----आदर्श व्यवस्था का मूलभूत सिद्धांत भी है कि जिन राज्यों में जनता जागरूक होती है, वहां भ्रष्टाचार और बेईमानी खुद ही दम तोड़ने लगती है।----यह उचित ही है कि कानून का राज स्थापित करने और भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने सबसे पहले अपने ही गिरहबान में झांकने पर जोर दिया है। जिन इकाइयों पर जिस काम की जिम्मेदारी हो, अगर वह अपने दायित्व को ईमानदारी से निभाएं, तो तय है कि लोगों का भरोसा उन पर बढ़ेगा। भ्रष्टाचार निवारण संगठन एक ऐसी ही इकाई है जो अब तक लोगों का भरोसा जीतने में सफल नहीं हो पाई है। इसीलिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसके पुनर्गठन पर जोर दिया है। वस्तुत: इन संस्थाओं से अधिक उनका भरोसा प्रदेश की जनता पर है जिसे टोल-फ्री नंबर देकर वह भ्रष्ट लोगों की पहरेदारी सौंपना चाहते हैं। इसके पीछे आदर्श व्यवस्था का मूलभूत सिद्धांत भी है कि जिन राज्यों में जनता जागरूक होती है, वहां भ्रष्टाचार और बेईमानी खुद ही दम तोड़ने लगती है। यह प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि यहां जनता में अपने अधिकारों को लेकर अपेक्षित जाग्रति नहीं है। बल्कि, कहीं-कहीं तो लोग खुद भी भ्रष्ट व्यवस्था के कॉकस का हिस्सा हैं और यह तभी छिन्न-भिन्न होगा जब उनके बीच के ही कुछ लोग आगे बढ़कर सरकार को सही जानकारियां देने का हौसला करें। अब ऐसा होने की उम्मीद इसलिए है, क्योंकि उन्हें प्रताड़ना का भय नहीं होगा। भ्रष्टाचार के अलावा भाजपा सरकार को कानून के मोर्चे पर अभी लंबा सफर तय करना है और ऐसा तभी संभव है जबकि पुलिस अपनी छवि में आमूलचूल बदलाव करे। पुलिस और बदमाशों के गठजोड़ के तमाम मामले अब तक सामने आते रहे हैं जिससे आम आदमी का विश्वास खाकी वर्दी से उठ गया है। राजधानी में श्रवण साहू हत्याकांड जैसी घटनाएं इसके उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं। यह विडंबना ही है कि अपराधियों के शिकार लोग थाने जाने में हिचकिचाते हैं। यह हिचक तभी दूर होगी जब पुलिस यह तथ्य समझे कि इकबाल सिर्फ डंडे से ही बुलंद नहीं होता, उसके लिए मित्र बनने की पहल भी करनी होती है। पुलिस बल का नैतिक ह्रास इस बात से भी समझा जा सकता है कि कई बड़े अफसरों को उनकी राजनीतिक निष्ठा से पहचाना जाता है। सबसे बड़ी चोट इस संरक्षणवादी परंपरा पर ही करनी होगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]