। कुछ दिनों तक सपा से उनका साथ रहा और फिर भाजपा में वापसी हो गई। अब पार्टी कहां है पता नहीं। वर्ष 1996 में कल्याण की सत्ता बचाये रखने के लिए भाजपा नियंताओं ने कांग्रेस और बसपा में दो फाड़ करा दी। जनबसपा और लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन हुआ। इन दोनों दलों की भी कुछ चुनावों में मौजूदगी रही लेकिन, अब कुछ पता नहीं।
16वीं लोकसभा के पहले हुए विधानसभा चुनाव में कौमी एकता दल वजूद में आया था। तब उसके दो विधायक चुनाव जीते। इससे दल के संस्थापक पूर्व सांसद अफजाल अंसारी का हौसला बढ़ा और अपने बाहुबली भाई विधायक मुख्तार अंसारी समेत कुल नौ लोकसभा क्षेत्रों में मैदान में कूद गए। कौमी एकता दल को कोई सीट तो नहीं मिली लेकिन, 2017 के विधानसभा चुनाव में समीकरण बदले और इस दल की पहले सपा में विलय की घोषणा हुई। बात नहीं बनी तो फिर बसपा के दरवाजे खुल गए। अब यह दल गुमनाम हो गया है।
आजादी के बाद से ऐसे बहुत से दल उभरे और गुमनाम होते गये। बसपा के समानांतर दलितों को जागरुक कर पूर्व आइआरएस उदित राज ने इंडियन जस्टिस पार्टी बनाई और कई चुनावों में दस्तक दिए लेकिन कभी भी संसद का दरवाजा नहीं खुला। पिछले चुनाव में उदित राज यूपी छोड़ दिल्ली गए और मोदी लहर में भाजपा का कमल लेकर संसद में पहुंच गए। उनकी पार्टी का झंडा उनके एक पुराने समर्थक ने जरूर उठा लिया लेकिन, अब कोई प्रभाव नहीं रहा।
2004 में हुए लोकसभा चुनाव में नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी का वजूद अस्तित्व में आया था। मुलायम सिंह उप्र के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने पडऱौना की एक सभा में सपा उम्मीदवार की घोषणा कर दी। उन दिनों सपा के संभावित उम्मीदवार पूर्व सांसद बालेश्वर यादव के समर्थक दूसरे की उम्मीदवारी तय करते ही नारेबाजी करने लगे।
इसके बाद बालेश्वर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी से मैदान में आए और जीत दर्ज की। कुछ समय बाद ही नेलोपा दो धड़ों में बंट गई। एक धड़े का नेतृत्व पूर्व मंत्री डॉ. मसूद और एक का नेतृत्व पूर्व विधायक अरशद खान कर रहे थे। दोनों ने बारी-बारी से सपा में विलय कर लिया। लोकसभा के दूसरे-तीसरे आम चुनावों से ही गौर करें तो ऐसे गुमनाम दलों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है।