नववर्ष के आगाज के साथ ही उत्तराखंडवासियों के दिलों में भी उम्मीदों का सागर हिलोरें मार रहा है। उम्मीद राज्य और राज्यवासियों की बेहतरी की, विकास की किरण पिछड़े इलाकों पर पडऩे की और समाज के आखिरी व्यक्ति तक विकास योजनाओं का लाभ पहुंचाने की। ऐसी एक नहीं अनेक उम्मीदें जनसामान्य के मन में हैं तो यह अस्वाभाविक भी नहीं है। वजह यह कि 16 वें वर्ष में प्रवेश कर चुके उत्तराखंड में एक प्रकार से 2016 चुनावी साल है। ऐसे में हर कोई इस वर्ष से कुछ न कुछ उम्मीद लगाए बैठा है। अब यह सरकार पर है कि वह जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाती है, क्योंकि इस राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। सबसे पहले तो सियासी चुनौती सामने है। ठीक है चुनावी साल है और सरकार अपने हिसाब से चलेगी, लेकिन विपक्ष को भी अपनी जिम्मेदारी का ढंग से निर्वह्न करना होगा। चूंकि, मुख्य विपक्षी दल के नए मुखिया का चुनाव हो गया है तो उम्मीद है कि उनकी पार्टी नए तेवरों के साथ सरकार के कार्यों को जनता की कसौटी पर परख जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगी। क्योंकि, बात सिर्फ सियासत की ही नहीं, बल्कि से जुड़े तमाम सवालों को लेकर है। और इस लिहाज से उम्मीदें व चुनौतियां पहाड़ से लेकर मैदान तक पसरी हैं। उत्तरकाशी में इको सेंसेटिव जोन को लेकर जनता में आक्रोश है। लोग इस उम्मीद में हैं कि 2016 इस मसले का समाधान हो जाएगा, यह अपने आप में बड़ी चुनौती है। विकास का मॉडल ऐसा होना चाहिए जिसमें विकास और पर्यावरण दोनों में सामंजस्य हो। इस दृष्टिकोण से ही इको सेंसेटिव जोन के मसले का हल निकाला जाना चाहिए। वहीं, गुजरे साल में राज्य की जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों ने कुछ चुस्ती दिखाई है। उससे भी उम्मीद जगी है कि पिछले 15 साल से उधारी की बिजली पर रोशन हो रहे उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने का सपना साकार होगा। राज्य से जुड़ा एक बड़ा सवाल निरंतर हो रहे पलायन का भी है। आंकड़े बताते हैं कि डेढ़ दशक के वक्फे में तीन हजार गांव खाली हो चुके हैं। इसके पीछे वजह है तो शिक्षा व रोजगार के अवसर न होने के साथ ही सुविधाओं का न पसर पाना। ऐसे में गांव खाली हो रहे तो खेत खलिहान बंजर में तब्दील। यदि पलायन की यही रफ्तार रही तो आने वाले वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटे इस राज्य के पर्वतीय इलाके के और गांवों को खाली होते देर नहीं लगेगी। ऐसे में उम्मीद है कि सरकार गांवों पर ध्यान केंद्रित कर वहां मूलभूत सुविधाओं के विकास के साथ ही रोजगार के लिए ठोस कार्ययोजना तैयार कर इसे धरातल पर उतारेगी। इस कड़ी में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे सवाल भी कम अहम नहीं हैं। शिक्षण संस्थाओं में गुणवत्तापरक शिक्षा पर सवाल उठ रहे तो स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के मद्देनजर डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने में सरकारें नाकाम रही हैं। यही नहीं, 71 फीसद वन भूभाग वाले सूबे में लगातार गहरा रहे मानव-वन्यजीव संघर्ष को थामने की दिशा में सरकार कदम बढ़ाएगी। यह बात गौर करने की है कि चुनौतियों से निबटने के लिए सरकार को नीति के साथ नीयत भी दिखानी होगी।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]