LokSabha Elections: ...जब रामगढ़ की महारानी ने धनबाद में किया था कांग्रेस का किला ध्वस्त
देश के अन्य हिस्सों की तरह धनबाद लोकसभा सीट भी कांग्रेस के लिए सुरक्षित सीटों में एक था। शुरुआती चार चुनाव कांग्रेस ने बिना जोर लगाए जीत लिये।
जागरण संवाददाता, धनबाद: देश के अन्य हिस्सों की तरह धनबाद लोकसभा सीट भी कांग्रेस के लिए सुरक्षित सीटों में एक था। शुरुआती चार चुनाव कांग्रेस ने बिना जोर लगाए जीत लिये। 1962 में तो उसने ऐसे व्यक्ति को प्रत्याशी बना दिया, जिसे न तो धनबाद के लोग पहचानते थे, न ही वह धनबाद को जानते थे। पीआर चक्रवर्ती नेहरू की चिट्ठी लेकर आए और चुनाव जीतकर चले गए। लेकिन अगले ही चुनाव में तब की सत्ताधारी पार्टी का गुरूर ध्वस्त हो गया। धनबाद में कांग्रेस का किला ध्वस्त किया रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह की पत्नी व नेपाल के राणा खानदान की बेटी ललिता राजलक्ष्मी ने।
काठमांडू में हुआ था जन्म: रानी ललिता राजलक्ष्मी का जन्म 20 फरवरी 1917 को नेपाल की राजधानी काठमांडू में हुआ था। पिता सिंह शमशेर जंग बहादुर राणा कमांडिंग जनरल थे। ललिता को दो बार जनता ने अपना प्रतिनिधि चुन कर लोकसभा में भेजा। पहली बार 1957 से 62 तक दूसरी लोकसभा का हिस्सा वे रहीं और तीसरी लोकसभा गठन के दौरान उन्होंने 1962 में धनबाद से चुनाव जीता।
जन क्रांति दल के टिकट पर लड़ा था चुनाव: जन क्रांति दल के टिकट पर रानी ललिता राजलक्ष्मी ने जब धनबाद से नामांकन किया तो हर कोई भौंचक था। राजघराने से होने की वजह से लोगों की नजर में तो वह चढ़ीं, लेकिन जब कांग्रेस की आंधी चल रही थी, तब वह जन क्रांति दल के टिकट पर चुनाव लडऩे आई थीं। यहां न तो उनकी पार्टी का कोई तंत्र विकसित था न कार्यकर्ता ही थे। कोई जनाधार भी नहीं था। यह इलाका रामगढ़ राज के तहत भी नहीं आता था। तब धनबाद जिले का प्रमुख व्यापारिक केंद्र झरिया था। या कहिये कि वही शहर था। धनबाद की बसाहट तो प्रारंभिक दौर में ही थी। धनबाद में उपायुक्त कार्यालय व विभागों के दफ्तर के तमाम कर्मचारी बाहरी थे। झरिया शहर के व्यापारी व उनके कारिंदे भी बाहरी या संभ्रांत ही थे। सभी कांग्रेस से प्रभावित थे। हर किसी का मानना था कि इस सीट से चुनाव लड़कर महारानी राजघराने के मान-सम्मान को बट्टा ही लगाएंगी। लेकिन जब चुनाव परिणाम आया तो मानो किसी को भरोसा ही न हुआ हो।
महारानी चुनाव जीत चुकी थीं। और उनकी जीत पर ग्रामीण क्षेत्रों के वो तमाम लोग झूम उठे थे, जिनकी वो न कभी थीं न कभी उनके बीच पहुंचीं। दरअसल राज परिवार की होने की वजह से झरिया, कतरास, नावागढ़ सहित तमाम राजघरानों ने उन्हें समर्थन दिया था और आम लोगों से उन्हें वोट करने की अपील की थी। इसका ग्रामीण क्षेत्र में जबरदस्त असर हुआ। महारानी को हर किसी ने अपनी महारानी की तरह देखा, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी को बाहर से यहां व्यापार व नौकरी करनेवालों के प्रतिनिधि के रूप में। ग्रामीण इलाकों में मूलवासियों की गोलबंदी का असर रहा कि रामगढ़ राजघराने की बहू व नेपाल की राजकुमारी धनबाद की सांसद बन गईं।
पहली बार ग्रामीणों ने दिखाई अपनी ताकत: 1967 के चुनाव को याद करते हुए भाजपा नेता हरिप्रकाश लाटा बताते हैं कि यह चुनाव उनके जीवन के यादगार चुनावों में एक है। पहली बार इस चुनाव में ग्रामीण व शहरी का भेद दिखा था। शहर के लोगों को भान भी नहीं था कि महारानी जीतेंगी। वे तो उन्हें टक्कर में भी नहीं मान रहे थे। दूसरी तरफ ग्रामीण उन्हें अपनी महारानी मान रहे थे। कांग्रेस प्रत्याशी उनके लिए शहर के लोगों के प्रतिनिधि थे। आज जो स्थानीय व मूलवासी का भेद है, समझिये उसका बीजारोपण इसी चुनाव में हो चुका था।