विकास कार्यों के बजट के सदुपयोग को लेकर सरकार को कमर कसनी होगी। ईएपी की बड़ी धनराशि खर्च नहीं होने से स्पष्ट है कि तंत्र लापरवाह बना हुआ है।
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प्रदेश में बाह्य सहायतित परियोजनाओं (ईएपी) में खर्च की धीमी रफ्तार चिंताजनक है। सरकार की ओर से की गई समीक्षा में यह सामने आया है कि ईएपी की 680 करोड़ की राशि खर्च नहीं हो पाई है। इतनी बड़ी धनराशि के इस्तेमाल को लेकर महकमों की उदासीनता तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर रही है। बजट के इस महत्वपूर्ण मद की धनराशि का इस्तेमाल अधिकतर ढांचागत विकास में किया जा रहा है। राज्य सरकार की पुरजोर कोशिश होती है कि बाह्य सहायतित परियोजनाओं में अधिक मदद हासिल हो। यह वाजिब भी है। उत्तराखंड को ईएपी की धनराशि का 90 फीसद हिस्सा केंद्रीय अनुदान के तौर पर मिलता है, जबकि इसमें राज्य की हिस्सेदारी महज दस फीसद तक है। यही वजह है कि बीते वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार और नीति आयोग की ओर से ईएपी में मदद कम करने और केंद्रीय अंशदान कम किए जाने के अंदेशे को देखते हुए राज्य सरकार को गुहार लगानी पड़ी थी। ऐसी परिस्थितियों में ईएपी के बजट खर्च को लेकर हीलाहवाली उत्तराखंड जैसे विषम भौगोलिक क्षेत्रफल वाले राज्य के लिए गंभीर विषय है। अफसोसनाक ये है कि राज्य में अब तक रहीं सरकारें इस मामले में अपेक्षित सतर्कता और सजगता नहीं बरत सकी हैं। इसका खामियाजा राज्य के दूरदराज व दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में अवस्थापना सुविधाओं के धीमे विकास के रूप में सामने है। नियोजन महकमे की रिपोर्ट में भी विषम भौगोलिक क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक विकास में असमानता का जिक्र किया जा चुका है। इन क्षेत्रों में राज्य सरकार के लिए अपने सीमित संसाधनों में विकास कार्यों को अंजाम देना मुमकिन नहीं है। इसलिए केंद्रपोषित योजनाओं और बाह्य सहायतित योजनाओं का अधिकतम लाभ लेने की कोशिश स्वाभाविक है। कड़वा सच देखिए, बीते वित्तीय वर्ष में केंद्रपोषित योजनाओं और बाह््य सहायतित परियोजनाओं के बजट का बड़ा हिस्सा 1232 करोड़ खर्च नहीं हो पाया था। राज्य में नई सरकार आने के बाद भी बजट सदुपयोग में सुधार नहीं होना अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। वैसे भी सरकार का पूरा जोर सुशासन पर है। अब बड़ा सवाल ये है कि विकास कार्यों की बड़ी धनराशि उपयोग के लिए तरसती रहेगी तो जन आकांक्षाओं को किसतरह धरातल पर उतारा जा सकेगा। प्रचंड बहुमत से सत्ता में पहुंची सरकार की जवाबदेही भी अधिक बनती है। 

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]