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1971 की झलक दे गया 2019 का चुनावी अभियान, मुखर रहा राष्ट्रवाद और व्यक्ति का मुद्दा

पक्ष-विपक्ष ने व्यक्ति को बनाया मुद्दा जनता के दिलोदिमाग में भी हावी रहा व्यक्ति का चेहरा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 20 May 2019 09:26 AM (IST)Updated: Mon, 20 May 2019 09:33 AM (IST)
1971 की झलक दे गया 2019 का चुनावी अभियान, मुखर रहा राष्ट्रवाद और व्यक्ति का मुद्दा
1971 की झलक दे गया 2019 का चुनावी अभियान, मुखर रहा राष्ट्रवाद और व्यक्ति का मुद्दा

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। चुनावी नतीजे तो 23 मई को आएंगे लेकिन रविवार को अंतिम चरण के मतदान के साथ ही आए एक्जिट पोल में एक स्वर से लगभग एक दर्जन पोल ने राजग को बहुमत दे दिया। यह सच साबित होता है तो माना जाएगा कि ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ का भाजपा का नारा जनता ने अपना लिया। हालांकि पोल में अकेले भाजपा को 272 के जादुई आंकड़े तक पहुंचते नहीं दिखाया गया है। वहीं, प्रधानमंत्री के खिलाफ तीखे बयान देते रहे राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस को किसी भी पोल में तीन अंक का आंकड़ा पहुंचते नहीं दिखाया गया है।

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दल नहीं, चेहरे पर केंद्रित रहा चुनाव
आशुतोष झा, नई दिल्ली। तीन दिन बाद यह तय होगा कि अब तक के इतिहास में सबसे लंबे रहे चुनावी अभियान में विजयी कौन रहा, जनता ने किसके अभियान को सराहा और किसे नकारा। लेकिन इस पूरे अभियान की एक बड़ी खासियत यह भी रही कि पिछले कई चुनावी अभियानों से परे इस बार राजनीतिक दल गौण हो गए। चुनावी अभियान मुख्यतया व्यक्तिवादी हो गया। विपक्ष ने भी व्यक्तिको मुद्दा बनाया, पक्ष ने भी और जनता के दिलो दिमाग में भी व्यक्ति का चेहरा हावी रहा।

एक मायने में 1971 के लंबे अरसे बाद ऐसे चुनाव की झलक दिखी, जहां सत्ताधारी दल के खिलाफ छोटा मोटा गठबंधन भी बना, लेकिन सामंजस्य की काली छाया से नहीं उबर पाया। जबकि राष्ट्रवाद और व्यक्तिका मुद्दा मुखर हो गया। हां, आरोप प्रत्यारोप,तीखे बयानों और कटाक्षों की बात हो तो यह चुनाव अभियान शायद सभी सीमाएं तोड़ गया। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में जब चुनाव आयोग ने शंखनाद किया था उससे काफी पहले की राजनीतिक आहट तो यह थी कि यह गठबंधन बनाम गठबंधन का चुनाव होगा, लेकिन धीरे- धीरे और खासतौर से बालाकोट की घटना के बाद जिस तरह विपक्षी दलों में बिखराव शुरू हुआ, उससे स्पष्ट हो गया कि कमोबेश यह चुनाव व्यक्तिपर केंद्रित हो गया।

केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खड़े हो गए। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जहां गठबंधन का थोड़ा स्वरूप दिखा भी, वहां के नेताओं ने यह स्पष्ट कर ही दिया कि वह एक व्यक्तिके खिलाफ लड़ रहे हैं। सपा और बसपा नेतृत्व की ओर से भी मोदी को ही निशाना बनाया गया। सबसे अलग-थलग होकर चुनाव लड़ी कांग्रेस और राहुल गांधी के निशाने पर भी मोदी रहे। अकेली रह गई आम आदमी पार्टी भी यह बोलने से नहीं बच पाई कि मोदी उसे स्वीकार नहीं। कहा जा सकता है कि ऐसे में विपक्ष शायद भाजपा की रणनीतिक फांस मे उलझ गया।

दरअसल राजग का नेतृत्व कर रही भाजपा यही चाहती भी थी कि चुनावी अभियान का केंद्र बिंदु मोदी बनें। खुद भाजपा के अभियान में ‘मोदी है तो मुमकिन है’, ‘फिर एक बार मोदी सरकार’ जैसे नारे ही गढ़े गए थे। भाजपा में यहां तक ख्याल रखा गया था कि घोषणापत्र के ऊपर कमल निशान के साथ केवल मोदी की फोटो लगाई गई जबकि सामान्यतया ऐसे दस्तावेज पर पार्टी अध्यक्ष की फोटो भी होती है। अगर जमीनी अभियान की बात की जाए तो वहां भी केवल भाजपा ही नहीं राजग सहयोगी दलों के अधिकतर उम्मीदवारों के चुनावी संपर्क अभियान में मोदी ही रहे। यही कारण है कि बाद के चरणों में मोदी यह बोलते सुने गए कि जनता का हर वोट सीधे मोदी के खाते में आएगा। वहीं विपक्ष की ओर से मोदी विरोधी अभियान ने यह सुनिश्चित कर दिया कि चर्चा में मोदी रहें और कई जमीनी मुद्दों पर पानी फिर गया। ध्यान रहे कि कुछ महीने पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नोटबंदी, जीएसटी, ऋण माफी जैसे मुद्दों को धार दी थी। इस बार ऐसे मुद्दे चुनाव पर हावी नहीं हो पाए। कांग्रेस ने न्याय, ऋण माफी जैसे मुद्दों को दस्तावेज में तो जगह दी थी, लेकिन साक्ष्य मौजूद हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के लगभग सभी ट्वीट मोदी पर केंद्रित रहे।

एक मामले में तो राफेल को लेकर चौकीदार चोर है के राहुल गांधी के बयान का उल्टा ही असर दिखा। लोकसभा में संख्या की दृष्टि से तीसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए, जहां हिंसा अपने चरम पर दिखी, तो कहा जा सकता है कि पूरे देश ने सकारात्मकता का संदेश दिया है। लेकिन अभियानों में राजनीतिक दलों के बीच तीखापन काफी था। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि केवल भाजपा और कांग्रेस ही नहीं, कांग्रेस और सपा-बसपा भी एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकीं। आपसी संघर्ष की यह लड़ाई बिहार में भी दिखी, जहां राजग के खिलाफ लड़ते हुए राजद और कांग्रेस भी अपने मतभेद और मनभेद को नहीं छिपा पाईं।

चुनाव आयोग भी कठघरे में रहा। विपक्ष की ओर से जहां लगातार इसे सत्ताधारी दल के हाथ का कठपुतली बताया गया, वहीं पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा पर रोक लगाने में अक्षमता के लिए खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आयोग को आड़े हाथों लिया। आचार संहिता उल्लंघन के फैसलों को लेकर खुद आयोग के अंदर की लड़ाई सार्वजनिक मंच पर आ गई और अपने अधिकारों को लेकर आयोग फिर से बेचारा ही साबित हुआ। इस सबके बीच अब देखने की बात यह है कि नतीजों की घोषणा के बाद राजनीतिक दल और चुनाव आयोग कहां खड़े होंगे। क्या नतीजा भी आरोप प्रत्यारोप का शिकार होगा?

हिंसा पर भारी पड़ा मतदान

जयकृष्ण वाजपेयी, कोलकाता। चुनावी हिंसा के बीच बंगाल मतदान के मामले में फिर अव्वल रहा। प्रथम छह चरणों में बंगाल में 80 फीसद से अधिक वोट पड़े। वहीं प्रथम से लेकर सातवें चरण तक हर मतदान के दिन बम, गोली, संघर्ष से लेकर चुनावी धांधली भी हुई। तीसरे चरण में मतदान के दिन बूथ के निकट एक हत्या कर दी गई। इन सात चरणों के मतदान में सौ से अधिक लोग जख्मी हुए हैं। बंगाल ने हिंसा के मामले में भी रिकार्ड बना दिया। हर चरण के बाद चुनाव आयोग केंद्रीय बलों की संख्या बढ़ाता गया। बावजूद इसके हिंसा नहीं रुकी। पांचवें, छठे व सातवें चरण में तो सौ फीसद बूथों पर केंद्रीय बल की तैनाती सुनिश्चित की गई, लेकिन हिंसा नहीं रुकी। सातवें चरण में दूर दराज के ग्रामीण इलाके ही नहीं, कोलकाता में भी बमबाजी की गई। इसमें एक वोटर जख्मी हो गया। विरोधी दलों खासकर भाजपा प्रत्याशियों को हर चरण में निशाना बनाया गया। जहां भी भाजपा प्रत्याशी पहुंचे, उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। अंतिम चरण में तो जुबानी जंग के साथ-साथ हिंसा की ऐसी घटनाएं हो गईं कि चुनाव आयोग को प्रचार पर निर्धारित समय से 19 घंटे पहले रोक लगानी पड़ी। इसी चरण में कोलकाता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान जमकर बवाल हुआ और महान विद्वान व समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी गई।

इस बार के लोकसभा चुनाव का कई मामलों में कोई सानी नहीं है। पिछले आठ वर्षों के शासनकाल में तृणमूल प्रमुख व मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भाजपा की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा है। अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए यह पहली बार है कि देश के किसी प्रधानमंत्री ने बंगाल में इतनी अधिक 17 चुनावी सभाएं की। ममता ने बंगाल की 42 में 42 सीटें जीतने का दावा कर रही है तो भाजपा 23 सीटों पर। हर चरण में बंगाल में कुछ चुनावी मुद्दे समान रहे और कुछ परिवर्तित होते रहे। जैसे-जैसे दक्षिण बंगाल की ओर चुनाव मुड़ा चुनाव मोदी बनाम ममता हो गया। तीखी नोंकझोक लोकतंत्र का तमाचा, कान पकड़ कर उठक बैठक, गुंडा, गब्बर, जेल से लेकर स्टीकर, स्पीड ब्रेकर दीदी व जागीर तक पहुंच गई। लोकसभा के चुनावी इतिहास में पहला मौका है जब आयोग को बंगाल में अनुच्छेद 324 के तहत प्रचार पर रोक लगानी पड़ी।

जातीय झंझावातों में उलझे मुद्द

हरिशंकर मिश्र, लखनऊ। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 80 संसदीय क्षेत्रों के लिए हुए चुनाव में पश्चिम की बयार आगे चलकर जातीय झंझावातों में तब्दील होती नजर आई। आचार संहिता उल्लंघन के 4349 मामलों का दर्ज होना इसका उदाहरण है। मंचों से विकास की बातें शुरू में तो हुईं लेकिन बाद में मुख्य मुद्दे गायब होते गए। उत्तर प्रदेश में नामांकन की शुरुआत 18 मार्च से हुई और इसके बाद का चुनावी परिदृश्य आरोप-प्रत्यारोप, हद से बाहर जाकर की गई बयानबाजी का भी साक्षी बना। चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवारों ने मर्यादा की दीवारें भी लांघी। कोई भी दल इसका अपवाद नहीं रहा। विशेष तौर पर सपा के वरिष्ठ नेता आजम खां की जयाप्रदा पर की गई टिप्पणी राजनीति में गिरावट की पराकाष्ठा के रूप में देखी गई। तीसरे चरण में चुनाव यादव बेल्ट में पहुंचा तो इसे मायावती और मुलायम के एक मंच पर साथ दिखने के रूप में याद किया जाएगा। राजनीतिक अस्तित्व बचाने की मजबूरियों ने ढाई दशक बाद दोनों को अपनी दुश्मनी भूलने के लिए मजबूर किया।

पांचवें चरण में कई वीआइपी सीटों की वजह से अधिक गहमागहमी देखने को मिली। इसमें गृहमंत्री राजनाथ सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को जिताने के लिए बड़े नेताओं का जमावड़ा हुआ। छठे चरण में केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और आजमगढ़ में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के क्षेत्र में जातीय समीकरण और उभरकर सामने आए। मेनका अपने बयान को लेकर विवादों में भी रहीं। सातवें चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्षेत्र वाराणसी में प्रियंका वाड्रा ने भी पहुंचकर हलचल बढ़ाई। इस चरण में गोरखपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी सीट वापस भाजपा की झोली में डालने के लिए पूरी तकत झोंकी। दो भोजपुरी फिल्म स्टारों पर भी निगाह रही। दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ को भाजपा ने आजमगढ़ में उतारा तो रविकिशन को गोरखपुर में। इसके साथ ही क्षेत्रीय छत्रपों को उनकी भूमिकाओं के लिए याद किया जाएगा। कभी सपा की रीढ़ रहे शिवपाल यादव ने अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा तो रघुराज प्रताप सिंह ने भी अलग दल बनाकर अपने सिपहसालारों को उतारा। हालांकि भाजपा के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द उसके सहयोगी दल सुभासपा के नेता ओम प्रकाश राजभर रहे।

पूरे चुनाव छाया रहा एक ही मुद्दा

अरुण अशेष, पटना। यह अलग तरह का चुनाव था। शोर कम हुआ। चर्चाओं का बड़ा हिस्सा वर्चुअल दुनिया के हिस्से चला गया, लेकिन बिहार के लोग अपने स्वभाव के मुताबिक पूरे चुनाव राजनीति के इस महापर्व का मजा लेते रहे। मुद्दों की बात करें, तो बिहार में लोकसभा का यह चुनाव सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन और विरोध के नाम रहा। 40 में से 35 सीटों पर एनडीए व महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई हुई। पांच सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला हुआ। लेकिन, आसार यही हैं कि इन सीटों पर भी अंतिम लड़ाई दोनों गठबंधन के बीच ही हुई। एनडीए का इकलौता मुद्दा था-एक बार फिर मोदी सरकार। महागठबंधन के दलों ने भी मोदी को ही मुद्दा माना-फिर नहीं मोदी सरकार। तीसरे चरण के बाद खुद नरेंद्र मोदी कहने लगे थे-आप यहां बटन दबाएंगे, वोट मोदी के पास चला जाएगा।

केंद्रीय मुद्दा को अधिक तर्कपूर्ण बनाकर वोटरों के बीच परोसने के लिए विकास की चर्चा भी खूब हुई। मोदी को वोट क्यों? एनडीए के नेताओं ने इसके पक्ष में बहुत तर्क दिए। सबसे बड़ा तर्क निरंतर विकास का दिया गया। इस क्रम में घर-घर बिजली, सड़क, स्वच्छता अभियान, आयुष्मान भारत, किसानों को दी गई सुविधाओं की चर्चा की गई। यह वादा भी किया गया कि अगली बार और बेहतर काम होगा। राष्ट्रीय स्वाभिमान की हिफाजत बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित की गई। इसने उन लोगों को एनडीए से जोड़ा जिन्हें केंद्र सरकार की पांच साल की उपलब्धियां बहुत प्रभावित नहीं कर रही थीं। इसने युवाओं को भी जोड़ा।

महागठबंधन के दलों ने भी सिर्फ मोदी को रोकने के नाम पर ही वोट मांगा। उनके दायरे में बेरोजगार नौजवान और किसान थे। राज्य में कभी किसी किसान ने कर्ज वापस न करने के चलते आत्महत्या की हो, इसका प्रमाण नहीं है। फिर भी महागठबंधन के दलों ने किसानों की आत्महत्या के मामले को खूब उछाला। बेरोजगारी की भयावह तस्वीर पेश कर यह बताने की कोशिश की गई कि मोदी फिर आए तो रोजगार के अवसर और कम हो जाएंगे। कारोबारियों को नोटबंदी और जीएसटी के नाम पर एनडीए से अलग करने की कोशिश की गई। यह वादा भी किया गया कि केंद्र में बनने वाली नई सरकार नौकरियां देगी। जीएसटी को सरल बनाया जाएगा। लेकिन, राष्ट्रीय स्वाभिमान का काट महागठबंधन कभी नहीं खोज पाया। विपक्ष के सबसे बड़े घटक दल राजद ने आरक्षण के नाम पर पिछड़ों और अनुसूचित जातियों को जोड़ने की कोशिश की। इसके केंद्र में भी मोदी ही रहे। यह खतरा दिखाया गया कि मोदी फिर आए तो आरक्षण पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा। शुरुआती दिनों में एनडीए ने सवर्ण गरीबों को सरकारी सेवाओं में दी गई आरक्षण की सुविधा को भी मुददा बनाया, लेकिन, बाद में उसने प्रतिक्रिया के डर से इसकी अधिक चर्चा नहीं की।

मोदी और राष्ट्रवाद ही रहे हावी

नरेंद्र शर्मा, जयपुर। राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों के लिए दो चरणों में चुनाव संपन्न होने के बाद अब राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों को 23 को आने वाले नतीजों का इंतजार है। कांग्रेस की काफी कोशिश के बावजूद ना तो प्रदेश में बेरोजगारी चुनावी मुद्दा बन पाया और ना ही राफेल पर आम मतदाताओं ने चर्चा की। चुनाव में सिर्फ पीएम नरेंद्र मोदी और राष्ट्रवाद मुद्दा रहे। प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार द्वारा की गई किसान कर्ज माफी और बेरोजगारी भत्ते की चर्चा भी चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन सकी। चुनाव के दौरान सबसे रोचक बात राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के प्रमुख हनुमान बेनीवाल का राजग में शामिल होना और उसी दिन भाजपा द्वारा उनके लिए नागौर सीट छोड़ना रही। बेनीवाल की जाट वोट बैंक पर पकड़ को देखते हुए भाजपा ने अपने केंद्रीय मंत्री सीआर चौधरी का टिकट काटकर उनका समर्थन किया। बेनीवाल का मुकाबला कांग्रेस की ज्योति मिर्धा से रहा।

जोधपुर लोकसभा सीट पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। उन्होंने यहां से अपने बेटे वैभव को उतारा तो भाजपा ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रत्याशी बनाया। दोनों के बीच कड़ा मुकाबला दिखा। इस सीट को महत्वपूर्ण इसी लिहाज से माना जा सकता है कि गहलोत चुनाव अभियान के बीच आठ दिन तक यहां रहे, वहीं शेखावत के लिए पीएम मोदी ने सभा की और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने रोड शो किया। पूर्व सीएम और भाजपा उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह के मुकाबले कांग्रेस ने टिकट मिलने से एक दिन पहले भाजपा छोड़कर पार्टी में शामिल होने वाले आरएसएस के पुराने कार्यकर्ता प्रमोद शर्मा को टिकट दिया। क्षेत्र के अधिकांश कांग्रेसी उनके चुनाव अभियान से दूर रहे। स्वाभिमान के नाम पर भाजपा से अलग होने वाले भाजपा के दिग्गज नेता रहे जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह का मुकाबला भाजपा के कैलाश चौधरी से रहा। बीकानेर में दो मौसेरे भाइयों का आमने-सामने चुनाव लड़ना चर्चा का विषय रहा। भाजपा प्रत्याशी केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल और कांग्रेस उम्मीदवार मदन मेघवाल में मुकाबला हुआ। भरतपुर और अलवर सीटों पर प्रत्याशी उतारकर बसपा ने दोनों ही बड़ी पार्टियों के समीकरण बिगाड़ने की कोशिश की।

मेवाड़ की उदयपुर, राजसमंद, बांसवाड़ा-डूंगरपुर और चित्तौड़गढ़ में भारतीय ट्राइबल पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही समीकरण बिगाड़ने का प्रयास किया। हालांकि कांग्रेस को अधिक नुकसान की आशंका है। जयपुर ग्रामीण सीट पर दो खिलाड़ियों केंद्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ और कांग्रेस प्रत्याशी कृष्णा पूनिया के बीच मुकाबला रोचक रहा।

मतदाता ने तोड़ी आतंकवाद की चुनौती

अभिमन्यु शर्मा, जम्मू। छह संसदीय सीट वाले जम्मू कश्मीर के तीन संभागों में अलग-अलग चुनौतियों और सरकार के प्रति नाराजगी के बावजूद लोकतंत्र के इस यज्ञ में मतदाताओं का जोश देखने को मिला। कश्मीर में कई जगहों पर आतंकवादियों और अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार करने की धमकियों के कारण बेशक वहां मतदान प्रतिशत कम रहा, लेकिन जिस प्रकार से लोग मतदान के लिए बाहर आए, उससे यह साफ था कि घाटी में भी लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं।

दक्षिण कश्मीर की अनंतनाग देश की इकलौती सीट थी, जहां तीन चरणों में मतदान हुआ। जम्मू-पुंछ में भाजपा उम्मीदवार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दिग्गज चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे। बारामुला में राष्ट्रीय स्तर का कोई भी नेता प्रचार के लिए नहीं आया। कांग्रेस की जिम्मेदारी पूरी तरह गुलाम नबी आजाद के हाथ रही। जम्मू-पुंछ में 72.16 फीसद और बारामुला में 34.61 फीसद मतदान हुआ। इस दौरान कहीं पर हिंसा की कोई घटना नहीं हुई। दूसरे चरण में ऊधमपुर-डोडा और श्रीनगर संसदीय क्षेत्रों में मतदान हुआ। इन सीटों पर चुनाव प्रचार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिर पहुंचे। जम्मू की दोनों सीटों जम्मू-पुंछ और ऊधमपुरडोडा में प्रचार पूरी तरह से राज्य का देश के साथ पूर्ण विलय, राष्ट्रवाद और जम्मू पर कश्मीर केंद्रित राजनीति को समाप्त करने पर आधारित रहा। वहीं कश्मीर में अलगाववादियों और आतंकवादियों के चुनावों के बहिष्कार की धमकियों के बीच चुनाव संपन्न हुआ।

जुदा रहता है पंजाब का मिजाज

अमित शर्मा, जालंधर। पंजाब के चुनाव में इस बार कई रंग दिखे। गुरदासपुर से इस बार बॉलीवुड अभिनेता सनी देयोल भाजपा के टिकट पर मैदान में उतरे तो जालंधर से हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस जोरा सिंह आम आदमी पार्टी के टिकट पर। फतेहगढ़ साहिब सीट से दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के प्रधान सचिव रहे दरबारा सिंह गुरु और डॉ. अमर सिंह भी चुनावी मैदान में उतरे। होशियारपुर से भी नौकरशाह सोम प्रकाश भाजपा से चुनाव लड़े। कर्ज के कारण परिवार के तीन सदस्य गंवा चुकीं वीरपाल कौर भी बठिंडा से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में थीं।

गौरतलब है कि कांग्रेस व शिरोमणि अकाली दल- भाजपा गठबंधन के लिए एक-एक सीट की अहमियत है क्योंकि इस बार सभी सीटों पर कांटे की टक्कर दिखाई पड़ रही है। पंजाब अक्सर पूरे देश के मूड के विपरीत दिशा में वोट करता है। अब यह देखने वाली बात होगी कि क्या इस बार भी पंजाब का मूड देश के विपरीत रहेगा या राज्य के मतदाता कोई नई दिशा तय करेंगे। पिछले संसदीय चुनाव में आम आदमी पार्टी ने पूरे देश में सिर्फ पंजाब में चार सीटें जीती थीं। इसके अलावा पूरे देश में मोदी लहर थी, लेकिन भाजपा के दिग्गज नेता अरुण जेटली अमृतसर में एक लाख से ज्यादा वोटों से हार गए थे। अकाली दल को चार, भाजपा को दो, कांग्रेस को तीन और आम आदमी पार्टी को चार सीटें मिली थीं।

पंजाब में इस बार चुनाव प्रचार कई मायनों में खास रहा। सिने स्टार सनी देयोल के आने से कांग्रेस के दिग्गज नेता सुनील जाखड़ फंस गए हैं, जबकि इससे पहले वह दो लाख के वोटों से गुरदासपुर उपचुनाव में जीत दर्ज कर चुके हैं। सनी के आने से पंजाब की अन्य सीटों पर भी माहौल बदला नजर आया। प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार के लिए पहली बार पंजाब आईं। उन्होंने सुनील जाखड़ और बठिंडा में अर्मंरदर सिंह राजा वड़िंग के लिए प्रचार किया। यह भी दिलचस्प रहा कि कांग्रेस के स्टार प्रचारक नवजोत सिंह सिद्धू सबसे अंत में पंजाब लौटे और मात्र दो दिन ही प्रचार किया। उसमें भी अंतिम दिन तो ऐसा लगा कि वह कांग्रेस के पक्ष में नहीं, बल्कि विरोध में प्रचार कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने भी अपने प्रत्याशियों के लिए मोर्चा संभाला। उन्होंने होशियारपुर में भाजपा प्रत्याशी सोम प्रकाश के लिए तो बठिंडा में हरसिमरत कौर बादल के लिए रैली को संबोधित किया।

गठबंधन बनाम मोदी

प्रदीप कुमार शुक्ल, रांची। यदि महासमर का आखिरी द्वार तोड़ने में मोदी सेना कामयाब हुई तो झारखंड में 2014 का इतिहास दोहरा सकता है। भाजपा के लिए यही चरण सबसे कठिन था। तीन में से दो सीटें दुमका और राजमहल झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास हैं और गोड्डा में भाजपा महागठबंधन से झाविमो के प्रत्याशी के सामने कड़े मुकाबले में फंसी दिख रही है। झारखंड में चुनावी महासमर रामायण, महाभारत के युद्ध के अंदाज में लड़ा गया। पात्र भी मिलते जुलते। भाजपा की ओर से राम, लक्ष्मण थे तो सुदर्शन, अर्जुन भी। रघुवर भी मोर्च पर डटे थे। जाहिर है कि ऐसे योद्धाओं के खिलाफ महागठबंधन बना और बड़े सूरमाओं ने हाथ मिलाया। झारखंड की राजनीति के भीष्म पितामह कहे जाने वाले शिबू सोरेन ने बखूबी लड़ाई लड़ी है। पिछले चुनावों का परिणाम जनता को पता है। उससे कितना इतर यह परिणाम होगा अब बस इसकी उत्कंठा है। 23 मई के जनादेश का इंतजार है।

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने झारखंड की 14 में 12 सीटें अपने नाम की थीं। इस बार हालात में बदलाव यह है कि तब महागठबंधन नहीं था, इस बार है। तब मोदी लहर थी, इस बार मोदी का काम है। मतलब, एकजुटता महागठबंधन की ताकत तो भाजपा की ताकत मोदी। झारखंड में पूरा चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ा गया। अब छह माह में विधानसभा चुनाव होने हैं।

मोदी समर्थन-मोदी विरोध रहा केंद्र में

नवनीत शर्मा, धर्मशाला। बेशक हर चुनाव का अर्थ आरोप-प्रत्यारोप और मैं सबसे अच्छा, दूसरे बुरे’ की स्थापित परंपरा से जुड़ता है। इस बार कुछ परंपराएं जस की तस रहीं। विभिन्न दलों से रूठे लोगों की घर वापसी कराई गई। पहाड़ में मुकाबला इस बार भी कांग्रेस और भाजपा के बीच रहा। बसपा के हाथी ने पहाड़ की ओर देखा जरूर, लेकिन चढ़ पाना आसान कतई नहीं है। स्थानीय मुद्दों ने चुनाव से पहले अवश्य चर्चा में आने की कोशिश की लेकिन अंतत: चुनाव मोदी बनाम अन्य बनकर रह गया। हिमाचल प्रदेश की संसाधनविहीनता, पर्यटन, ऊर्जा, बागवानी, कृषि और कई ज्वलंत मुद्दे बड़े नेताओं की शब्दावली से नदारद दिखे। उनका जिक्र केवल जिक्र के लिए हुआ। लेकिन बड़ी बात यह दिखी कि भाजपा के प्रत्याशियों के लिए भी स्थानीय मुद्दों या अपने कृतित्व से बढ़ कर मोदी का सहारा था। इससे ठीक उलट कांग्रेस के उम्मीदवारों या दीगर प्रत्याशियों को मोदी के विरोध का सहारा था। कहीं राष्ट्रवाद की बात मुखर थी तो प्रतिपक्ष में राष्ट्रवाद की परिभाषा पर ही चर्चा की अपेक्षा थी। एक सीधी रेखा दिखी। कुछ इस ओर थे, कुछ उस ओर।

मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर पर उभरे। उन्होंने 106 जनसभाओं को संबोधित किया। साफ हुआ कि भाजपा हिमाचल में उन्हीं पर निर्भर थी। दूसरे बड़े नेता शांता कुमार कांगड़ा और प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर तक सीमित रहे। अपनी जनसभाओं में राहुल गांधी बेशक वीरभद्र सिंह को गुरु बताते रहे हों, कांग्रेस के हवाले से यह चुनाव संकेत दे गया कि वीरभद्र सिंह अब अतीत हैं।

मुद्दे नहीं, मोदी बनाम अन्य की लड़ाई

कुशल कोठियाल, देहरादून। उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर प्रत्याशियों की संख्या 52 थी, पर मुकाबले में शुरू से आखिर तक भाजपा और कांग्रेस ही नजर आए। हरिद्वार और नैनीताल में बसपा ने इसे त्रिकोणीय बनाने का प्रयास जरूर किया। इसमें वह कितनी सफल हो पाई, नतीजे ही यह बताएंगे। करीब 80 फीसद साक्षरता दर वाले उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव के परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो पूरे चुनाव अभियान के दौरान मोदी बनाम कांग्रेस के बीच लड़ाई सिमटी रही।

भाजपा ने प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट मांगे और प्रधानमंत्री ने भी चुनावी रैलियों के दौरान खुद को वोट देने की अपील की। कांग्रेस ने अपने चुनावी अभियान के दौरान मुख्य रूप से प्रधानमंत्री मोदी पर ही निशाना रखा। बसपा ने चार सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए और मैदानी भूगोल की दो सीटों नैनीताल और हरिद्वार में उसकी भरसक कोशिश रही कि वह मुख्य मुकाबले का हिस्सा बन सके। जबकि, महागठबंधन में शामिल सपा ने अपने खाते की सीटों पर भी प्रत्याशी नहीं उतारे। चुनाव प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द सिमटा होने के कारण अन्य मुद्दे चुनाव से करीबकरीब गायब ही दिखे। हालांकि, कांग्रेस ने बेरोजगारी, महंगाई, राफेल जैसे मुद्दे उठाने की कोशिश की, मगर उसका अधिकांश वक्त मोदी पर निशाना साधने में ही बीता। भाजपा की तरफ से केंद्र की उपलब्धियों को जनता के बीच रखा गया, लेकिन उसका मुख्य फोकस ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ के नारे पर केंद्रित रहा। मोदी बनाम अन्य की लड़ाई के चलते राज्य में राष्ट्रीय व स्थानीय स्तर के मसले गौण से हो गए। एकदूसरे के कामकाज को कसौटी पर नहीं रखा गया।

चेहरे पर सजाए रखी मुस्कान

आशीष व्यास, भोपाल। जनता ने चेहरे पर मुस्कान सजाए रखी, मजाल है जो मतदान खत्म होने के बाद भी कोई उनका मन पढ़ ले। शुरुआत करते हैं देश की सबसे हॉट सीट में से एक भोपाल से। शहीद करकरे को विलेन और नाथूराम गोडसे को हीरो साबित कर चर्चा में आई साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का राजनीतिक करियर अब सिर्फ इसी चुनाव परिणाम पर टिका हुआ दिखाई देता है। विवादित विषयों से अपना नाम जोड़ने या जुड़वाने के लिए हमेशा चर्चा में रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने साध्वी के मैदान में उतरने के बाद से अस्वाभाविक रूप से मौन धारण कर लिया। कांग्रेस के इस पुराने और अनुभवी चेहरे में इस चुप्पी से भी बड़ा बदलाव था नर्मदा परिक्रमा के बाद मिली सहानुभूति को मंदिर-मंदिर जाकर भगवा रंग में रंगना। साध्वी कट्टरता की परंपरा को निभाती रहीं, लेकिन दिग्विजय सिंह का हठयोग जारी रहा। अपनेअपने धर्म-धारण से भोपाल को चर्चा में बनाने वाले दोनों ही प्रत्याशी अब इसलिए चुप हैं कि जनता ने भी चुप्पी ओढ़ ली है। जब भोपाल बोलेगा, तय है तब भी पूरा देश जरूर सुनेगा।

अब आते हैं छिंदवाड़ा। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपनी पारंपरिक सीट इस बार बेटे नकुलनाथ को सौंप दी है। प्रदेश में सबसे ज्यादा वोटिंग अब तक छिंदवाड़ा में ही हुई है। वैसे भी सत्ता किसी की रहे, अपने क्षेत्र के विकास के लिए कमलनाथ कभी किसी के मोहताज नहीं रहे। लेकिन खुद मुख्यमंत्री बनने के बाद वह पूरे प्रदेश

सहित छिंदवाड़ा के तारों में बिजली नहीं दौड़ा पाए! यही वजह है कि पूरे चुनाव में मध्यप्रदेश में बिजली कटौती राजनीतिक मुद्दा बनकर हर लोकसभा सीट पर घूमती रही। बिजली से पैदा हुआ राजनीतिक संकट किसान कर्जमाफी तक भी जा पहुंचा। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से अलग भाजपा-कांग्रेस के नेता एक दूसरे को कागजों में दर्ज सुबूत सौंपते भी पहली बार इसी चुनाव में देखे गए। पलटवार में शिवराज अब कांग्रेसी वचन-पत्र के अधूरे वादों पर मुखर हो रहे हैं।

ग्वालियर-चंबल, मालवा निमाड़ और विंध्य की कुछ सीटों पर टिकट बंटने से पहले कुछ आरोप-प्रत्यारोप सामने आए, लेकिन बाद में हुए राजनीतिक प्रबंधन से समर्थकों को साथ ले लिया गया। शह-मात की राजनीतिक बिसात पर नेताओं ने सभी चालें चलीं लेकिन जनता का मन नहीं पढ़ पाए। बहरहाल, मध्य प्रदेश ने चारों चरणों में उत्साह से मतदान कर एक नई मिसाल खड़ी की है। शुरू के तीन चरणों में 8 से 11 फीसद तक की बढ़ोतरी जनतंत्र की जागरूकता के अच्छे संकेत भी दे रही है। भाजपा अपनी पुरानी कहानी को दोहराने के लिए आश्वस्त है और कांग्रेसी इस उम्मीद में कि विधानसभा में मिला जनता का साथ, प्रदेश में भाजपा को बराबरी की टक्कर देगा।

नहीं चले मुद्दे

कमलेश पांडेय, रायपुर। छत्तीसगढ़ में आम चुनाव के लिए मतदान शुरुआती तीन चरणों में कराया गया। मुद्दे उठते रहे पर कितना कारगर हुए, इसका दावा कोई भी राजनीतिक दल नहीं कर पा रहा है। कह सकते हैं कि पूरा चुनाव प्रचार मुद्दों से अधिक चेहरों पर केंद्रित रहा। भाजपा ने राष्ट्रवाद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के

विकास कार्यों पर अधिक फोकस किया तो कांग्रेस हालिया विधानसभा चुनावों में जीत, सत्ता में आने पर किए गए कार्य गिनाती रही। कांग्रेस यह मानकर चलती रही कि चार माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिले प्रचंड बहुमत का असर बना रहेगा। यही वजह रही कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी महज एक दिन आ पाए और दो सभाएं कीं।

कांग्रेस की ओर से नवजोत सिंह सिद्धू ही कई बार आए। कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रचार मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के कंधों पर टिका रहा। जबकि भाजपा के स्टार प्रचारकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो बार छत्तीसगढ़ आए और तीन चुनावी जनसभाओं को संबोधित किया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी दो बार छत्तीसगढ़ में चुनावी सभा करने आए। भाजपा विधायक की नक्सली हमले में हत्या भी हुई। भाजपा इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरती रही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछड़ी जाति का कार्ड छत्तीसगढ़ की चुनावी सभा से ही फेंका। इसे वह बाद में मध्य प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश की सभाओं में दोहराते देखे गए।

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