इन दिनों, जब तापमान यौवन पर चल रहा था, मौसम का मिजाज खराब होना और उसके कारण सड़कें, बिजली और जनजीवन ही अस्तव्यस्त होना कोई नई बात नहीं है। यह हिमाचल प्रदेश के साथ हर वर्ष होता है लेकिन सवाल यह है कि जब यह जानकारी में है कि ऐसा होता है, फिर पूर्व आपदा प्रबंधन जैसी स्थिति हर बार क्यों नहीं दिखती। किसी विषय पर पूर्व आपदा प्रबंधन के तौर तरीकों को जानने के लिए बैठक करना एक बात है जबकि आपदा पडऩे पर उसकी समीक्षा करना नितांत दूसरा मामला है। सवाल यह है कि कई क्षेत्रों के नसीब में अंधेरा क्यों है? ऊर्जा प्रदेश होने के बाद यह अंधेरा क्या कहता है? कई क्षेत्रों में विद्युत कर्मियों की करंट के कारण असमय मृत्यु जैसी सूचनाएं भी आ रही हैं। लोक निर्माण विभाग और बिजली विभाग को अपनी सक्रियता को परखना होगा। यह ऐसे पेड़ों पर विचार करने का समय है जो हवा चलते ही वाहनों पर गिर कर कातिल बन जाते हैं। राजधानी में ही बिजली का आलम यह है कि जरा सी हवा चले तो बिजली गुल। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति क्या होगी, क्या उसके लिए किसी शोध की आवश्यकता होनी चाहिए? वास्तव में यह बार-बार कहा जाता है कि इस मौसम से निपटने के लिए जिस अंतर्विभागीय तालमेल की जरूरत होती है वह होना चाहिए। कौन बनाएगा ऐसा एक त्वरित प्रतिक्रिया दस्ता? जाहिर है, यह नीति नियंताओं का कार्य है। आपदा में सब इंतजाम भीग जाएं, यह आग लगने पर कुआं खोदे जाने की प्रवृत्ति का परिचायक है। होना यह चाहिए था कि इस स्थिति से निपटने के लिए पहले पहल ही चुस्ती बरती जाए। यह शहरी क्षेत्र की हालत है तो ग्रामीण इलाकों में क्या हाल होगा, इस पर विचार होना चाहिए। मौसम के मिजाज को कोई बदल नहीं सकता। गर्मी से घबराए लोगों के लिए ये ओले भले ही तापमान गिरा जाते हैं लेकिन किसान और बागवान पर जो गुजरती है वो वही जानते हैं। प्रकृति पर जोर नहीं लेकिन विद्युत आपूर्ति बाधित होने के अर्थ कहीं रखरखाव की समस्या के साथ तो नहीं जुड़े हैं? क्या विद्युत कर्मियों के पास जरूरी उपकरण हैं? क्या पेड़ों और तारों के बीच उचित दूरी है? ये तमाम सवाल पूर्व आपदा प्रबंधन में आते हैं। अप्रिय प्रभावों से बचने के लिए विभागों के स्तर पर भी चुस्ती और सक्रियता भी दिखाई देनी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : हिमाचल प्रदेश ]