प्रदेश में मुस्लिम समुदाय ने अब खुद ही आगे बढ़ कर न केवल गोरक्षा के प्रति संकल्प जताना शुरू कर दिया है, बल्कि एलान भी करने लगे हैं कि अवैध बूचड़खानों का मांस वे नहीं खरीदेंगे। कुरैश समाज ने तो पिछले दिनों लखनऊ में अधिवेशन आयोजित कर बाकायदे घोषणा कर दी कि गोवंश वध करने वालों का हुक्का-पानी बंद कर सामाजिक बहिष्कार करेंगे। गोवंशीय जानवरों की रक्षा को पूरे देश में पांच हजार वालंटियर्स नियुक्त करेंगे। यदि कुछ संकुचित विचारधारा वाले लोग मुस्लिम समुदाय के इन फैसलों को राजनीतिक नजरिये से न देखें और उनके इरादों पर संदेह व अविश्वास न जताएं तो समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक समन्वय की एक नई तस्वीर उभर कर सामने आ रही है।

यह इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दो दिन पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने कहा है कि मनपसंद भोजन संविधान की पंथ निरपेक्ष छतरी के तले जीवन का प्रतिस्पर्धी अधिकार है। यह भी कहा है कि व्यापार, पेशा, स्वास्थ्य की सुरक्षा के अधिकार के साथ ही उपभोग और सुविधाएं मुहैया कराना सरकार का दायित्व है।1निश्चित रूप से मनपसंद भोजन सभी का अधिकार है लेकिन, जब बात मिश्रित सामाजिक ताने-बाने में धार्मिक, सांस्कृतिक और जीवनशैली के आधार पर सामाजिक समन्वय, सामंजस्य, सद्भाव और सौहार्द की होती है तो कुछ मामलों में संयम बरतने की भी जरूरत होती है। खानपान के अधिकार से गोवंश के मांस को दूर रखना भी इसी संयम का एक हिस्सा है लेकिन, दूसरे पक्ष को भी कुछ बातें समझनी होंगी। व्यावहारिक धरातल पर उतर कर उदारवादी नजरिया विकसित करना होगा। अविश्वास की खाई पाटनी होगी।

यदि दोनों ही पक्ष गोरक्षा का संकल्प ले रहे हैं तो फिर मतभेद की कोई गुंजायश नहीं बचनी चाहिए, बल्कि इस अभियान में अलग-अलग चलने के बजाय संयुक्त रूप से आगे बढ़ना चाहिए। इससे न केवल विश्वास बढ़ेगा, बल्कि एक दूसरे के धर्म, आस्था और भावनाओं के प्रति आदर भी बढ़ेगा। फिलहाल देश के दो प्रमुख संप्रदायों के बीच असहमति की दीवार ढह रही है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि एक न एक दिन सांप्रदायिक सौहार्द की ऐसी मिसाल भी कायम होगी, जिसे दुनिया नजीर के तौर पर देखेगी। इसलिए मुस्लिम समुदाय की नई पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।